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कृष्णावतार : भाग-6 - महामुनि व्यास

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :231
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2422
आईएसबीएन :9788171788774

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प्रस्तुत है कृष्णावतार का छठवाँ खंड...

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Mahamuni vyas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कृष्ण-चरित्र के अछूते-मार्मिक प्रसंगों को उद्घाटित करने वाली वृहद औपन्यासिक कृति कृष्णावतार का यह छठा खंड है। मूल गुजराती में रचित इस महाकाव्यात्मक ग्रन्थमाला के अन्य खंडों (बंसी की धुन, रुक्मिणी-हरण, पाँच पाण्डव, महाबलि भीम, सत्यभामा और युधिष्ठिर) का हिन्दी अनुवाद राजकमल से प्रकाशित है। लेखक के अनुसार, छठे खण्ड में निबद्ध होकर भी यह कथा इस समूची ग्रन्थ माला की प्रस्तावना के समान है। अतः इस खण्ड की महत्ता स्वयंसिद्ध है।

देश-काल की दृष्टि से यह वह समय है जब आर्यावर्त में वर्ण-व्यवस्था जन्म ले रही थी। ऐसे में मूल महाभारत के रचयिता, तीर्थ-संस्कृति के जनक और श्रुति को प्रामाणिक रूप में लिपिबद्ध करने वाले कृष्ण द्वैपायन व्यास के अपने जीवन-काल में ही एक महान धर्म-निर्माता, महामुनि, यहाँ तक कि भगवान वेदव्यास के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे। लेकिन एक मछुआरे की कन्या के गर्भ से पैदा होकर इस, महान गौरव तक वे किस प्रकार पहुँचे, इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। यह उपन्यास इसी अभाव की सुन्दरतम पूर्ति है। किशोर और युवाव्यास को इस कृति में हम अकल्पनीय रूप से सक्रिय देखते हैं, जिसे तत्कालीन समाज के जटिलतम संघर्षों और उसके अपने दुखों ने एक नया व्यक्तित्व प्रदान किया है। इसके अतिरिक्त इस उपन्यास में कितनी ही ऐसी घटनाएँ और चरित्र हैं जो हमें मुग्ध और सम्मोहित कर लेते हैं।

 

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी

 

जन्म: 30 दिसम्बर सन् 1887। जन्मस्थान: भड़ौंच (गुजरात)। शिक्षा: बी. ए. एल. एल. बी. डी लिट्., एल-एल डी।
मुंशीजी गुजरात के सुविख्यात उपन्यासकार: इतिहास, राजनीति, साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ तथा प्राच्य विद्या के बहुश्रुत विद्वान थे। अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत और अन्य कई भारतीय भाषाओं पर उनका अच्छा अधिकार था।
प्रारम्भ (1915) में "यंग इंडिया" के संयुक्त सम्पादक बने। सन् 1938 से भारतीय विद्या भवन के आजीवन अध्यक्ष और "भवन्स जर्नल" के सम्पादक रहे। सन् 1937-47 के दौरान दस वर्षों तक "गुजराती साहित्य परिषद्" के अध्यक्ष पद पर काम किया। सन् 1944 में हिन्दी साहित्य के सम्मेलन की अध्यक्षता की। सन् 1951 से मृत्यु-पर्यन्त, संस्कृत विश्व परिषद् के भी वे अध्यक्ष रहे।

सन् 1952 से 1958 तक उन्होंने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का पद-भार सँभाला और उसी दौरान सन् 1957 में भारतीय इतिहास काँग्रेस की अध्यक्षता की। मृत्यु: 8 फरवरी सन् 1971।
प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ: लोमहर्षिणी, लोपामुद्रा, जय सोमनाथ, भगवान परशुराम, तपस्विनी, पृथ्वीवल्लभ, भग्नपादुका, पाटण का प्रभुत्व, कृष्णावतार के साथ खण्ड- बंसी की धुन, रुक्मिणी हरण, पाँच पाण्डव, महाबली भीम, सत्यभामा, महामुनि व्यास, युधिष्ठिर (सभी उपन्यास); वाह रे मैं वाह (नाटक); आधे रास्ते, सीधी चढ़ान, स्वप्नसिद्धि की खोज में (आत्मकथा के तीन खण्ड)।

 

प्राक्कथन

 

