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वैराग्य

गीतांजलि श्री

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3126
आईएसबीएन :817178707x

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लगभग एक दशक की साहित्यिक यात्रा का परिचय देता गीतांजलि श्री की नई व पुरानी कहानियों का संकलन

Vairagya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नई व पुरानी कहानियों का यह संकलन गीतांजलि श्री की लगभग एक दशक की साहित्यिक यात्रा का परिचय देता है। इसमें वैविध्य है विषय का, अंदाज़ का। प्रयोग है शिल्प का, भाषा का। और हमेशा ही एक सृजनात्मक साहस है यथातथ्यता-‘लिटरैलिटी’-को लाँघते हुए पथ, दृश्य, अनुभव, जमीन तलाशें। अलग-अलग बिन्दुओं को टोह लेने की लालसा में नतीजा फटाफट समझाने की कोई हड़बड़ी नहीं। कहीं हमारी जटिल आधुनिकता के आयाम हैं, कहीं मानव संबंधो की अनुभूतियाँ। कहानियाँ हमारे शाश्वत मुद्दों पर भी हैं-मृत्युबोध जीवन की आस, आत्मीयता की चाह-पर ताजी संवेदना से भरपूर। कभी ‘नज़र’ में हास्य है, कभी फलसफाना दुःख। भाषा की ध्वनियाँ ऐसी हैं कि शायद बहुतों को यहाँ कविता का रस भी मिलेगा।

साहित्य-प्रेमियों के लिए एक सार्थक प्रयास।


चौक

 

 

ठी-ठीक कह नहीं सकती कि क्या खास बात थी उन दिनों की, क्यों वे मुझे बार-बार याद आ जाते हैं ? कोई अजीब घटना या खयाल नहीं कि उसे एक संकेत मान के उस ट्रिप को लैंडमार्क क़रार कर दूँ। न कोई सत्य मिल गया था कि जिस पर उँगली रखकर कहूँ, उसके बाद से कुछ पहले जैसा न रहा। न तभी से यहाँ की घुटन से निजात मिल गई कि भागने की चाह पर उसे याद करूँ। बिलकुल मामूली सा वह ट्रिप, अनेक और मेरे ट्रिपों के बीच से अनायास ही अलग से झाँकने लगता है।

उस बार भी झूठ बोलकर भागी थी। यहाँ के हालात से, घिर्र-घिर्र जंग खायी घिर्री-सी घूमती दिनचर्या से। कुछ इतनी आस से देखती थीं अम्मा, जहाँ उनके सामने पड़ो की झूठ कहे बग़ैर मुझसे वहाँ से निकला न जाता। पापा भी देखते ही उठ बैठते और कहते क्यों आशू मुझे कहीं ले चल सकती हो ? अनी व्हेयर ? जस्ट फ़ॉर अ ड्राइव ? आई जस्ट वान्ट टु गेट आउट। वह इने-गिने जवाब मुझे देने पड़ते इस वक़्त ? इतनी धूप में ? शाम होने दीजिए। जिस पर वे कहते अरे शाम कभी नहीं होगी और फिर पेट में पलते बच्चे की तरह सिकुड़कर लेट जाते और आंखें बंद कर लेते। या मैं कहती, कक्कू दी और शंभू भइया को लौट आने दीजिए, उन्हें गाड़ी न चाहिए हो कहीं ! जिस पर वे कहते, अरे वो भी कभी नहीं लौटेंगे और लेट जाते। या फिर मैं कक्कू दी, भाभी, शंभू भइया से पूछ लेती और घुमा लाती पापा को कहीं, जिस पर शंभू भइया दिमाग़ पे ज़ोर डाल के कोई-न-कई काम, बाज़ार, पावर हाउस, पोस्ट ऑफिस का सोच लेते कि गाड़ी जा रही है तो कुछ निपटा आओ, यों ही क्यों पेट्रोल फुँके ! लौटने में मंदिर के सामने पापा हाथ जोड़ लेते, फिर हम घर आ जाते।

