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परशुराम की प्रतीक्षा

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2216
आईएसबीएन :81-85341-13-3

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रामधारी सिंह दिनकर की अठारह कविताओं का संग्रह...


हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,
सारी लपटों का रंग लाल होता है।
जाग्रत पौरुष प्रज्जवलित ज्वाल होता है,
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।

वास्तविक मर्म जीवन का जान गये हैं,
हम भली-भाँति अघ को पहचान गये हैं।
हम समझ गये हैं खूब धर्म के छल को,
बम की महिमा को और विनय के बल को।

हम मान गये, वे धीर नहीं उद्धत थे,
वे सही, और हम विनयी बहुत ग़लत थे।
जा कहो, करें अब क्षमा, नहीं रूठे वे ;
बम उठा बाज के सदृश व्यग्र टूटे वे।

साधना स्वयं शोणित कर धार रही है,
सतलज को साबरमती पुकार रही है।

वे उठें, देश उनके पीछे हो लेगा,
हम कहते हैं, कोई न व्यंग्य बोलेगा।
है कौन मूढ़, जो पिटक आज खोलेगा?
बोलेगा जय वह भी, न खड्ग जो लेगा।

वे उठें, हाय, नाहक विलम्ब होता है,
अपनी भूलों के लिए देश रोता है।

जिसका सारा इतिहास, तृप्त जगमग है,
वीरता-वह्नि से भरी हुई रग-रग है,
जिसके इतने बेटे, रण झेल चुके हैं,
शूली, किरीच, शोलों से खेल चुके हैं,

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