विविध उपन्यास >> खाली जगह खाली जगहगीतांजलि श्री
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गीतांजलि श्री का नया उपन्यास...
khali jagah
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गीतांजलि श्री के नये उपन्यास का मूल तर्क वह हिंसा है जो हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी बन गयी है। बस इसका केन्द्रीय रूपक है जो जिन्दगियों के परखच्चे उड़ा देता है, एकदम अनपेक्षित तरीकों से। दिनचर्यायें नष्ट हो जाती हैं, स्मृतियाँ टूट जाती हैं या अधूरी छूट जाती हैं, उन्हें वर्तमान तक लाने का साधन शेष नहीं रहता है और भविष्य मे तो ले जाने की आशा भी नहीं।
एक अनाम शहर के अनाम विश्वविद्यालय के सुरक्षित समझे जाने वाले कैफे में फट पड़े बम से टुकड़े-टुकड़े बिखर गये उन्नीस लोगों की शनाख्त शुरू होती है खाली जगह की दास्तान। उन्नीसवीं पहचान करती है एक माँ अपने राख हुए अट्ठारह साल के बेटे की। और यही माँ ले आती है बेटे की चिन्दियों के साथ एक तीन साल के बच्चे को, जो सलामत बच गया है, न जाने कैसे, जरा-सी खाली जगह में, उसी कैफे में। आखीर तक चलता है फिर पहचान का सिलसिला, दो बेटों की गड्ड-मड्ड हुई, आधी-धूरी जिन्दगियों में।
ऐसे आघात से अपने अपने चुप से धँसे लेगों की कहानी समझ, कही जाए तो कैसे ? उनके अनबोले में छिपे बोल और अनकिये में छिपे किये के सहारे ही। उस खाली जगह में चलती कल्पना और यथार्थ के अभेद से बनी जिन्दगी को निकालकर लाती हैं गीतांजलि दुख से पगे इस उपन्यास में। संवेदना और गहरी दृष्टि से। ऍक्सेन्ट्रिक हास्य से भी, जो भाषा के अनोखे खेल रचता है।
गीतांजलि भी ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव यथार्थ के बीच जो तालमेल बिठाती हैं वह स्पष्ट, तार्किक क्रम को तोड़ता है। वह उसमें लेखकीय वक्तव्य देकर कोई हस्तक्षेप नहीं करतीं। पात्रों की भावनाएँ, उनके विचार और कर्म, अस्त-व्यस्त उदघाटित होते हैं, घुटे हुए, कभी ठोस, कभी जबरदस्त आस और गड़बड़ाई तरतीब से हैरानी से भिंचे हुए। पूछते से कि क्या यही होता है जीवन ? मगर यहाँ कोई इन्टीरियर मोनोलॉग नहीं है जो विचारों को सधे-साधे तौर से, जैसे सेलिलोक्वी में, तराशे। यहाँ ब्यौरा है जो अचेतन के अँधेरे में और अवचेतन के झुटपुटे से छनकर चेतन में आने से पहले बन रहे मनोजगत को उजागर करता है। गीतांजलि श्री अपने ही नैरेटिव की चिन्दियों को विस्फोट की तरह फैलने देती है, बार-बार सत्यता के दावों में छेद करते हुए, बार-बार जताते हुए, कि उनका बयान भी पर्याप्त नहीं है ऐसे यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए जो रोज की हिंसा से चकनाचूर होता रहता है।
एक अनाम शहर के अनाम विश्वविद्यालय के सुरक्षित समझे जाने वाले कैफे में फट पड़े बम से टुकड़े-टुकड़े बिखर गये उन्नीस लोगों की शनाख्त शुरू होती है खाली जगह की दास्तान। उन्नीसवीं पहचान करती है एक माँ अपने राख हुए अट्ठारह साल के बेटे की। और यही माँ ले आती है बेटे की चिन्दियों के साथ एक तीन साल के बच्चे को, जो सलामत बच गया है, न जाने कैसे, जरा-सी खाली जगह में, उसी कैफे में। आखीर तक चलता है फिर पहचान का सिलसिला, दो बेटों की गड्ड-मड्ड हुई, आधी-धूरी जिन्दगियों में।
