उपन्यास >> झूठा सच - भाग 2 झूठा सच - भाग 2यशपाल
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प्रस्तुत है देश विभाजन और उसके परिणाम पर प्रकाश डाला गया है...
Jhoothasuch-2
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि ‘झूठासच’ हिन्दी का सर्वोत्कृष्ट यथार्थवादी उपन्यास है।...‘झूठा सच’ उपन्यास-कला की कसौटी पर खरा उतरता ही है, पाठकों के मनोरंजन की दृष्टि से भी सफल हुआ है।...इस उपन्यास की गणना हम गर्व के साथ विश्व के दस महानतम उन्यासों में कर सकते हैं।’’
नवनीत, जनवरी, 1959
‘झूठा सच’ यशपाल जी के उपन्यासों में सर्वश्रेष्ठ है। उसकी गिनती हिन्दी के नये पुराने श्रेष्ठ उपन्यासों में होगी-यह निश्चित है। यह उपन्यास हमारे सामाजिक जीवन का एक विशद् चित्र उपस्थित करता है। इस उपन्यास में यथेष्ट करुणा है, भयानक और वीभत्स दृश्यों की कोई कमी नहीं। श्रंगार रस को यथासम्भव मूल कथा-वस्तु की सीमाओं में बाँध कर रखा गया है। हास्य और व्यंग्य ने कथा को रोचक बनाया है और उपन्यासकार के उद्देश्य को निखारा है।
रामविलास शर्मा
‘झूठा सच’ देश विभाजन और उसके परिणाम के चित्रण की काफी ईमानदारी से लिखी गई कहानी है। पर यह उपन्यास इसी कहानी तक ही सीमित नहीं है। देश-विभाजन की सिहरन उत्पन्न करने वाली इस कहानी में स्नेह, मानसिक और शारीरिक आकर्षण, महात्वाकांक्षा, घृणा, प्रतिहिंसा आदि की अत्यंत सहज प्रवाह से बढ़ने वाली मानवता पूर्ण कहानी भी आपको मिलेगी। ‘‘...‘झूठा सच’ हिन्दी उपन्यास साहित्य की अत्यंत श्रेष्ठ और प्रथम कोटि की रचना है।
आजकल, अक्टूबर, 1959
‘‘Yashpal recounts the powerful story of a nation’s endeavour to rise phoenix-like from the ashes of disaster with much confidence and eloquence of works.’।
Prakash Chandra Gupta
Only a Tolstoy could write ‘war and peace’. Yashpal, one of the top Hindi novelists has done credit to him self by maintaining objectivity. And historical authenticity in the sense of placing even the smallest incident in its proper context and prespective in this novel.
Link, may 24, 1959
सच को कल्पना से रंग कर उसी जन समुदाय को
सौंप रहा हूँ जो सदा झूठ से ठगा जाकर भी सच के लिये अपनी निष्ठा और उसकी ओर बढ़ने का साहस नहीं छोड़ता।
‘झूठा सच’ के दोनों भागों—‘वतन और देश’ और ‘देश का भविष्य’ में देश के सामयिक और राजनैतिक वातावरण को यथा-सम्भव ऐतिहासिक यथार्थ के रूप में चित्रित करने का यत्न किया गया है। उपन्यास के वातावरण को ऐतिहासिक यथार्थ का रूप देने और विश्वसनीय बना सकने के लिये कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम ही आ गये हैं परन्तु उपन्यास में वे ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं, उपन्यास के पात्र हैं।
कथानक में कुछ ऐतिहासिक घटनायें अथवा प्रसंग अवश्य हैं परन्तु सम्पूर्ण कथानक कल्पना के आधार पर उपन्यास है, इतिहास नहीं है।
उपन्यास के पात्र तारा, जयदेव, कनक, गिल, डाक्टर नाथ, नैयर, सूद जी, सोमराज, रावत, ईसाक, असद और प्रधान मंत्री भी काल्पनिक पात्र हैं।
सौंप रहा हूँ जो सदा झूठ से ठगा जाकर भी सच के लिये अपनी निष्ठा और उसकी ओर बढ़ने का साहस नहीं छोड़ता।
‘झूठा सच’ के दोनों भागों—‘वतन और देश’ और ‘देश का भविष्य’ में देश के सामयिक और राजनैतिक वातावरण को यथा-सम्भव ऐतिहासिक यथार्थ के रूप में चित्रित करने का यत्न किया गया है। उपन्यास के वातावरण को ऐतिहासिक यथार्थ का रूप देने और विश्वसनीय बना सकने के लिये कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम ही आ गये हैं परन्तु उपन्यास में वे ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं, उपन्यास के पात्र हैं।
कथानक में कुछ ऐतिहासिक घटनायें अथवा प्रसंग अवश्य हैं परन्तु सम्पूर्ण कथानक कल्पना के आधार पर उपन्यास है, इतिहास नहीं है।
उपन्यास के पात्र तारा, जयदेव, कनक, गिल, डाक्टर नाथ, नैयर, सूद जी, सोमराज, रावत, ईसाक, असद और प्रधान मंत्री भी काल्पनिक पात्र हैं।
यशपाल
जनवरी 1977
1
जयदेव पुरी शरणार्थियों को मुफ्त राशन बाँटने वाले डिपो के सामने क्यू में खड़ा था। उसके आगे तीन स्त्रियाँ और तीन पुरुष थे। क्यू में सबसे पहले खड़ी स्त्री राशन देने वाले से अनुरोध कर रही थी—
‘‘भाई, हम चार आदमी, दो बच्चे भी हैं। डेढ़ पाव आटा, छटाँक भर दाल से हमारा क्या बनेगा ? भाई, सेर भर आटा तो दो !’’