जब मैं झूठ बोलती कि किसी राइटर्स वर्कशाप में जाना है तो लगता कि अम्मा को छोड़कर, जो सबसे ज़्यादा सवाल करतीं, पर शक़ किसी जवाब पर नहीं करतीं, सब-शंभु भइया, भाभी, कक्कू दी, सुल्लू, नंदू, (नहीं, नंदू शायद नहीं, दस बरस का मस्तमौला नंदू नहीं)—बिना यकीन किए चुपचाप मुझे घूर रहे हैं। ग़ुस्सा आता। शंभु भइया और कक्कू दी का क्या, दोनों ऑफिस जाते हैं, उसी के सहारे दिन भर को बाहर निकल लेते हैं। उस पर भी क्या मालूम कभी झूठ बोलते हों, खासकर भइया जब भाभी को भी सरकारी दौर पे साथ, शहर के बाहर ले जाते हैं, नंदू को अम्मा की निगरानी में छोड़कर ? खैर मुझे तो झूठ बोलना ही होती और झूठ का नहीं तो इसका अपराधबोध सालता कि सबके सब फँसे हैं और मैं खिसक ली।

खिसक ली थी रटबिन के घर उस दफ़े। सारे हाहाकार को छोड़कर वहाँ के सन्नाटे में। पर नहीं, हाहाकार तो साथ चला आता है, बस दूर आकर वृत्त में सिमट जाता है, जिसको घेरे होता है उस जगह की दूरी का हलकापन और शांति। पर नहीं, कौन सा हाहाकार ? इस घर का जीवन शोर रहित ही है, बस बिना चिल्लाए सब एक-दूसरे से भाग रहे हैं और एक-दूसरे की राह में गिर-पड़ रहे हैं। अम्मा रसोई में जाकर रजिंदर से बोलेंगी, परवल देर तक भूनना और सूखे बनेंगे, तब तक भाभी जा के टमाटर और पानी डलवा देंगी। अम्मा कहेंगी, लो मना कर गई तुमने फिर बेस्वाद की सब्जी बना दी, भाभी कहेंगी, कुक्कू दी के दोस्त भी खाने पे रुकेंगे, लोग भी तो देखिए कितने होंगे खानेवाले ! नंदू रात का अलाप छेड़ेगा, मैं दादी के संग सोऊँगा और सुल्लू उसे डाँटेगी दादी को तकलीफ़ होगी, तब शंभू भइया अम्मा को डाँटेंगे, आप पापा के कमरे में सोइए तो उन्हें भी नींद आएगी और वहाँ नंदू जाना नहीं चाहेगा, और अम्मा कहेंगी नहीं, वहाँ मैं सो नहीं पाती क्योंकि ये रात भर हे भगवान, हे राम करते हैं। या ठक-ठक ज़मीन पर ठोकते हैं। और कक्कू दी भइया को डाँटेंगी कि अम्मा को जैसे अपनी नींद की चिंता ही नहीं करनी चाहिए ?

फिर नंदू भइया और दी, दोनों से डाँट खाएगा और थकन के मारे और ज़ोर से रोएगा और पापा जो दिन भर आँख बंद किए रहते हैं रात भर जगे रहेंगे और छड़ी पे लँगड़ाते आते रहेंगे, दरवाज़े से झाँकेंगे, कभी पंखा बंद कर देंगे, कभी लाइट जला देंगे और जब हम सब डाँटेंगे कि क्या कर रहे हैं, सोने दीजिए तो कहेंगे, देख रहा हूँ कि नंदू ठीक है, कोई मुझे कुछ बताता नहीं क्या हुआ पता भी नहीं लगेगा कोई बच्चे को मार दे, उठा ले जाए, तुम लोग देखती नहीं हो, इसकी माँ को हर मिनट इसके पास रहना चाहिए—भाभी और नंदू की एक संग बात करते ही वे नंदू को ‘आप’ के संबोधन में और भाभी को ‘तुम’ के में डाल देंगे—भाभी तड़ से उठेंगी और अपने बेडरूम का दरवाज़ा अंदर से बंद कर लेंगी। कक्कू दी पापा को वापस उनके बेडरूम पर पहुँचा के कहेंगी, हम अपना दरवाज़ा भीतर से बंद कर रहे हैं, नहीं तो आप तो सोने नहीं देंगे और पापा को छड़ी पर सिर टेक लगाए बैठा छोड़कर आ जाएँगी।