ऐसे आघात से अपने अपने चुप से धँसे लेगों की कहानी समझ, कही जाए तो कैसे ? उनके अनबोले में छिपे बोल और अनकिये में छिपे किये के सहारे ही। उस खाली जगह में चलती कल्पना और यथार्थ के अभेद से बनी जिन्दगी को निकालकर लाती हैं गीतांजलि दुख से पगे इस उपन्यास में। संवेदना और गहरी दृष्टि से। ऍक्सेन्ट्रिक हास्य से भी, जो भाषा के अनोखे खेल रचता है।
गीतांजलि भी ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव यथार्थ के बीच जो तालमेल बिठाती हैं वह स्पष्ट, तार्किक क्रम को तोड़ता है। वह उसमें लेखकीय वक्तव्य देकर कोई हस्तक्षेप नहीं करतीं। पात्रों की भावनाएँ, उनके विचार और कर्म, अस्त-व्यस्त उदघाटित होते हैं, घुटे हुए, कभी ठोस, कभी जबरदस्त आस और गड़बड़ाई तरतीब से हैरानी से भिंचे हुए। पूछते से कि क्या यही होता है जीवन ? मगर यहाँ कोई इन्टीरियर मोनोलॉग नहीं है जो विचारों को सधे-साधे तौर से, जैसे सेलिलोक्वी में, तराशे। यहाँ ब्यौरा है जो अचेतन के अँधेरे में और अवचेतन के झुटपुटे से छनकर चेतन में आने से पहले बन रहे मनोजगत को उजागर करता है। गीतांजलि श्री अपने ही नैरेटिव की चिन्दियों को विस्फोट की तरह फैलने देती है, बार-बार सत्यता के दावों में छेद करते हुए, बार-बार जताते हुए, कि उनका बयान भी पर्याप्त नहीं है ऐसे यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए जो रोज की हिंसा से चकनाचूर होता रहता है।
1
शायद तभी।
जब बम फटा।
जब बम फटा और हम छितरे। और हमेशा के लिए वह पल थिर हो गया और फिर हमेशा के लिए हम उसी में टँक गए। राख बनाम राख। इधर उड़ती उधर उड़ती। आग बनाम आग भी लोथ बनाम लोथ भी। पंखे, गुलाबजामुन, पाव भाजी, इडली, वड़े, ब्रह्मांड में छिड़ी बहस की तरह, ले इधर और दे उधर।
कैफ़े आजकल के। ऐसे ही होते हैं। न इडली वड़ा सिर्फ़ दक्षिण में न पाव भाजी सिर्फ़ पश्चिम में। यहाँ भी वहाँ भी और यहाँ का वहाँ भी। पंखे तक पेरिस में भी। औऱ बम.... ? मज़ाकों में मज़ाक कहीं भी कभी भी।
उस कैफ़े में पहली बार। तब तक बेचारा सेफ़ एरिया कैफ़े। युनिवर्सिटी का कैफ़े। लड़के लड़कियाँ, जवान छोरे छोरियाँ, हाथों में एडमिशन फ़ॉर्म लिये और नई नई मुलाक़ातें, तुम धरती के किस कोने से। एडमिशन कोई तय तो नहीं पर उम्र उम्मीदों की। एन्ट्रेंस परीक्षा के लिए युनिवर्सिटी खुलनी थी और सुबह से बच्चों की आवाजाही। नर्वसिया भी लो, खा पी भी लो, फिर बढ़ लो आगे। हम होंगे कामयाब एक दिन। उस कैफ़े में सब सटा अटा धक्कम धक्का।
बस एक ख़ाली जगह, तीन बरस के बच्चे के माप की। वह बच्चा मैं।
मुझे याद है। चाहो तो मानो। न मानो तो फेंक दो मेरी कही।
याद कुछ इस तरह गोया बम की बोरी में मैं ही भरा था। कि यों फटा और यों छिटका और वहीं गिरा जहाँ मेरे जितने बच्चे के माप की जगह पहले से मेरे लिए ख़ाली पड़ी थी। वहीं अटना था सो अट पड़ा। और नहीं जला। आग की चीख़ पुकार के बीच देव सा पड़ा। या दैत्य सा। जीता। क्या तब मुस्कराता ? रोता ? कुछ न करता। मैं पड़ा रहा बस पड़ा रहा। आग जलती रही, मैं पुरानी यादों से मुक्त होता गया, नई कल्पनाओं से सिक्त होता गया और फिर जो होना था वही हुआ कि याद और कल्पना का फ़र्क मिट गया और इस युग में मेरा प्रवेश साधारण हो चला, यह युग ही साधारण हो गया और बम...बस...क्योंकि बम तो अन्दर लापता हो जाता है, ऊपर सब साधारण रह जाता है।
मंज़र कुछ इस तरह। मेरे छिटकने से फूटी आग में भस्माता कैफ़े। सूली चढ़े, मसीहों से लगते, ख़ून के फ़व्वारे उड़ाते, भागते लोग। जो भाग गए सो भाग गए। जो रह गए उनके फ़व्वारे आग हो गए। वे ख़ुद, कालिख के टुकड़े। बैरे और बच्चे और कुर्सी और प्लेटें।