‘‘माई, फी आदमी डेढ़ पाव आटा, छटाँक भर दाल का ही आर्डर है। जो यहाँ आयेगा, उसी को मिलेगा।’’ राशन बाँटने वाले ने नियम की विवशता प्रकट की।
कुछ लोग स्त्री का समर्थन करने लगे।
दूसरे लोगों ने राशन बाँटने वाले का साथ दिया—‘‘आदमी तो सभी के साथ हैं। किसी के साथ पाँच हैं, किसी के साथ दस हैं। कोई चार का राशन ले जाकर बेच भी सकता है। सच्चाई इसी में है कि जिसे लेना हो, सामने आकर ले।’’
पुरी ने देखा, दो पुरुष और एक स्त्री राशन लेकर एक ओर खड़े थे। दोनों पुरुषों ने अंगोछे में लिया आटा और दाल स्त्री की ओढ़नी की झोली में दे दिया। अधिक आयु के पुरुष ने लड़के से कहा, ‘‘तुम चलो, मैं बालन (ईंधन) लेकर आता हूँ।’’
पूरी अपना बिस्तर बगल में दबाये था। सोचा, आटा-दाल लेने के लिए बिस्तर से चादर निकाल ले। वह बिस्तर खोलने के लिये क्यू से हटता तो कई आदमियों के पीछे हो जाना पड़ता है।
पुरी बगल में अपना बिस्तर दबाये रहा। उसने कमीज के दामन के एक छोर में डेढ़ पाव आटा और दूसरे छोर में छटाँक भर दाल ले ली और मंडी बाजार में निकल आया। वह किसी ढाबे की खोज में चला जा रहा था। लगभग सौ कदम चलकर बाजार में ताजी गरम रोटी की महक अनुभव हुई और ढाबा दिखाई दे गया। आटे की लोई को गोल और चपटी करने के लिये दोनों हथेलियों से बीच पीटने से पट-पट की आवाज गूँज रही थी।
ढाबे के महरे ने डेढ़ पाव आटे की बनी हुई रोटी और पकी हुई दाल बदले में दे देने के लिये एक आना माँगा।
पुरी ने मजदूरी में आटे और दाल का ही भाग रख लेने का अनुरोध किया।
महरा हाथ में आटे की लोई को दबा कर रोटी का रूप देने के लिये दोनों हाथों में पीटता रहा और पुरी को सिर से पाँव तक अन्दाजा—‘‘चार पैसे भी नहीं हैं ? मुफ्त राशन लाया है ?’’
पुरी को स्वीकार करना पड़ा।
‘‘दो रोटियाँ और दाल-सब्जी मिलेगी।’’
पुरी ने अपनी झोली का आटा-दाल महरे को सौंप दिया। वह दुकान के भीतर बिछे टाट की पट्टी पर बैठ गया।
पुरी भोजन पाकर दुकान के बाहर आया। उसने स्टूल पर रखे ड्रम में लगी टोंटी से हाथ धोकर कुल्ला किया। वह अपना बिस्तर उठाने के लिये झुक रहा था, महरे ने उसे सम्बोधन किया—
‘‘अच्छा भला जवान है, फिर क्या मुफ्त राशन लेने जायेगा ? दूसरा कोई काम नहीं मिलता, तब तक जैसी दिहाड़ी (मजदूरी) मिलती है कर ले।’’
‘‘हाँ, जरूर कर लूँगा।’’ पुरी ने महरे की ओर देखा। बिस्तर वहीं पड़ा रहने दिया।
‘‘हमारे मुंडे (छोकरे) को ताप (बुखार) हो गया है। हमारे यहाँ कौन बड़ा काम है। बर्तन माँजने हैं। दोनों वक्त पेट भर रोटी-दाल खा लेना, चार आने और दे दूँगा।’’
‘‘मंजूर है।’’ पुरी ने स्वीकार कर लिया।
‘‘शाबाश !’’ महरे ने प्रसन्नता प्रकट की, ‘‘जवान, लगा दे हाथ। उठा थालियाँ। अपनी थाली भी ले ले। काम करने में बुरा क्या है !’’
पेट में अन्न पड़ जाने से पुरी की निर्बलता दूर हो गई थी। उसने अपने पतलून घुटनों तक समेट ली और कमीज़ की आस्तीनें चढ़ा लीं। वह उकड़ूँ बैठ गया और राख के कनस्तर में पड़ा मूँज का जूना लेकर थालियाँ माँजने लगा। सिर में अब भी दरद था, उसकी परवाह न की। ढाबे पर एक-एक, दो-दो ग्राहक आते और खा कर चले जाते थे।
पुरी लाहौर में अपने घर पर रहता था। उसे ढाबे या तन्दूर पर खाना खाने का अवसर अधिक बार नहीं पड़ा था। सन्’ 42 के आन्दोलनों के दिनों में या सन्’ 47 की मार्च-अप्रैल में कामरेडों के साथ शांति स्थापना के प्रयत्नों में बहुत व्यस्त रहने पर भोजन के लिये घर लौटने का समय न मिलता था। तब वह तन्दूर पर ही खा लेता था।
पुरी ढाबे के ढंग से परिचित था। मेहरा तन्दूर के समीप गद्दी पर बैठा, हथेलियों से गढ़ कर रोटियाँ तन्दूर में लगाता जा रहा था। रोटियाँ सिक जाने पर खन-खन बजती लोहे की सीखों से भाप उड़ाती, चित्तीदार रोटियों को तन्दूर से निकाल लेता। कुछ ग्राहक घी चुपड़ी रोटियाँ और घी में छौंकी हुई दाल चाहते थे। ऐसे ग्राहकों के लिए महरा एक डिब्बे में से कुछ घी निकाल कर तन्दूर में गरम कर देता। गर्म घी में कुतरा हुआ प्याज छोड़ कर दाल डालने पर बहुत जोर छौं’ शब्द हो जाता। घी की सुगन्ध फैल जाती।
पुरी महरा के सहायक का काम कर रहा था। वह थाली में रोटियाँ, दाल की कटोरी, कड़छी भर कद्दू की तरकारी और चुटकी भर चटनी ग्राहकों के सामने रख देता था। गिलास में जल दे देता था। फिर ग्राहक के जूठे बरतन उठाकर माँजने बैठ जाता। उसके सिर का दरद भी धीमे-धीमे मिटता जा रहा था। पुरी सोच रहा था, आज रात यहाँ ही काट लूँगा, कल देखूँगा...