भागवत ने जिसे ‘भगवान स्वयं’ कहा है और जिसने भगवद्गीता का हमें संदेश दिया है उस कृष्ण भगवान का नाम किसने नहीं सुना होगा ?
बचपन के दिनों का जहाँ तक मुझे स्मरण है तब से श्रीकृष्ण मेरी कल्पना की दुनिया में छाए रहे हैं। छोटा था तब मैं इनके पराक्रम की बातें सुन-सुन कर चकित हो जाया करता था। तभी से मैं इनके विषय में लिखे गये पराक्रम और काव्य कथा ग्रन्थ पढ़ता आ रहा हूँ, इनकी लीला का पद गाता आ रहा हूँ और स्वयं भी इनका गुणगान करता आ रहा हूँ। अनेक मन्दिरों में मैंने इनकी पूजा की है, प्रत्येक जन्माष्टमी को अपने घर के आँगन में उन्हें मैंने अर्घ्य दिया है। दिन-प्रतिदिन, वर्ष-प्रतिवर्ष, इनका सन्देश मेरे जीवन की प्रबल शक्ति बनता चला गया है।

इनके आकर्षक व्यक्तित्व की झाँकी मूल महाभारत में उपलब्ध है, लेकिन दुर्भाग्य से उस पर तीन हजार वर्षों की दन्त कथाओं, चमत्कारों और भक्तिभाव से प्रेरित स्तुतियों की गर्द चढ़ गयी है।
श्रीकृष्ण बुद्धिमान और बलवान थे, उनकी जीवनचर्या अद्भुत थी—दूरदर्शी थे लेकिन समसामयिक को समर्पित थे; सन्त की तरह निःस्पृह थे पूरी तरह से मनुष्य का उल्लास भी उनमें था; एक कूटनीतिज्ञ, सन्त और कर्मयोगी मनुष्य के गुणों से परिपूर्ण उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि वह दैवी प्रीति से युक्त लगता था।

इनके जीवन और पराक्रम की कथा नये सिरे से रचने की इच्छा मुझे कई बार होती रही है। बहुत असम्भव था यह काम, लेकिन भारत के असंख्य साहित्यकार सदियों से जैसा करते आये है वैसे ही मैं भी, मेरे पास जो कुछ रचनात्मक सृजनशक्ति और कल्पना है उसकी नन्हीं-सी अंजलि उन्हें समर्पित किये बिना नहीं रह सका।
इस पूरी ग्रन्थमाला को मैंने ‘कृष्णावतार’ नाम दिया है। कंस के वध के साथ समाप्त होनेवाले इनके जीवन के प्रथम खण्ड को मैंने ‘मोहक बाँसुरी’ नाम दिया है क्योंकि मनुष्यों के समान रूप से सम्मोहित किया है। असंख्य कवियों ने इसकी मोहक मधुरिमा को गाया है।

दूसरा खण्ड रुक्मिणी हरण के साथ पूरा होता है। उसे मैंने ‘सम्राट का प्रकोप’ शीर्षक दिया है। उसमें मगध के सम्राट जरासंध के प्रति श्रीकृष्ण के सफल विरोध का घटना को प्रमुख रूप से चित्रित किया गया है।
तीसरे खण्ड को मैंने ‘पाँच पाण्डव’ शीर्षक दिया है। वह द्रौपदी स्वयंवर के साथ पूरा होता है।
चौथा खण्ड है ‘भीम की कथा’- वह युधिष्ठिर के वचन-पालन के साथ पूरा होता है और उसमें श्रीकृष्ण की सलाह पर भीम व अन्य पाण्डव खाण्डवप्रस्थ की ओर प्रयाण करते हैं।
पाँचवाँ खण्ड है ‘सत्यभामा की कथा’- वह सत्यभामा व श्रीकृष्ण के विवाह के साथ पूरा होता है। इसमें मैंने विविध पुराणों में वर्णित हुई स्यमन्तक मणि की घटना का वर्णन किया है। यह घटना श्रीकृष्ण के जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है। मैंने इसे प्रतीक रूप में लिया है।

 प्रस्तुत छठे खण्ड में ‘महामुनि व्यास की कथा’ है और सातवें खण्ड में ‘युधिष्ठिर’ की कथा’ होगी।
मेरी इच्छा है कि मैं इस पूरी कथा को वहाँ तक ले जा सकूँ जहाँ तक कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में ‘शास्वत धर्मगोप्ता’ श्रीकृष्ण अर्जुन को विश्वरूप का दर्शन कराते हैं। इस आठवें खण्ड का शीर्षक रहेगा ‘कुरुक्षेत्र की कथा’।
‘पुरन्दर पराजय’ नाटक में मैंने च्यवन और सुकन्या का चित्रण किया था; ‘अविभक्त आत्मा’ में मैंने विशिष्ठ और अरुन्धती को चित्रित किया था; अगस्त्य, लोपामुद्रा, वसिष्ठ, विश्वामित्र, परशुराम और सहस्रार्जुन को ‘लोपामुद्रा’ के चार भागों में, ‘लोमहर्षिणी’ में और ‘भगवान परशुराम’ में प्रस्तुत किया था; और अब श्रीकृष्ण तथा महाभारत के अन्य पात्रों को ‘कृष्णावतार’ के इन खण्डों के रूपायित कर रहा हूँ। इनमें से कोई भी कृति प्राचीन पुराणों का अनुवाद नहीं है, यह मैं कई बार स्पष्ट कर चुका हूँ।