और वह।
अट्ठारह बरस का। जिसकी चिन्दियाँ सरकारी पिटारे में ठुँक ठुँका के घर लौटीं। जो फैल गया था, धज्जियाँ बनकर, कैफ़े की लम्बाई में। और चौड़ाई में। फिर बटुर के सरकारी पिटारे में ठुँक ठुँका के घर लौटा। उन औरों की तरह जो परीक्षा के पहले समोसे वमोसे खा रहे थे, जो खाए जाने के पहले राख हो गए।
चिन्दियाँ। साल दर साल अख़बार हवाला देते रहे। झर झर कालिख ख़बरों में आज तक झरती। और मेरे बयान। आपबीती। आँखों देखी। चुपचाप आग के बीच पड़ा, दैत्य, देव ख़ाली जगह। माँस के उड़ते लुकमों के बीच सुरक्षित।
जब कैफ़े जल भुनकर ख़ाक हो गया और सायरन बजाती पुलिस की गाड़ियाँ आईं तब उन्होंने पाया कि तीन बरस के बच्चे के आकार का लाल, चींटियों में रेंगता लोथ, एक तरफ़ बिना रोते गाते पड़ा है पर ज़िन्दा है और चींटियाँ उसे खा रही हैं या बचा रही हैं।
जब बम फटा।
जब बम फटा और हम छितरे। और हमेशा के लिए वह पल थिर हो गया और फिर हमेशा के लिए हम उसी में टँक गए। राख बनाम राख। इधर उड़ती उधर उड़ती। आग बनाम आग भी लोथ बनाम लोथ भी। पंखे, गुलाबजामुन, पाव भाजी, इडली, वड़े, ब्रह्मांड में छिड़ी बहस की तरह, ले इधर और दे उधर।
कैफ़े आजकल के। ऐसे ही होते हैं। न इडली वड़ा सिर्फ़ दक्षिण में न पाव भाजी सिर्फ़ पश्चिम में। यहाँ भी वहाँ भी और यहाँ का वहाँ भी। पंखे तक पेरिस में भी। औऱ बम.... ? मज़ाकों में मज़ाक कहीं भी कभी भी।
उस कैफ़े में पहली बार। तब तक बेचारा सेफ़ एरिया कैफ़े। युनिवर्सिटी का कैफ़े। लड़के लड़कियाँ, जवान छोरे छोरियाँ, हाथों में एडमिशन फ़ॉर्म लिये और नई नई मुलाक़ातें, तुम धरती के किस कोने से। एडमिशन कोई तय तो नहीं पर उम्र उम्मीदों की। एन्ट्रेंस परीक्षा के लिए युनिवर्सिटी खुलनी थी और सुबह से बच्चों की आवाजाही। नर्वसिया भी लो, खा पी भी लो, फिर बढ़ लो आगे। हम होंगे कामयाब एक दिन। उस कैफ़े में सब सटा अटा धक्कम धक्का।
बस एक ख़ाली जगह, तीन बरस के बच्चे के माप की। वह बच्चा मैं।
मुझे याद है। चाहो तो मानो। न मानो तो फेंक दो मेरी कही।
याद कुछ इस तरह गोया बम की बोरी में मैं ही भरा था। कि यों फटा और यों छिटका और वहीं गिरा जहाँ मेरे जितने बच्चे के माप की जगह पहले से मेरे लिए ख़ाली पड़ी थी। वहीं अटना था सो अट पड़ा। और नहीं जला। आग की चीख़ पुकार के बीच देव सा पड़ा। या दैत्य सा। जीता। क्या तब मुस्कराता ? रोता ? कुछ न करता। मैं पड़ा रहा बस पड़ा रहा। आग जलती रही, मैं पुरानी यादों से मुक्त होता गया, नई कल्पनाओं से सिक्त होता गया और फिर जो होना था वही हुआ कि याद और कल्पना का फ़र्क मिट गया और इस युग में मेरा प्रवेश साधारण हो चला, यह युग ही साधारण हो गया और बम...बस...क्योंकि बम तो अन्दर लापता हो जाता है, ऊपर सब साधारण रह जाता है।
मंज़र कुछ इस तरह। मेरे छिटकने से फूटी आग में भस्माता कैफ़े। सूली चढ़े, मसीहों से लगते, ख़ून के फ़व्वारे उड़ाते, भागते लोग। जो भाग गए सो भाग गए। जो रह गए उनके फ़व्वारे आग हो गए। वे ख़ुद, कालिख के टुकड़े। बैरे और बच्चे और कुर्सी और प्लेटें।
और वह।
अट्ठारह बरस का। जिसकी चिन्दियाँ सरकारी पिटारे में ठुँक ठुँका के घर लौटीं। जो फैल गया था, धज्जियाँ बनकर, कैफ़े की लम्बाई में। और चौड़ाई में। फिर बटुर के सरकारी पिटारे में ठुँक ठुँका के घर लौटा। उन औरों की तरह जो परीक्षा के पहले समोसे वमोसे खा रहे थे, जो खाए जाने के पहले राख हो गए।