या सुल्लू फ़ोन पर बैठ जाएगी और भाभी आसपास चक्कर काटेंगी फिर शंभु भैया कहेंगे, बस भी करो सुल्लू। अम्मा मुझसे कहेंगी की शंभु भइया कह रहे थे, बिजली का इतना बिल क्यों आता है, तुम अपने कमरे में इलैक्ट्रिक कैटल क्यों चलाती हो,, बना तो देता है रजिंदर गैस पर चाय और मैं सुल्लू को डाँटूँगी, क्या स्कूल से आते ही माइकल जैक्सन, मैडोना अंड-फंड लगा लेती हो, धीमा करो। वो दरवाज़ा बंद कर देगी तो पापा आएँगे, खोलो, कभी अंदर से लॉक मत करो, कुछ हो जाए तो, और बंद करो रेडियो क्या गंदी चीज़ सुनती हो, वे भाभी के प्लेयर में बजती ग़ज़ल की आवाज़ पर कहेंगे। कक्कू दी नहा के निकलेंगी, और तार से नंदू और भइया के गीले कपड़े गुरचिया के कुरसी डाल देंगी और अपनी साड़ी इस छोर से इस छोर तक टाँग देंगी। भाभी दौड़ी आएँगी, कम-से-कम गंदी कुरसी पर मत डालो, रात कुत्ता इस पर बैठता है तुम्हें पता है ? मुझे नहीं पता, पता है, नहीं, हाँ, होगा।

और मैं पढ़ने बैठूँगी तो अम्मा आएँगी क्या पढ़ रही हो, छींकीं क्यों जुकाम हो रहा है क्या, और आज घर में रहोगी, ऐसे ही पूछ रही हूँ। लिखने बैठूँगी तो पापा आवाज़ देंगे मुझे तौलिया मिलेगी, इतनी देर हो रही है, इतना काम है, तैयार होऊँ और शंभु भइया डाँटेंगे, अम्मा इन्हें रुमाल दीजिए, फिर कुरते से नाक पोंछ रहे हैं, नंदू अंटी कर लो दादा से, नो वन कैन सिट निअर यू, यू आर सो डर्टी।

एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते। जैसे जब रॉबिन का फ़ोन आया, मैं दौड़ी, रजिंदर दौड़ा, नंदू दौड़ा, सुल्लू दौड़ा, शंभु भइया दौड़े और हमेशा की तरह पापा दौड़े। सबके सब क्या मेरा है, किसका है ? बीवीजी का, रजिंदर ने मुझे पकड़ाया। पापा वहीं बैठ गए, कौन है, क्या कह रहा है ? नंदू पिन-पिन करने लगा। उमंग का फोन आना है। शभु भइया ने इशारे शुरू किए, देर तक नहीं। अम्मा आईं और मुझ ही से पूछने लगीं। आशू कल जो तुम्हें गुलाबी चादर दी थी कहाँ है ? बाक़ी लोग आइसक्रीम को लेकर ज़ोर-ज़ोर से बहस करने लगे-रजिंदर ने फिर फ्रिज़ ऑफ कर दिया, सारी आइसक्रीम पिघल गयी। मैं खाऊँगा मेरा गला ठीक है, नंदू की टेर चली। पापा कान पर बैठे बड़बड़ा रहे थे—मुझे खाने पे क्यों नहीं मिली ? मैं एक कान दबाए, दूसरे से सुनने की मशक्कत कर रही थी, उस पर दिखाना यह था कि रॉबिन नहीं, किसी वर्कशॉप कार्यकर्ता से ऑफ़िशियल बात चल रही है।

हाँ-हाँ हाहाकार ही था। भागी मैं उससे, झूठ बोलकर, और साथ गया भी तो क्या, कम-से-कम अपने दायरे में जमा हो गया, एक जगह, शांति से घिरा।

शांति से बढ़कर था रॉबिन के घर में। शांति नहीं, सन्नाटा। शहर से दूर, खेतों से घिरा, इक्का-दुक्का मकानों के पास। पहुँचते ही बरसात गिरने लगी और ठंडक भरा सुकून मेरे दिल पर छा गया। कितना काम हो सकता है यहाँ, बस काम-ही-काम। पूरा झूठ भी नहीं बोल के आई थी, वर्कशॉप नहीं, पर काम ही करने आई हूँ। कब से पड़ी थी किताब पूरा होने को। कहाँ लोग प्रकाशक के पीछे पड़ते हैं कि जल्दी छाप दीजिए कहाँ मैं खुशनसीब कि प्रकाशक पीछे पड़ा था जल्दी करिए। अम्मा कहा करतीं, तुम क्यों उठ आती हो, सुबह से पीछेवाले कमरे में बंद हो जाओ, इतना बड़ा घर है, और लिखो। ज़रा ही देर में चाय लेकर आतीं कुछ बन रहा है, ताकि मैं कैटल न ऑन करूँ और मेरा हाथ अनायास ही उनकी निर्दोष नज़रों से पन्ने पर लिखे हर्फ़ों को छिपाने लगता। शंभु भइया ऑफ़िस जाते हुए खिड़की से झाँककर कह जाते फ़ोन हर वक़्त बिज़ी मत रखना और अम्मा को बुरा लग जाता आशू तुम बाहर से फ़ोन कर लिया करो।