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संध्या का अँधेरा उतर आया था। बाजार में बिजलियाँ जल गयीं। महरा ने भी स्विच दबा कर दुकान में रोशनी कर दी। उसने बिजली के बल्ब को, लक्ष्मी का रूप दीपक मान कर, हाथ जोड़ नमस्कार कर दिया। संध्या समय ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी थी। खद्दर का कुर्ता-पाजामा और गांधी टोपी पहने एक आदमी आया। उसने महरा को समीप ही सूद जी के यहाँ खाना पहुँचा देने का संदेशा दिया। महरा ने अपने आदमी के बुखार में पड़े होने की विवशता बतायी।
खद्दरपोश सज्जन ग्राहक ने भी सूद जी के नौकर के बुखार में पड़े होने की बात कही।
महरा ने जूड़ी के बुखार को गाली दी और फिर बर्तन मलते हुए पुरी को सम्बोधन किया—‘‘सुन, दस कदम ही तो है। जा, बाबू जी के साथ जाकर मकान देख ले। थाली पहुँचा देना।’’
पुरी सन्देश लाने वाले आदमी के साथ चालीस कदम बाजार में गया। आदमी ने उसे एक जीना दिखा दिया और अपने काम से चला गया।
महरा ने डिब्बे से कटोरी में घी लिया। दो रोटियों की लोई में घी लगा कर परौठियाँ सेंकीं, परौठियाँ को घी से चुपड़ कर थाली में रखा। एक कटोरी में कटा हुआ प्याज घी में डाल कर दाल छौंकी। दूसरी कटोरी में तरकारी भी छौंकी। थाली में एक पत्ता रख कर चटनी रखी। थाली को दूसरी थाली से ढँका। पुरी समझ गया, किसी बड़े आदमी के लिये यत्न से थाली लगाई जा रही है।
महरा ने पुरी को समझाया—‘‘तू दाम-वाम की फिक्र न करना। थाली पहुँचा कर लौट आना। खुद पूछें तो कह देना, आठ आने हैं। होशियारी से थाली ले जा, बड़े आदमी हैं।’’
जीने में बाजार से और ऊपर आँगन में धुँधला प्रकाश हो रहा था। पुरी थाली को सावधानी से सँभाले ऊपर चढ़ गया। जीने के सामने छोटा-सा आँगन था। पुकारा—‘‘ढाबे से थाली लाया हूँ जी।’’
पुरी ने ऐसे पुकारा मानो वह रंगमंच पर निस्संकोच नौकर का अभिनय कर रहा हो परन्तु वह अभिनय नहीं कर रहा था। उसका स्वर और व्यवहार, काम और स्थिति के अनुकूल हो गया था।
‘‘हाँ, हाँ, ले आ अन्दर।’’ उत्तर सुनायी दिया।
पुरी छोटे आँगन में बायीं ओर कमरे का दरवाजा देख कर उस ओर गया। कमरे में बिजली का उजला प्रकाश था। तख्त पर बैठे हुए, हाथ में थमे कागजों पर झुके व्यक्ति को देख कर पुरी स्तब्ध रह गया। थाली उसके हाथों से गिरते-गिरते बची।
तख्त पर बैठा व्यक्ति कागज पर नजर लगाये था। वह सिर पर हाथ फेर रहा था, सिर के केश महीन कटे हुए थे। उसने दृष्टि उठाये बिना ही थाली लाने वाले को आदेश दे दिया—‘तिपाई इधर खींच कर थाली रख दे।’’
पुरी ने अपने आपको सँभाला। प्रबल आवेग, आँतों की गहराई से उठकर गले तक आ गया था। उसने गर्दन झुकाये थाली को तिपाई पर रख दिया और तिपाई को थाली समेत उठा कर तख्त के समीप खींच दिया। पुरी चाहता था कि तख्त पर बैठे व्यक्ति से आँखें मिलने से पहले ही वह लौट जाये परन्तु ठिठक कर रह गया।
तख्त पर बैठा व्यक्ति गर्दन उठाये बिना ही बोला—‘‘ जरा लोटे में पानी भी दे दे, हाथ धो लूँ।’’
‘‘लोटा-पानी कहाँ है ?’’ पुरी को पूछना पड़ा। उसका स्वर भर्रा गया था।
‘‘वहीं, नल के पास।’’ तख्त पर बैठे व्यक्ति की गर्दन उठ गयी।
व्यक्ति ने पुरी को ध्यान से देखा। विस्मय का गहरा साँस खींचा—पुरी ! जयदेव ! अरे पुरी भाई, यह क्या ?’’
उसने पुरी को बाँह से पकड़ कर समीप तख्त पर बैठा लिया।
पुरी की गर्दन झुक गयी। पलकों में आ गये आँसुओं को रोक कर और गले में आ गये अवरोध को निगल कर बोला—‘‘सूद जी, क्या बताऊँ...?’’