चिन्दियाँ। साल दर साल अख़बार हवाला देते रहे। झर झर कालिख ख़बरों में आज तक झरती। और मेरे बयान। आपबीती। आँखों देखी। चुपचाप आग के बीच पड़ा, दैत्य, देव ख़ाली जगह। माँस के उड़ते लुकमों के बीच सुरक्षित।
जब कैफ़े जल भुनकर ख़ाक हो गया और सायरन बजाती पुलिस की गाड़ियाँ आईं तब उन्होंने पाया कि तीन बरस के बच्चे के आकार का लाल, चींटियों में रेंगता लोथ, एक तरफ़ बिना रोते गाते पड़ा है पर ज़िन्दा है और चींटियाँ उसे खा रही हैं या बचा रही हैं।
2
ज़माना ही ऐसा, माँ चुप लोग कहने लगे। जब जाते हैं बच्चे और लौटते हैं सरकारी डब्बों में अपने टुकड़े बन्द कराके। जाते हैं बाप की ज़मीन टौरने-तुम, तुम्हारे वंशज कौन, और मैं ? फिर लौटते हैं भुरकुस बनकर। वक़्त ही ऐसा, माँ चुप रहती, लोग कहते। आज़ादी के बाद का। राष्ट्रवाद के बाद का। आधुनिकता, बाद के बाद का जब बहुलता की खोज हो चुकी पुरानी है और एक हैं हम एक हैं की गुहार रीत गई है। हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में हैं भाई भाई न सवाल है न जवाब। सभ्य, असभ्य, आदमी, औरत एक हैं हम एक हैं, न सपना है न जगार। सयाना होके समय पूछ रहा है मैं कौन हूँ और कैसे अलग और कहाँ का और कैसा कहाँ ?
यही सवाल उसका, उस टुकड़ेवाले का, जिसकी मौत मैं बरस दर बरस जीता हूँ। हूँ कौन मैं, उसने पूछ लिया और अब तक जवाब दे रहे हैं, अख़बार प्रचार शोध पत्र, वक्तव्य, मैं...। जाऊँगा मैं उस प्रदेश में जो तुम्हारा है, वह बाप से बोला, जो पहले उसके बाप थे और बाद में मेरे। या नहीं, क्योंकि आजीवन फिर वे अपनी सभाओं में कहते, कुछ कुछ मेरी तरफ़ देख के, कि जबकि होना चाहिए था मुझे वहाँ, जिससे लोग समझते कि उन्हें ख़ुद, पर मैं समझता कि मुझे। होना चाहिए था, उस मौत के बिन्दु पे, जिसने उनके बेटे के परखचे उड़ाए। न कि ख़ाली जगह में।
जहाँ माँ उतर आई मेरी माँ बनने, पर उसके पहले बस उसी की माँ थी और फिर लौटी गोद में मुझे बिठा के और पिटारे में उसके टुकड़े सहेज के, जिनके बीच फिर आजीवन वह फिसलती रही और गिरते हुए, राह में, मुझे थाम लेती कि जैसे मैं वह हूँ जो गया और वह उसे वापस खींच लेगी। मगर वह तो नहीं मैं। पर मैं भी तो नहीं मैं।
पर इसमें क्या ? यही होता है। एक जीवन हम जीते हैं जो हमारा नहीं और एक जीवन हमारा जिसके हम नहीं। एक हमें नहीं अपनाता, दूसरे को हम नहीं अपनाते। ख़ुद ही फिसलते रहते हैं अपनी ही उँगलियों के बीच से !
इतना सुन्दर लड़का, लोग कहते, उसे याद करके। यह भी तो प्यारा, थपकाते मुझे याद करके। जैसा होता है हश्र चले गए बेटे का और रह गए बेटे का।
पर पड़ गई होगी मुझे तंज़ मारने की आदत। वर्ना असुन्दर कहाँ वह बेटा, निरी उसकी तस्वीरें जिनके बीच मैं रहता, दिखाती रहीं। यह भी दिखाती कि गर वह टुकड़े न बनता तो क्या बनता। कहीं मय किताब, गम्भीर फ़िलॉसफ़र। कहीं गिटार बजाता स्टार म्यूज़ीशियन। कहीं माँ बाप के काँधे घेरता उनके बुढ़ापे का पालक। कहीं बस बेटा, चाव चोचले वाला, मुँह में कौर डालता, जैसे कैफ़े में करा होगा, उड़ जाने के पहले। और मेरे बिस्तर की बगल में तीन ही बरस का, ऊपर टी शर्ट, नीचे नंग धड़ंग, हाथ में मुल्क के नेता का लाल गुलाब, दूसरा हाथ नए ईजाद टी.वी. पर, दोनों के शुरू के दिनों में। उस तस्वीर को देख के लोग अलबत्ता पूछ लेते कि क्या मैं हूँ वह, वर्ना तो वह ही वह और मैं न वह न मैं !