श्रीकृष्ण भगवान के जीवन और परशुराम का चित्रण करते वक्त, अपने कई पूर्वजों की भाँति, उनके व्यक्तित्व, आचरण तथा दृष्टिकोण को सुसंगत बनाने के लिए मैंने कई घटनाओं का पुनर्निर्माण कर लिया है; महाभारत में वर्णित कई अल्पज्ञात चरित्रों को पुनः मूर्तिमान करने का प्रयत्न किया है।
इस प्रयत्न में कई बार ‘महाभारत’ के पुराने परम्परित प्रसंगों को मैंने नये अर्थ में प्रस्तुत किया है। आधुनिक रचनाकार जब प्राचीन जीवन का निरूपण करता है तो उस कल्पना का आश्रय लेना ही पड़ता है।

मुझे विश्वास है कि मैंने जो छूट ली है उसके लिए भगवान श्रीकृष्ण मुझे क्षमा करेंगे लेकिन मुझे श्रीकृष्ण को उसी रूप में अभिव्यक्त करना चाहिए जिस रूप में मैंने उन्हें अपनी कल्पना की दृष्टि से देखा है।
‘कृष्णावतार’ ग्रन्थमाला के प्रत्येक खण्ड को स्वतन्त्र कथा की तरह भी पढ़ा जा सकता हा।

 

कन्हैयालाल मुंशी

 

भूमिका

 

‘कृष्णावतार’ का ‘महामुनि व्यास की कथा’ नामक यह खण्ड पूरी ग्रन्थमाला की प्रस्तावना के समान है।
महाकाव्य पुराणों में वर्णित कृष्ण के जीवन को फिर से जोड़-जोड़कर देखने की जब मैं कोशिश कर रहा था तब मुझे लगा कि महर्षि वेदव्यास के जीवन में श्रीकृष्ण के जीवन की उपलब्धियों की प्रस्तावना विद्यमान है।
महाभारत में द्वैपायन व्यास का थोड़ा उल्लेख है। उसके साठ वर्ष बाद वे एक महामुनि के रूप में, वेदों के रचयिता और धर्मावतार के रूप में प्रकट होते हैं। कुरुओं के बुजुर्ग लोग तथा पाण्डवगण उनकी सलाह लेते थे, यह उल्लेख मिलता है।
इन दो समय-खण्डों के बीच बहुत कम सामग्री उपलब्ध है, इसलिए मुझे ही इस सारी कथा की रचना करनी पड़ी है।
भारतों के युद्धों के बाद भी व्यास जिन्दा रहे और कहते हैं कि मूल ‘महाभारत’ की रचना उन्होंने की थी, जिसमें कई क्षेपक जुड़ते गये और इससे यह जिस रूप में प्राप्त हुआ, आज वह हमारे सामने है।

पुराणों की रचना में भी व्यास का बड़ा योगदान है। कहते हैं कि अधिकांश पुराण व्यास मुनि द्वारा रचे हुए हैं। इन सभी में व्यास के जीवन की कई घटनाओं का उल्लेख आया है। कई जगह उल्लेख परस्पर विरोधी भी है। जो भी हो, कुलमिलाकर यह सही है कि अपने जीवन-काल में वे धर्म के महान निर्माता और भगवान वेदव्यास के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे।
ये सब उल्लेख तो मिलते हैं लेकिन इस स्थिति तक वे किस तरह पहुँचे इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता।
श्रोत साहित्य में एक तरफ त्रयी विद्या-ऋक्, यजुर और साम-तथा दूसरी तरफ अथर्वण-आंगिरस के बीच संघर्ष का वर्णन मिलता है।

त्रयीविद्या शाखा अथर्वण शाखा को थोड़ा तिरस्कार की दृष्टि से देखती थी क्योंकि अथर्वण शाखा में यातुविद्या (जादू, कामण), चिकित्सा कार्य (भिषग कर्मणी) तथा राज-काज (राज कर्मणी) आदि का भी समावेश कर दिया था। यज्ञों में ब्रह्मा के आसन पर बैठने का अथर्वण ऋषि को अधिकार नहीं था।