तख्त के कोने पर रखे टेलीफोन की घंटी बज उठी। सूद जी ने हाथ बढ़ाकर फोन उठा लिया।
पुरी को सँभलने का अवसर मिला।
सूद जी ने स्नेह और उपालम्भ से पुरी को डाँटा—‘‘यह क्या हरकत है तुम्हारी ? जो भी हो गया था, तुम्हें नहीं मालूम था, क्यानाम जालंधर में सूद रहता है। यह तो नहीं है कि शहर में लोग सूद को जानते-पहचानते नहीं हैं। कभी भी पूछ लिया होता। क्यानाम सेवा-समिति में, काँग्रेस दफ्तर में, किसी भी दूकान पर, टाँगे-टमटम वाले को ही कह देते तो पहुँचा देता।’’
सूद जी के स्नेह अधिकार का सहारा पाकर पुरी ने संक्षेप में बता दिया वह अगस्त के आरम्भ में यू.पी. के एक पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी के आश्वासन पर नैनीताल और लखनऊ चला गया था। 15 अगस्त के दिन नैनीताल में था। बँटवारे के सम्बन्ध में काँग्रेस और लीग में समझौता हो जाने के कारण 10-11 अगस्त तक तो किसी झगड़े की आशंका नहीं रही। 19 अगस्त को उसे नैनीताल में समाचार मिला कि लाहौर में शहर की चारदीवारी के भीतर से सब हिन्दुओं को निकाला जा रहा है। वह परिवार की सहायता के लिये दौड़ा। सूद जी के गलत समझ कर कुछ और अभिप्राय लगा लेने की आशंका नहीं थी। पुरी ने ट्रेन में मुसलमानों पर आक्रमण में अपना सूटकेस खो जाने और पिछली रात अँधेरे में इस्लामिया कालेज के समीप लूट लिये जाने की घटनायें भी सुना दीं। वह किसी तरह लाहौर जाकर या जैसे भी हो, अपने परिवार का पता लेने के लिये बहुत व्याकुल था।
चन्दन महरा परेशान हो गया था। दोपहर में रखा नया जवान सूद जी के यहाँ थाली पहुँचाने गया था, वह लौटकर आया ही नहीं था। उसे थाली लेकर गये दो घंटे से ऊपर हो गये थे। चन्दन को सन्देह हुआ, जाने किसी गलत जगह पहुँच गया या भूखा आदमी परौठियों के लोभ में आ गया और दो थालियाँ, दो कटोरियाँ लेकर भाग गया। नये आदमी का छोटा-सा बिस्तर जरूर पड़ा था परन्तु उसमें जाने क्या हो, कुछ भी न हो। रात के दस बज गये। जवान नहीं लौटा तो चन्दन खोज के लिये सूद जी के यहाँ गया।
चन्दन देखकर हैरान था। उसका नया नौकर लीडर के साथ तख्त पर बैठा बात कर रहा था। चन्दन नमस्कार कर विनय से कमरे के दरवाजे की दहलीज पर घुटने समेट कर बैठ गया।
सूद जी ने चन्दन को डाँटा—‘‘तुमने इन्हें हमारा नाम-पता क्यों नहीं दिया ? यह तो हमारे भाई हैं, क्यानाम लाहौर में रहते थे।’’
चन्दन ने धरती को हाथ लगाकर कान छुए और हाथ जोड़ कर क्षमा माँगी—‘‘महाराज जी, मुझे क्या मालूम था ? सरकार जी, इन्होंने भी कुछ नहीं कहा-पूछा।’’
सूद जी चन्दन से बोले—‘‘अच्छा, जा, ले जा यह थाली उठाकर। क्या रोटी भेजी है ? क्यानाम ठीकरों की तरह ठंडी है। बेशर्म, क्यानाम पड़ोस का इतना लिहाज नहीं ! जा, दो थालियाँ अच्छी तरह लगाकर ले आ जल्दी से।’’
पुरी की लायी थाली वैसी ही पड़ी थी। चन्दन थाली उठाकर ले गया। दो थालियाँ नये सिरे से लगा कर लाया तो पुरी का बिस्तर भी बगल में दबा कर लेता आया। वह फिर से दहलीज पर बैठ गया। और हाथ जोड़ कर दुहाई देने लगा—
‘‘सरकार, मेरे तो आप ही अन्नदाता हैं। मालिक, सिर्फ तीन बोरी आटे का परमिट मिला है। घर में तीन बच्चे हैं। बाजार में तो आग लगी हुई है। पैंतीस रुपये मन आटा बिक रहा है। गिरधारी, सौनासिंह, मूला सबको पाँच-पाँच बोरियों का परमिट मिला है। गरीब परवर, गुलाम को भी पाँच बोरी मिलनी चाहिये।’’
‘‘अरे चन्दन, तू क्यानाम पक्का बदमाश है। खूब जानता हूँ तुझे। बेईमान गेहूँ में ज्वार मिला-मिला कर रोटी बेचता है।’’ सूद जी आत्मीयता से डाँटा।’’
‘‘हरे राम, हरे राम ! महाराज, आपने तो ऐसी बात कह दी।’’
‘‘तीन बोरी कम होती हैं ? क्यानाम ब्लैक में आटा बेचेगा, खूब जानता हूँ।’’
‘‘हरे राम, हरे राम ! महाराज, मैं अगर सेर आटा भी बेचूँ तो मुझे गौ-रकत...।’’
‘‘कौन है इस इलाके का इन्स्पेक्टर, क्यानाम जमीतसिंह है न ?’’
‘‘हाँ सरकार।’’
‘‘कल सुबह आना। सुबह थालियाँ लेने आयेगा तो याद दिलाना। अब जा, सिर न खा।
दिन भर बरसात के अन्त की कड़ी धूप रही थी। आधी रात बादल घिर कर पानी बरसने लगा था। सूद जी का नौकर बुखार में पड़ा था। वे बगल के बरामदे से एक चारपाई स्वयं भीतर ला रहे थे।
‘‘पुरी आगे बढ़कर बोला—‘‘ठहरिये ठहरिये, मैं लाता हूँ।’’
फिर फोन की घंटी बज उठी।
पुरी ने आग्रह किया—‘‘आप फोन सुनिये, यह मैं कर लेता हूँ।’’
‘‘फोन तो बजता ही रहता है।’’ सूद जी ने कहा। वह खाट बिछा कर फोन सुनने लगे।
सूद जी ने पुरी के लिये खाट पर दरी और चादर बिछा दी। स्वयं तख्त पर लेट गये। कमरे में प्रकाश बुझा दिया था। बाजार की ओर खिड़की से फुहार लिये ठण्डी हवा के झोंके आ जाते थे। छत में लगा हुआ पंखा भी धीमे-धीमे चल रहा था। पुरी को बहुत विश्राम और शान्ति अनुभव हो रही थी।
सूद जी के शरीर पर दिन भर धूप में घूमने की मजबूरी से घाम निकल आयी थी। ठण्डी हवा का स्पर्श घाम को शांति दे रहा था। अँधेरे में अपने कन्धों और जाँघों पर घाम को और पुराने एक्जीमा को सहलाते हुए पुरी से गम्भीर बात करने लगे—
‘‘पंजाब में कांग्रेस की मिनिस्ट्री बनाने का अवसर आया है तो यह लोग फिर सब कुछ अपने गुट्ट के हाथ समेट लेना चाहते हैं। हाई कमाण्ड ने तो क्यानाम सब कुछ दो आदमियों के हाथ में दे दिया है। यह लोग क्यानाम सब जिम्मेदारी तो हमारे पूर्वी जिलों से चुने गये मेम्बरों पर डाल देना चाहते हैं और पावर सब अपने हाथ में ले ली है। हम भी देख लेंगे, कैसे गवर्नमेंट चला लेते हैं। यहाँ की हालत हम जानते हैं कि क्यानाम बाहर से आये हुए लोग...।’’