गोरा, कंजी आँखोंवाला, बाप कहते, जो मैं नहीं। एकदम विलायती कि उनके गाँववाले उसके भूरे भूरे बालों को छूते ही रहे। लाल चेहरेवाला अरुणायी से वह, और लाल चेहरे वाला शर्माशर्मी से मैं, तो एक बात कहाँ ? यह बोले हैं विलायती पिट्ठू, मन मुँह बिचका लेता, बाप के ग़रूर पर, बड़े आज़ाद नागरिक शिक्षित, बुधियार !
अकेले, बड़े शिक्षित, अपने गाँव के और वैसा ही रुतबा वहाँ उनका। जब वे गए और वह भी उनके संग, एक बार, चिन्दियाँ बनने से पहले।
यही सवाल उसका, उस टुकड़ेवाले का, जिसकी मौत मैं बरस दर बरस जीता हूँ। हूँ कौन मैं, उसने पूछ लिया और अब तक जवाब दे रहे हैं, अख़बार प्रचार शोध पत्र, वक्तव्य, मैं...। जाऊँगा मैं उस प्रदेश में जो तुम्हारा है, वह बाप से बोला, जो पहले उसके बाप थे और बाद में मेरे। या नहीं, क्योंकि आजीवन फिर वे अपनी सभाओं में कहते, कुछ कुछ मेरी तरफ़ देख के, कि जबकि होना चाहिए था मुझे वहाँ, जिससे लोग समझते कि उन्हें ख़ुद, पर मैं समझता कि मुझे। होना चाहिए था, उस मौत के बिन्दु पे, जिसने उनके बेटे के परखचे उड़ाए। न कि ख़ाली जगह में।
जहाँ माँ उतर आई मेरी माँ बनने, पर उसके पहले बस उसी की माँ थी और फिर लौटी गोद में मुझे बिठा के और पिटारे में उसके टुकड़े सहेज के, जिनके बीच फिर आजीवन वह फिसलती रही और गिरते हुए, राह में, मुझे थाम लेती कि जैसे मैं वह हूँ जो गया और वह उसे वापस खींच लेगी। मगर वह तो नहीं मैं। पर मैं भी तो नहीं मैं।
पर इसमें क्या ? यही होता है। एक जीवन हम जीते हैं जो हमारा नहीं और एक जीवन हमारा जिसके हम नहीं। एक हमें नहीं अपनाता, दूसरे को हम नहीं अपनाते। ख़ुद ही फिसलते रहते हैं अपनी ही उँगलियों के बीच से !
इतना सुन्दर लड़का, लोग कहते, उसे याद करके। यह भी तो प्यारा, थपकाते मुझे याद करके। जैसा होता है हश्र चले गए बेटे का और रह गए बेटे का।
पर पड़ गई होगी मुझे तंज़ मारने की आदत। वर्ना असुन्दर कहाँ वह बेटा, निरी उसकी तस्वीरें जिनके बीच मैं रहता, दिखाती रहीं। यह भी दिखाती कि गर वह टुकड़े न बनता तो क्या बनता। कहीं मय किताब, गम्भीर फ़िलॉसफ़र। कहीं गिटार बजाता स्टार म्यूज़ीशियन। कहीं माँ बाप के काँधे घेरता उनके बुढ़ापे का पालक। कहीं बस बेटा, चाव चोचले वाला, मुँह में कौर डालता, जैसे कैफ़े में करा होगा, उड़ जाने के पहले। और मेरे बिस्तर की बगल में तीन ही बरस का, ऊपर टी शर्ट, नीचे नंग धड़ंग, हाथ में मुल्क के नेता का लाल गुलाब, दूसरा हाथ नए ईजाद टी.वी. पर, दोनों के शुरू के दिनों में। उस तस्वीर को देख के लोग अलबत्ता पूछ लेते कि क्या मैं हूँ वह, वर्ना तो वह ही वह और मैं न वह न मैं !
गोरा, कंजी आँखोंवाला, बाप कहते, जो मैं नहीं। एकदम विलायती कि उनके गाँववाले उसके भूरे भूरे बालों को छूते ही रहे। लाल चेहरेवाला अरुणायी से वह, और लाल चेहरे वाला शर्माशर्मी से मैं, तो एक बात कहाँ ? यह बोले हैं विलायती पिट्ठू, मन मुँह बिचका लेता, बाप के ग़रूर पर, बड़े आज़ाद नागरिक शिक्षित, बुधियार !