 पर मैं ही तो नहीं करती ना ? हाँ, लेकिन लंबा-चौड़ा बिल आए, मशीन खराब हो, कुछ हो, तपाक़ से तुम्हारा नाम लगा देते हैं। पापा आ के छड़ी पर टेक दिए बैठ जाते। तब अम्मा कहतीं, चलिए यहाँ से चलें, यह काम कर रही है और पापा ज़िद में बैठे रहते। क्यों ? सिर मूठ पर बाँधे हाथों पे गिराए, आँखें मूँदे, और मैं कहती, रहने दीजिए। तब पापा आँखें आस से खोलते कैन यू टेक मी सम व्हेयर, एनी व्हेयर, इन द कार ? अभी, अम्मा डाँटतीं। पापा की हल्की भूरी आँखों में भीड़ होती, कमरे में निजी चीज़ों की परछाइयाँ, और वे लेट जाते। पास से और दूर से आवाज़ें आती रहतीं—कक्कू दी का रजिंदर को डपटना, अच्छा अब आप रबड़ की चप्पलें नहीं, चमड़े की सैंडल पहनेंगे। भाभी का प्रेसवाली को हड़काना, पहले मेरे कपड़े करो, अम्मा को क्या जल्दी है ? सुल्लू का स्कूल के लिए निकलते हुए कुछ चिटी-चिटी बैंग-बैंग चिल्ला के गाना। सुल्लू को विलायती बनना है—देखना दी, भूले से दो दिन के लिए कोई पहुँचा दे, फिर लौट के नहीं आऊँगी, वह हँस के हाँकती और मुझे उसके सोलह बरस के ठोस होते मूल्यों पर खूब खीज होने लगती। कक्कू दी को मेम साहब बने रहना है, शंभु भइया को सबकी डिसिप्लिन बनानी है, भाभी को घर खर्च का बेहद हिसाब रखना है, अम्मा को बच्चों में रहना है, पापा को पातों में। सबकी नज़र एक अलग दिशा में।

लेकिन रॉबिन के घर में इस सारे गोंजामेल से मुक्ति थी। सहज, साधारण, एक आम इनसान के लिए बना घर। एक पाँवदान था, जो सुबह दरवाज़ा खोलती तो भीगा हुआ मिलता और मैं सोचती कुक से कहूँगी सूखने को डाल दे, टाट हुआ जा रहा है, पर कुक के आने पर भूल जाती।

कोई भी ऐसी चीज़ नहीं थी जो यादों पर हावी हो जाए। घर की सज्जा याद करनी चाही तो टाट होता पाँवदान ही याद आया। न भीतर ऐसा था कि उसके तेवर आँखों में भुँक जाएँ, न बाहर नाटकीय दृश्य था कि यादों में खलबली पैदा करे। खाना भी सीधा सादा। अलबत्ता घर के पपीतों के कोफ़्ते बनाता था रॉबिन का कुक।

घर के फल-फूल की बात ही और होती है। पापा की आख़िरी पोस्टिंग मुरादाबाद में थी आज भी ड्राइव पे निकलते हैं तो कभी पल भर को उनकी आँखों में बाहर भागती चीजों की सूनी परछाईं लोप हो जाती है और कहीं उनके भीतर से निकली उजाले की शहतीर डोल जाती है—ये मुरादाबाद कैंटूनमेंट है ? अब तो मैंने जवाब भी देना बंद कर दिया है पर वे मुरादाबाद कहते हैं तो मुझे अमरूद याद आते हैं। उस साल की बारिश कम पड़ी थी और केकवा ने कह दिया कि अमरूद में कीड़े पड़ गए और सबने डालें नीचे खींच के ऊँचे उचक के फल तोड़ना बंद कर दिया।


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