सूद जी अपने प्रति अन्याय अनुभव कर उत्तेजना से बोले—‘‘जानते हो,....डाक्टर तो पुराना सट्टेबाज है। क्यानाम अपने आपको लाला लाजपतराय का वारिस समझे बैठा है। तुम्हें याद है, सन् ’45 दिसम्बर में तुम मुझे उसके यहाँ मिले थे। मैंने तभी तुम्हें सब बात बता दी थी। अब तो वह क्यानाम अपने आपको मालिक समझ बैठा है।’’
पुरी को याद था वह अपनी गली के डाक्टर प्रभुदयाल के साथ डाक्टर राधेबिहारी के यहाँ ‘पैरोकार’ में नौकरी के लिये गया था। वहाँ सूद जी से भेंट हो गई थी। पुरी मुल्तान कैम्प जेल में सूद जी के साथ था। मुल्तान कैम्प जेल में हजार से अधिक राजनीतिक कैदी थे। पंजाब की काँग्रेस दलबन्दी और राजनीतिक सिद्धान्तों के भेद के आधार पर और कुछ व्यक्तिगत पसन्द और लगाव के कारण जेल में पंडित देवीदास और सूद जी की अलग-अलग पार्टियाँ बन गई थीं। पंडित देवीदास काँग्रेस के सत्ताधारी दल के प्रतिनिधि थे। वे अपने आपको लाला लाजपतराय की परम्परा निबाहने वाला समझते थे। डाक्टर राधेबिहारी द्वारा उन्हें काँग्रेस हाई कमाण्ड का सहारा प्राप्त था। सूद जी काँग्रेस में ‘गद्दी के अधिकार’ के स्थान पर ‘काम’ की माँग करने वाले उग्र दल के प्रतिनिधि थे।
सूद जी को वकील होने के कारण जेल में स्पेशल क्लास की सुविधा दी गई थी परन्तु वे उसे अस्वीकार कर साधारण राजनीतिक कैदियों के साथ रहते थे। उन्हें काँग्रेसी समाजवादियों का समर्थन प्राप्त था। जेल में पुरी सूद जी के समर्थकों में था।
पुरी को याद था, सूद जी ने उसे जेल का विश्वासपात्र साथी और विचारों का मान कर डाक्टर राधेबिहारी के यहाँ जाना पसन्द नहीं किया था। राय दी थी कि वह फिर मैदान में आये और अपनी योग्यता से काँग्रेस के वामपक्ष को सबल बनाये। सूद जी ने डाक्टर की तिकड़म उसे बता दी थी—डाक्टर जानता था कि जालंधर में सूद जी का प्रभान था। वहाँ से वह पंजाब असेम्बली के चुनाव के लिये काँग्रेस का टिकट अपने गुट्ट के व्यक्ति रायजादा नौबतराय को दिलाना चाहता था। उसके बदले में सूद जी को सेन्ट्रल असेम्बली का टिकट दे रहा था।
‘‘भाई, हम चार आदमी, दो बच्चे भी हैं। डेढ़ पाव आटा, छटाँक भर दाल से हमारा क्या बनेगा ? भाई, सेर भर आटा तो दो !’’
‘‘माई, फी आदमी डेढ़ पाव आटा, छटाँक भर दाल का ही आर्डर है। जो यहाँ आयेगा, उसी को मिलेगा।’’ राशन बाँटने वाले ने नियम की विवशता प्रकट की।
कुछ लोग स्त्री का समर्थन करने लगे।
दूसरे लोगों ने राशन बाँटने वाले का साथ दिया—‘‘आदमी तो सभी के साथ हैं। किसी के साथ पाँच हैं, किसी के साथ दस हैं। कोई चार का राशन ले जाकर बेच भी सकता है। सच्चाई इसी में है कि जिसे लेना हो, सामने आकर ले।’’
पुरी ने देखा, दो पुरुष और एक स्त्री राशन लेकर एक ओर खड़े थे। दोनों पुरुषों ने अंगोछे में लिया आटा और दाल स्त्री की ओढ़नी की झोली में दे दिया। अधिक आयु के पुरुष ने लड़के से कहा, ‘‘तुम चलो, मैं बालन (ईंधन) लेकर आता हूँ।’’
पूरी अपना बिस्तर बगल में दबाये था। सोचा, आटा-दाल लेने के लिए बिस्तर से चादर निकाल ले। वह बिस्तर खोलने के लिये क्यू से हटता तो कई आदमियों के पीछे हो जाना पड़ता है।
पुरी बगल में अपना बिस्तर दबाये रहा। उसने कमीज के दामन के एक छोर में डेढ़ पाव आटा और दूसरे छोर में छटाँक भर दाल ले ली और मंडी बाजार में निकल आया। वह किसी ढाबे की खोज में चला जा रहा था। लगभग सौ कदम चलकर बाजार में ताजी गरम रोटी की महक अनुभव हुई और ढाबा दिखाई दे गया। आटे की लोई को गोल और चपटी करने के लिये दोनों हथेलियों से बीच पीटने से पट-पट की आवाज गूँज रही थी।
ढाबे के महरे ने डेढ़ पाव आटे की बनी हुई रोटी और पकी हुई दाल बदले में दे देने के लिये एक आना माँगा।
पुरी ने मजदूरी में आटे और दाल का ही भाग रख लेने का अनुरोध किया।
महरा हाथ में आटे की लोई को दबा कर रोटी का रूप देने के लिये दोनों हाथों में पीटता रहा और पुरी को सिर से पाँव तक अन्दाजा—‘‘चार पैसे भी नहीं हैं ? मुफ्त राशन लाया है ?’’
पुरी को स्वीकार करना पड़ा।
‘‘दो रोटियाँ और दाल-सब्जी मिलेगी।’’
पुरी ने अपनी झोली का आटा-दाल महरे को सौंप दिया। वह दुकान के भीतर बिछे टाट की पट्टी पर बैठ गया।
पुरी भोजन पाकर दुकान के बाहर आया। उसने स्टूल पर रखे ड्रम में लगी टोंटी से हाथ धोकर कुल्ला किया। वह अपना बिस्तर उठाने के लिये झुक रहा था, महरे ने उसे सम्बोधन किया—
‘‘अच्छा भला जवान है, फिर क्या मुफ्त राशन लेने जायेगा ? दूसरा कोई काम नहीं मिलता, तब तक जैसी दिहाड़ी (मजदूरी) मिलती है कर ले।’’
‘‘हाँ, जरूर कर लूँगा।’’ पुरी ने महरे की ओर देखा। बिस्तर वहीं पड़ा रहने दिया।
‘‘हमारे मुंडे (छोकरे) को ताप (बुखार) हो गया है। हमारे यहाँ कौन बड़ा काम है। बर्तन माँजने हैं। दोनों वक्त पेट भर रोटी-दाल खा लेना, चार आने और दे दूँगा।’’
‘‘मंजूर है।’’ पुरी ने स्वीकार कर लिया।
‘‘शाबाश !’’ महरे ने प्रसन्नता प्रकट की, ‘‘जवान, लगा दे हाथ। उठा थालियाँ। अपनी थाली भी ले ले। काम करने में बुरा क्या है !’’