अकेले, बड़े शिक्षित, अपने गाँव के और वैसा ही रुतबा वहाँ उनका। जब वे गए और वह भी उनके संग, एक बार, चिन्दियाँ बनने से पहले।
3
राजे महाराजे पधारे हों !
गाड़ी रुकी तो दूर सीमा पार तक जाती सँकरी सड़क और दाएँ बाएँ की झाड़ियाँ गाँववालों के प्रमाण करते गुच्छों के पीछे लगभग ग़ायब। गाँव मिट्टी के टीलों के पीछे नदारद। चल पड़े वे, ज़र्क बर्क से धूल उड़ाते और घूसरित धरती में से और आदमी और बच्चे दौड़े निकले और फिर औरतें भी दिखीं, और झोपड़ियाँ, और दो बस पक्की कोठरियाँ, जहाँ वे रुकेंगे, और हवा में पतले से झूलते तार पर लटका एक बल्ब, जैसे एक अकेला कपड़ा, सूखने को फड़फड़ाता पर यों कि बड़ी शान उसकी और बाप वह सबका ! बाप की ही तरह और उस बेटे की जो अपने शहज़ादेपन पर ख़ुश और बड़ा ख़ुश। इतना कि तीन दिन का कब्ज़ भी ख़ुशी कम न कर पाया, जो ठीक तब हुआ जब पुराना अख़बार बिछा और उस पर टूटी कुर्सी बिठाई ताकि वह बैठे और जने टुकड़े जो अख़बार बटोरे।
देखा ! कैसे ख़ुद-ब-ख़ुद पूरे जीवन को इंगित करता इशारा निकल आया ! चूँकि फिर तो जीवन भर-मेरे-अख़बार ‘टुकड़े’ बटोरता रहा ! ज़िद जीवन की कि संयोग मिलाए। इशारे ढूँढ़ ले और उनके जोड़ जमाव बनाए। आकार पाए जीवन की कहानी।
तो यों रहा। वह (और क्या मैं भी ?) अभी साबुत, टुकड़े टुकड़े नहीं (क्या मैं भी ?) जोड़े, ख़ुशी से यादें उस गाँव की, उस प्रदेश की, जहाँ के बाप, इसलिए कुछ कुछ वह भी (और मैं ?)। आया था तब बाप के साथ, मन में उस सपने की शुरूआत लिये, जो ढूँढ़ेगा अपना पूरक, अपनी कहानी, अपने टुकड़े, अपना समापन।
गाड़ी रुकी तो दूर सीमा पार तक जाती सँकरी सड़क और दाएँ बाएँ की झाड़ियाँ गाँववालों के प्रमाण करते गुच्छों के पीछे लगभग ग़ायब। गाँव मिट्टी के टीलों के पीछे नदारद। चल पड़े वे, ज़र्क बर्क से धूल उड़ाते और घूसरित धरती में से और आदमी और बच्चे दौड़े निकले और फिर औरतें भी दिखीं, और झोपड़ियाँ, और दो बस पक्की कोठरियाँ, जहाँ वे रुकेंगे, और हवा में पतले से झूलते तार पर लटका एक बल्ब, जैसे एक अकेला कपड़ा, सूखने को फड़फड़ाता पर यों कि बड़ी शान उसकी और बाप वह सबका ! बाप की ही तरह और उस बेटे की जो अपने शहज़ादेपन पर ख़ुश और बड़ा ख़ुश। इतना कि तीन दिन का कब्ज़ भी ख़ुशी कम न कर पाया, जो ठीक तब हुआ जब पुराना अख़बार बिछा और उस पर टूटी कुर्सी बिठाई ताकि वह बैठे और जने टुकड़े जो अख़बार बटोरे।
देखा ! कैसे ख़ुद-ब-ख़ुद पूरे जीवन को इंगित करता इशारा निकल आया ! चूँकि फिर तो जीवन भर-मेरे-अख़बार ‘टुकड़े’ बटोरता रहा ! ज़िद जीवन की कि संयोग मिलाए। इशारे ढूँढ़ ले और उनके जोड़ जमाव बनाए। आकार पाए जीवन की कहानी।
तो यों रहा। वह (और क्या मैं भी ?) अभी साबुत, टुकड़े टुकड़े नहीं (क्या मैं भी ?) जोड़े, ख़ुशी से यादें उस गाँव की, उस प्रदेश की, जहाँ के बाप, इसलिए कुछ कुछ वह भी (और मैं ?)। आया था तब बाप के साथ, मन में उस सपने की शुरूआत लिये, जो ढूँढ़ेगा अपना पूरक, अपनी कहानी, अपने टुकड़े, अपना समापन।
4