इस सारे संघर्ष का अन्त अथर्वणों के पक्ष में हुआ। अथर्वण मन्त्रों को वेदों में स्थान मिला। अथर्वण ऋषियों के यज्ञों में ब्रह्मा का आसन मिलने लग गया। यज्ञों में उनके द्वारा अथर्वण मन्त्र बोलने पर प्रतिबन्ध फिर भी लगा रहा।
पुराणों में वेदव्यास की शिष्य परम्परा भी दी गयी है। वेदव्यास ने वेद की विविध शाखाओं को व्यवस्थित किया जिनके कारण श्रौत विधियों में अथर्वण मन्त्रों को स्थान मिला और अथर्वण शाखा का सुमन्तु वेदव्यास का प्रथम शिष्य बना।
वेदव्यास की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह रही है कि ‘शब्द’ या ‘श्रुति’ को उन्होंने एक प्रामाणिक रूप दिया। पिछले तीन हजार वर्षों से उनके द्वारा की गयी यह वेद-व्यवस्था आज तक अटूट चली आ रही है।
स्कन्द पुराण में जाबालि ऋषि की पुत्री व्यास की पत्नी वाटिका का उनके पुत्र शुकदेव के साथ हुआ संवाद दिया गया है। वाटिका इस संवाद में शुकदेव को गृहस्थाश्रमी बनने के लिए समझाती है।

यों तो शुकदेव को बाल संन्यासी माना जाता है किंतु हरिवंश तथा देवी भागवत सहित कई अन्य पुराणों में उन्हें विवाहित व सन्तानवान बताया गया है। देवी भागवत के अनुसार उनकी पत्नी का नाम पीवारी था और इनसे उन्हें चार पुत्र तथा एक पुत्री प्राप्त हुए थे।

शुकदेव ने पिता से प्रेरणा प्राप्त कर जो संन्यासियों की व्वस्था और प्रणाली प्रारंभ की थी वह करीब 30 शताब्दियों से आज तक सनातन धर्म की आधारशिला बनी हुई है। आदि शंकराचार्य ने इस प्रणाली का पुनर्निर्माण किया और इसे दशनामी संप्रदाय की संज्ञा प्रदान की।
वेदव्यास की प्रेरण सा स्थापित संन्यासियों की इस प्रथा ने सनातन धर्म को जीवित रखने में और भारत व अन्य देशों में इसकी आध्यात्मिक सुवास फैलाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है।
आधुनिक युग में रामकृष्ण परमहंस, दयानन्द तथा विवेकानन्द जैसे जिन संन्यासियों ने सनातन धर्म की ज्योति जाग्रत रखी है, वे इसी परम्परा के हैं।

पूरे महाभारत में जब-जब भी कोई कठिनाई में पड़ा है उसे व्यासजी ने तीर्थ स्नान द्वारा शुद्धि करने की सलाह दी है। इससे लगता है कि भगवान वेदव्यास ने समूचे देश को संगठित करने की लिए ही इस ‘तीर्थ भावना’ का विकास किया था। इस ‘तीर्थ संस्कृति’ के वे ही जनक थे। लेकिन, यदि नहीं थे तो भी तीर्थों की महिमा बढ़ाने में तो उनका बहुत बड़ा हाथ था।
वेदव्यास के जीवनकाल में ही चतुर्वर्णी समाज-व्यवस्था-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-जन्म ले रही थी लेकिन तब यह वर्ण-व्यवस्था इतनी सख्त नहीं थी।

महान् ऋषि वशिष्ठ का जन्म एक अप्सरा की कोख से हुआ था। विश्वामित्र क्षत्रिय होते हुए भी ऋषि बन गये थे।
वेदव्यास स्वयं मछुवारे के पुत्र थे। श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव तथा कुन्ती का जन्म नागकन्याओं से हुआ था। ऐसे कई पूर्वजों में नागकुल में विवाह किया था। भीम ने हिडिम्बा नाम की राक्षसी से विवाह किया था। अर्जुन की पत्नियाँ भी नाग-परिवार से थीं।
देश में आर्य संस्कृति का प्रसार हुआ, तब सभी लोगों ने सनातन धर्म स्वीकार कर लिया था और उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा भी प्राप्त हो गयी थी।

धर्म की रक्षा करने में व्यास का व्यक्तित्व प्रचण्ड था। क्षीमद्भगवद् गीता में श्रीकृष्ण स्वयं को और व्यास को एक ही मानते हैं। पत्नी और पुत्र होने के बावजूद उन्हें वीतरागी माना गया है।
उन्हें चार की बजाय दो हाथवाला विष्णु, चार की बजाय एक मुख वाला ब्रह्मा और तीन की बजाय दो नेत्रों वाला शिव माना जाता है। कुछ पुराण उन्हें विष्णु का अवतार मानते हैं।

 

क.मुशी

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