पेट में अन्न पड़ जाने से पुरी की निर्बलता दूर हो गई थी। उसने अपने पतलून घुटनों तक समेट ली और कमीज़ की आस्तीनें चढ़ा लीं। वह उकड़ूँ बैठ गया और राख के कनस्तर में पड़ा मूँज का जूना लेकर थालियाँ माँजने लगा। सिर में अब भी दरद था, उसकी परवाह न की। ढाबे पर एक-एक, दो-दो ग्राहक आते और खा कर चले जाते थे।
पुरी लाहौर में अपने घर पर रहता था। उसे ढाबे या तन्दूर पर खाना खाने का अवसर अधिक बार नहीं पड़ा था। सन्’ 42 के आन्दोलनों के दिनों में या सन्’ 47 की मार्च-अप्रैल में कामरेडों के साथ शांति स्थापना के प्रयत्नों में बहुत व्यस्त रहने पर भोजन के लिये घर लौटने का समय न मिलता था। तब वह तन्दूर पर ही खा लेता था।
पुरी ढाबे के ढंग से परिचित था। मेहरा तन्दूर के समीप गद्दी पर बैठा, हथेलियों से गढ़ कर रोटियाँ तन्दूर में लगाता जा रहा था। रोटियाँ सिक जाने पर खन-खन बजती लोहे की सीखों से भाप उड़ाती, चित्तीदार रोटियों को तन्दूर से निकाल लेता। कुछ ग्राहक घी चुपड़ी रोटियाँ और घी में छौंकी हुई दाल चाहते थे। ऐसे ग्राहकों के लिए महरा एक डिब्बे में से कुछ घी निकाल कर तन्दूर में गरम कर देता। गर्म घी में कुतरा हुआ प्याज छोड़ कर दाल डालने पर बहुत जोर छौं’ शब्द हो जाता। घी की सुगन्ध फैल जाती।
पुरी महरा के सहायक का काम कर रहा था। वह थाली में रोटियाँ, दाल की कटोरी, कड़छी भर कद्दू की तरकारी और चुटकी भर चटनी ग्राहकों के सामने रख देता था। गिलास में जल दे देता था। फिर ग्राहक के जूठे बरतन उठाकर माँजने बैठ जाता। उसके सिर का दरद भी धीमे-धीमे मिटता जा रहा था। पुरी सोच रहा था, आज रात यहाँ ही काट लूँगा, कल देखूँगा...
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संध्या का अँधेरा उतर आया था। बाजार में बिजलियाँ जल गयीं। महरा ने भी स्विच दबा कर दुकान में रोशनी कर दी। उसने बिजली के बल्ब को, लक्ष्मी का रूप दीपक मान कर, हाथ जोड़ नमस्कार कर दिया। संध्या समय ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी थी। खद्दर का कुर्ता-पाजामा और गांधी टोपी पहने एक आदमी आया। उसने महरा को समीप ही सूद जी के यहाँ खाना पहुँचा देने का संदेशा दिया। महरा ने अपने आदमी के बुखार में पड़े होने की विवशता बतायी।
खद्दरपोश सज्जन ग्राहक ने भी सूद जी के नौकर के बुखार में पड़े होने की बात कही।
महरा ने जूड़ी के बुखार को गाली दी और फिर बर्तन मलते हुए पुरी को सम्बोधन किया—‘‘सुन, दस कदम ही तो है। जा, बाबू जी के साथ जाकर मकान देख ले। थाली पहुँचा देना।’’
पुरी सन्देश लाने वाले आदमी के साथ चालीस कदम बाजार में गया। आदमी ने उसे एक जीना दिखा दिया और अपने काम से चला गया।
महरा ने डिब्बे से कटोरी में घी लिया। दो रोटियों की लोई में घी लगा कर परौठियाँ सेंकीं, परौठियाँ को घी से चुपड़ कर थाली में रखा। एक कटोरी में कटा हुआ प्याज घी में डाल कर दाल छौंकी। दूसरी कटोरी में तरकारी भी छौंकी। थाली में एक पत्ता रख कर चटनी रखी। थाली को दूसरी थाली से ढँका। पुरी समझ गया, किसी बड़े आदमी के लिये यत्न से थाली लगाई जा रही है।
महरा ने पुरी को समझाया—‘‘तू दाम-वाम की फिक्र न करना। थाली पहुँचा कर लौट आना। खुद पूछें तो कह देना, आठ आने हैं। होशियारी से थाली ले जा, बड़े आदमी हैं।’’
जीने में बाजार से और ऊपर आँगन में धुँधला प्रकाश हो रहा था। पुरी थाली को सावधानी से सँभाले ऊपर चढ़ गया। जीने के सामने छोटा-सा आँगन था। पुकारा—‘‘ढाबे से थाली लाया हूँ जी।’’
पुरी ने ऐसे पुकारा मानो वह रंगमंच पर निस्संकोच नौकर का अभिनय कर रहा हो परन्तु वह अभिनय नहीं कर रहा था। उसका स्वर और व्यवहार, काम और स्थिति के अनुकूल हो गया था।
‘‘हाँ, हाँ, ले आ अन्दर।’’ उत्तर सुनायी दिया।
पुरी छोटे आँगन में बायीं ओर कमरे का दरवाजा देख कर उस ओर गया। कमरे में बिजली का उजला प्रकाश था। तख्त पर बैठे हुए, हाथ में थमे कागजों पर झुके व्यक्ति को देख कर पुरी स्तब्ध रह गया। थाली उसके हाथों से गिरते-गिरते बची।
तख्त पर बैठा व्यक्ति कागज पर नजर लगाये था। वह सिर पर हाथ फेर रहा था, सिर के केश महीन कटे हुए थे। उसने दृष्टि उठाये बिना ही थाली लाने वाले को आदेश दे दिया—‘तिपाई इधर खींच कर थाली रख दे।’’
पुरी ने अपने आपको सँभाला। प्रबल आवेग, आँतों की गहराई से उठकर गले तक आ गया था। उसने गर्दन झुकाये थाली को तिपाई पर रख दिया और तिपाई को थाली समेत उठा कर तख्त के समीप खींच दिया। पुरी चाहता था कि तख्त पर बैठे व्यक्ति से आँखें मिलने से पहले ही वह लौट जाये परन्तु ठिठक कर रह गया।
तख्त पर बैठा व्यक्ति गर्दन उठाये बिना ही बोला—‘‘ जरा लोटे में पानी भी दे दे, हाथ धो लूँ।’’
‘‘लोटा-पानी कहाँ है ?’’ पुरी को पूछना पड़ा। उसका स्वर भर्रा गया था।
‘‘वहीं, नल के पास।’’ तख्त पर बैठे व्यक्ति की गर्दन उठ गयी।
व्यक्ति ने पुरी को ध्यान से देखा। विस्मय का गहरा साँस खींचा—पुरी ! जयदेव ! अरे पुरी भाई, यह क्या ?’’