शुरू से उसमें वह उन्मत्त जिज्ञासा, बाप कहते, कि कहाँ का मैं और किसका ? सितारों का और मेरा, माँ ने कहा। ‘‘तो ला दो ऐसी सीढ़ी’’, जब छोटा था तब बोला, ‘‘जो ऊपर तक जाए। मैं चढ़ लूँ और टोह लूँ अपनी वहाँ।’’
फिर वही ! संयोग के गठजोड़। गूँज पुरानी बातों में उन बातों की जो होंगी।
इसीलिए बड़ा हो गया तो बोला। कि जाने दो मुझे वहाँ खोजबीन करने। बाप तुम वहाँ के तो मिट्टी कैसी वहाँ की ? उस प्रदेश में जहाँ गाँव गए थे मिल के। वहाँ के बड़े शहर में नामी विश्वविद्यालय में पढ़ूँगा, जाने दो।
‘‘हर समय डरना ? हर जगह में डरना ? मैं चाहता हूँ न ? जाना।’’ कर बरजोरी।
‘‘पर वहीं ?’’ माँ बबकी और बाप की कनखी में फ़िक्र। ‘‘और नाम तुम्हारा अनजाना कि कोई न समझे किधर के।’’
‘‘कोई बात नहीं’’, बाप ने समझाया, अपनी फ़िक्र को ढहाने। ‘‘गाँव पास है, नाते रिश्तेदार हैं...।’’
‘‘और सारे में जो फ़साद है ?’’ माँ बिगड़ी।
‘‘वह राजनीति है।’’
‘‘और यह विषय कहीं और नहीं पढ़ाते ? और नई सरकार तो बन जाए, देखें तो क्या होगा, कौन आएगा ?’’ माँ अड़ी की अड़ी।
‘‘चुप। ’’ बाप ने फ़िक्र को पुचकारा, माँ को दुतकारा। ‘‘सारे में उस यूनिवर्सिटी का शोर है और बदली सरकार क्या कर लेगी कुछ अभी नहीं बदलेगा।’’
वह बोला तब, जिसकी जगह मैं रह गया हूँ, कि ‘‘ऐसे रोने रोने को तुम दोनों कि जैसे मैं कालेज नहीं मौत के मुँह में जा रहा हूँ।’’
सच उसने ऐसा कहा होगा और कब ? पर है न अपनी वही लत-इत्तेफ़ाक़ जो इत्तेफ़ाक़ नहीं है, खोज पूरक की, ज़रूरत जोड़ मेल की। तो मानना है मानता हूँ कि उसने कह दिया प्यार से कि जैसे मैं सीधे मौत के मुँह में जा रहा हूँ।
और भी बलबलाया। ‘‘फिर घर से न निकलो आज के समय में। और आज क्या, कभी भी कहीं भी, वह झुका था कि नहीं दूध की थैली उठाने और दरवाज़ा टूटकर गर्दन पर यों गिरा कि गिलोटीन ऐतिहासिक वक़्तों का ? और वे गए थे कि नहीं फाटक के बाहर क्या सोच के मूतने, हगने भी नहीं, और चिपक गए बिजली के नंगे तार से और हरदम गुल रहनेवाली बिजली भी उस पल पूरे तेवर में ?’’
दिखता चला भविष्य-जब अतीत हो गया-इन शब्दों में !
माँ ने दुनिया जहान में नगाड़ा पिटवा दिया, लगा दिया सबको फ़िलफ़ौर सर्विस में कि समझाओ, रोको, न जाने दो, इसे। पुलिसकर्मी बनो जो शासन की पोल जानते हैं, डॉन बनो जो गुंडों की नब्ज़ पहचानते हैं, डॉक्टर, टीचर, लॉयर, माँ, बाप दोस्त, दुश्मन कुछ बनो, हँस के, गा के, लतिया के, मिमिया के, जैसे भी बताओ, दिल दे के देखो, जान लगाओ, जहान न लुटाओ रोक दो इसे।
‘‘जाओ।’’ अन्त में माँ ने कहा। ‘‘आज तक तुमने कुछ नहीं माँगा। कैसे रोक सकती हूँ एक बार जब माँग रहे हो, जा बेटे।’’
तुम दुनिया की सबसे अच्छी मॉम हो सब कहते हैं वह बोला सबकी आँखें नम कि उसे जाने दिया।
वह गया। नियम कानून की पटरी गले में लटकाए कि शहर के संवेदनशील इलाक़ों में नहीं जाएगा, सुनसान इलाक़ों में नहीं जाएगा, भीड़ भाड़ की जगहों में नहीं जाएगा, मेरे ठेले, बस वस में नहीं, न अँधेरों में, न उचक्कों में, जैसे स्टेशन, बस अड्डे पर।
बस सुरक्षित जगहों में।
युनिवर्सिटी के आस पास।
जहाँ कभी कुछ नहीं हुआ।
जैसे उस कैफ़े में। सुरक्षित, युनिवर्सिटी का, जहाँ कुछ नहीं हुआ।