उसने पुरी को बाँह से पकड़ कर समीप तख्त पर बैठा लिया।
पुरी की गर्दन झुक गयी। पलकों में आ गये आँसुओं को रोक कर और गले में आ गये अवरोध को निगल कर बोला—‘‘सूद जी, क्या बताऊँ...?’’
तख्त के कोने पर रखे टेलीफोन की घंटी बज उठी। सूद जी ने हाथ बढ़ाकर फोन उठा लिया।
पुरी को सँभलने का अवसर मिला।
सूद जी ने स्नेह और उपालम्भ से पुरी को डाँटा—‘‘यह क्या हरकत है तुम्हारी ? जो भी हो गया था, तुम्हें नहीं मालूम था, क्यानाम जालंधर में सूद रहता है। यह तो नहीं है कि शहर में लोग सूद को जानते-पहचानते नहीं हैं। कभी भी पूछ लिया होता। क्यानाम सेवा-समिति में, काँग्रेस दफ्तर में, किसी भी दूकान पर, टाँगे-टमटम वाले को ही कह देते तो पहुँचा देता।’’
सूद जी के स्नेह अधिकार का सहारा पाकर पुरी ने संक्षेप में बता दिया वह अगस्त के आरम्भ में यू.पी. के एक पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी के आश्वासन पर नैनीताल और लखनऊ चला गया था। 15 अगस्त के दिन नैनीताल में था। बँटवारे के सम्बन्ध में काँग्रेस और लीग में समझौता हो जाने के कारण 10-11 अगस्त तक तो किसी झगड़े की आशंका नहीं रही। 19 अगस्त को उसे नैनीताल में समाचार मिला कि लाहौर में शहर की चारदीवारी के भीतर से सब हिन्दुओं को निकाला जा रहा है। वह परिवार की सहायता के लिये दौड़ा। सूद जी के गलत समझ कर कुछ और अभिप्राय लगा लेने की आशंका नहीं थी। पुरी ने ट्रेन में मुसलमानों पर आक्रमण में अपना सूटकेस खो जाने और पिछली रात अँधेरे में इस्लामिया कालेज के समीप लूट लिये जाने की घटनायें भी सुना दीं। वह किसी तरह लाहौर जाकर या जैसे भी हो, अपने परिवार का पता लेने के लिये बहुत व्याकुल था।
चन्दन महरा परेशान हो गया था। दोपहर में रखा नया जवान सूद जी के यहाँ थाली पहुँचाने गया था, वह लौटकर आया ही नहीं था। उसे थाली लेकर गये दो घंटे से ऊपर हो गये थे। चन्दन को सन्देह हुआ, जाने किसी गलत जगह पहुँच गया या भूखा आदमी परौठियों के लोभ में आ गया और दो थालियाँ, दो कटोरियाँ लेकर भाग गया। नये आदमी का छोटा-सा बिस्तर जरूर पड़ा था परन्तु उसमें जाने क्या हो, कुछ भी न हो। रात के दस बज गये। जवान नहीं लौटा तो चन्दन खोज के लिये सूद जी के यहाँ गया।
चन्दन देखकर हैरान था। उसका नया नौकर लीडर के साथ तख्त पर बैठा बात कर रहा था। चन्दन नमस्कार कर विनय से कमरे के दरवाजे की दहलीज पर घुटने समेट कर बैठ गया।
सूद जी ने चन्दन को डाँटा—‘‘तुमने इन्हें हमारा नाम-पता क्यों नहीं दिया ? यह तो हमारे भाई हैं, क्यानाम लाहौर में रहते थे।’’
चन्दन ने धरती को हाथ लगाकर कान छुए और हाथ जोड़ कर क्षमा माँगी—‘‘महाराज जी, मुझे क्या मालूम था ? सरकार जी, इन्होंने भी कुछ नहीं कहा-पूछा।’’
सूद जी चन्दन से बोले—‘‘अच्छा, जा, ले जा यह थाली उठाकर। क्या रोटी भेजी है ? क्यानाम ठीकरों की तरह ठंडी है। बेशर्म, क्यानाम पड़ोस का इतना लिहाज नहीं ! जा, दो थालियाँ अच्छी तरह लगाकर ले आ जल्दी से।’’
पुरी की लायी थाली वैसी ही पड़ी थी। चन्दन थाली उठाकर ले गया। दो थालियाँ नये सिरे से लगा कर लाया तो पुरी का बिस्तर भी बगल में दबा कर लेता आया। वह फिर से दहलीज पर बैठ गया। और हाथ जोड़ कर दुहाई देने लगा—
‘‘सरकार, मेरे तो आप ही अन्नदाता हैं। मालिक, सिर्फ तीन बोरी आटे का परमिट मिला है। घर में तीन बच्चे हैं। बाजार में तो आग लगी हुई है। पैंतीस रुपये मन आटा बिक रहा है। गिरधारी, सौनासिंह, मूला सबको पाँच-पाँच बोरियों का परमिट मिला है। गरीब परवर, गुलाम को भी पाँच बोरी मिलनी चाहिये।’’
‘‘अरे चन्दन, तू क्यानाम पक्का बदमाश है। खूब जानता हूँ तुझे। बेईमान गेहूँ में ज्वार मिला-मिला कर रोटी बेचता है।’’ सूद जी आत्मीयता से डाँटा।’’
‘‘हरे राम, हरे राम ! महाराज, आपने तो ऐसी बात कह दी।’’
‘‘तीन बोरी कम होती हैं ? क्यानाम ब्लैक में आटा बेचेगा, खूब जानता हूँ।’’
‘‘हरे राम, हरे राम ! महाराज, मैं अगर सेर आटा भी बेचूँ तो मुझे गौ-रकत...।’’
‘‘कौन है इस इलाके का इन्स्पेक्टर, क्यानाम जमीतसिंह है न ?’’
‘‘हाँ सरकार।’’
‘‘कल सुबह आना। सुबह थालियाँ लेने आयेगा तो याद दिलाना। अब जा, सिर न खा।
दिन भर बरसात के अन्त की कड़ी धूप रही थी। आधी रात बादल घिर कर पानी बरसने लगा था। सूद जी का नौकर बुखार में पड़ा था। वे बगल के बरामदे से एक चारपाई स्वयं भीतर ला रहे थे।
‘‘पुरी आगे बढ़कर बोला—‘‘ठहरिये ठहरिये, मैं लाता हूँ।’’
फिर फोन की घंटी बज उठी।
पुरी ने आग्रह किया—‘‘आप फोन सुनिये, यह मैं कर लेता हूँ।’’
‘‘फोन तो बजता ही रहता है।’’ सूद जी ने कहा। वह खाट बिछा कर फोन सुनने लगे।
सूद जी ने पुरी के लिये खाट पर दरी और चादर बिछा दी। स्वयं तख्त पर लेट गये। कमरे में प्रकाश बुझा दिया था। बाजार की ओर खिड़की से फुहार लिये ठण्डी हवा के झोंके आ जाते थे। छत में लगा हुआ पंखा भी धीमे-धीमे चल रहा था। पुरी को बहुत विश्राम और शान्ति अनुभव हो रही थी।
सूद जी के शरीर पर दिन भर धूप में घूमने की मजबूरी से घाम निकल आयी थी। ठण्डी हवा का स्पर्श घाम को शांति दे रहा था। अँधेरे में अपने कन्धों और जाँघों पर घाम को और पुराने एक्जीमा को सहलाते हुए पुरी से गम्भीर बात करने लगे—
‘‘पंजाब में कांग्रेस की मिनिस्ट्री बनाने का अवसर आया है तो यह लोग फिर सब कुछ अपने गुट्ट के हाथ समेट लेना चाहते हैं। हाई कमाण्ड ने तो क्यानाम सब कुछ दो आदमियों के हाथ में दे दिया है। यह लोग क्यानाम सब जिम्मेदारी तो हमारे पूर्वी जिलों से चुने गये मेम्बरों पर डाल देना चाहते हैं और पावर सब अपने हाथ में ले ली है। हम भी देख लेंगे, कैसे गवर्नमेंट चला लेते हैं। यहाँ की हालत हम जानते हैं कि क्यानाम बाहर से आये हुए लोग...।’’
सूद जी अपने प्रति अन्याय अनुभव कर उत्तेजना से बोले—‘‘जानते हो,....डाक्टर तो पुराना सट्टेबाज है। क्यानाम अपने आपको लाला लाजपतराय का वारिस समझे बैठा है। तुम्हें याद है, सन् ’45 दिसम्बर में तुम मुझे उसके यहाँ मिले थे। मैंने तभी तुम्हें सब बात बता दी थी। अब तो वह क्यानाम अपने आपको मालिक समझ बैठा है।’’
पुरी को याद था वह अपनी गली के डाक्टर प्रभुदयाल के साथ डाक्टर राधेबिहारी के यहाँ ‘पैरोकार’ में नौकरी के लिये गया था। वहाँ सूद जी से भेंट हो गई थी। पुरी मुल्तान कैम्प जेल में सूद जी के साथ था। मुल्तान कैम्प जेल में हजार से अधिक राजनीतिक कैदी थे। पंजाब की काँग्रेस दलबन्दी और राजनीतिक सिद्धान्तों के भेद के आधार पर और कुछ व्यक्तिगत पसन्द और लगाव के कारण जेल में पंडित देवीदास और सूद जी की अलग-अलग पार्टियाँ बन गई थीं। पंडित देवीदास काँग्रेस के सत्ताधारी दल के प्रतिनिधि थे। वे अपने आपको लाला लाजपतराय की परम्परा निबाहने वाला समझते थे। डाक्टर राधेबिहारी द्वारा उन्हें काँग्रेस हाई कमाण्ड का सहारा प्राप्त था। सूद जी काँग्रेस में ‘गद्दी के अधिकार’ के स्थान पर ‘काम’ की माँग करने वाले उग्र दल के प्रतिनिधि थे।
सूद जी को वकील होने के कारण जेल में स्पेशल क्लास की सुविधा दी गई थी परन्तु वे उसे अस्वीकार कर साधारण राजनीतिक कैदियों के साथ रहते थे। उन्हें काँग्रेसी समाजवादियों का समर्थन प्राप्त था। जेल में पुरी सूद जी के समर्थकों में था।
पुरी को याद था, सूद जी ने उसे जेल का विश्वासपात्र साथी और विचारों का मान कर डाक्टर राधेबिहारी के यहाँ जाना पसन्द नहीं किया था। राय दी थी कि वह फिर मैदान में आये और अपनी योग्यता से काँग्रेस के वामपक्ष को सबल बनाये। सूद जी ने डाक्टर की तिकड़म उसे बता दी थी—डाक्टर जानता था कि जालंधर में सूद जी का प्रभान था। वहाँ से वह पंजाब असेम्बली के चुनाव के लिये काँग्रेस का टिकट अपने गुट्ट के व्यक्ति रायजादा नौबतराय को दिलाना चाहता था। उसके बदले में सूद जी को सेन्ट्रल असेम्बली का टिकट दे रहा था।
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