उस दिन तक।
जब बम फटा।
फिर वही ! संयोग के गठजोड़। गूँज पुरानी बातों में उन बातों की जो होंगी।
इसीलिए बड़ा हो गया तो बोला। कि जाने दो मुझे वहाँ खोजबीन करने। बाप तुम वहाँ के तो मिट्टी कैसी वहाँ की ? उस प्रदेश में जहाँ गाँव गए थे मिल के। वहाँ के बड़े शहर में नामी विश्वविद्यालय में पढ़ूँगा, जाने दो।
‘‘हर समय डरना ? हर जगह में डरना ? मैं चाहता हूँ न ? जाना।’’ कर बरजोरी।
‘‘पर वहीं ?’’ माँ बबकी और बाप की कनखी में फ़िक्र। ‘‘और नाम तुम्हारा अनजाना कि कोई न समझे किधर के।’’
‘‘कोई बात नहीं’’, बाप ने समझाया, अपनी फ़िक्र को ढहाने। ‘‘गाँव पास है, नाते रिश्तेदार हैं...।’’
‘‘और सारे में जो फ़साद है ?’’ माँ बिगड़ी।
‘‘वह राजनीति है।’’
‘‘और यह विषय कहीं और नहीं पढ़ाते ? और नई सरकार तो बन जाए, देखें तो क्या होगा, कौन आएगा ?’’ माँ अड़ी की अड़ी।
‘‘चुप। ’’ बाप ने फ़िक्र को पुचकारा, माँ को दुतकारा। ‘‘सारे में उस यूनिवर्सिटी का शोर है और बदली सरकार क्या कर लेगी कुछ अभी नहीं बदलेगा।’’
वह बोला तब, जिसकी जगह मैं रह गया हूँ, कि ‘‘ऐसे रोने रोने को तुम दोनों कि जैसे मैं कालेज नहीं मौत के मुँह में जा रहा हूँ।’’
सच उसने ऐसा कहा होगा और कब ? पर है न अपनी वही लत-इत्तेफ़ाक़ जो इत्तेफ़ाक़ नहीं है, खोज पूरक की, ज़रूरत जोड़ मेल की। तो मानना है मानता हूँ कि उसने कह दिया प्यार से कि जैसे मैं सीधे मौत के मुँह में जा रहा हूँ।
और भी बलबलाया। ‘‘फिर घर से न निकलो आज के समय में। और आज क्या, कभी भी कहीं भी, वह झुका था कि नहीं दूध की थैली उठाने और दरवाज़ा टूटकर गर्दन पर यों गिरा कि गिलोटीन ऐतिहासिक वक़्तों का ? और वे गए थे कि नहीं फाटक के बाहर क्या सोच के मूतने, हगने भी नहीं, और चिपक गए बिजली के नंगे तार से और हरदम गुल रहनेवाली बिजली भी उस पल पूरे तेवर में ?’’
दिखता चला भविष्य-जब अतीत हो गया-इन शब्दों में !
माँ ने दुनिया जहान में नगाड़ा पिटवा दिया, लगा दिया सबको फ़िलफ़ौर सर्विस में कि समझाओ, रोको, न जाने दो, इसे। पुलिसकर्मी बनो जो शासन की पोल जानते हैं, डॉन बनो जो गुंडों की नब्ज़ पहचानते हैं, डॉक्टर, टीचर, लॉयर, माँ, बाप दोस्त, दुश्मन कुछ बनो, हँस के, गा के, लतिया के, मिमिया के, जैसे भी बताओ, दिल दे के देखो, जान लगाओ, जहान न लुटाओ रोक दो इसे।
‘‘जाओ।’’ अन्त में माँ ने कहा। ‘‘आज तक तुमने कुछ नहीं माँगा। कैसे रोक सकती हूँ एक बार जब माँग रहे हो, जा बेटे।’’
तुम दुनिया की सबसे अच्छी मॉम हो सब कहते हैं वह बोला सबकी आँखें नम कि उसे जाने दिया।
वह गया। नियम कानून की पटरी गले में लटकाए कि शहर के संवेदनशील इलाक़ों में नहीं जाएगा, सुनसान इलाक़ों में नहीं जाएगा, भीड़ भाड़ की जगहों में नहीं जाएगा, मेरे ठेले, बस वस में नहीं, न अँधेरों में, न उचक्कों में, जैसे स्टेशन, बस अड्डे पर।
बस सुरक्षित जगहों में।
युनिवर्सिटी के आस पास।
जहाँ कभी कुछ नहीं हुआ।
जैसे उस कैफ़े में। सुरक्षित, युनिवर्सिटी का, जहाँ कुछ नहीं हुआ।
उस दिन तक।
जब बम फटा।
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