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परशुराम की प्रतीक्षा

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2216
आईएसबीएन :81-85341-13-3

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रामधारी सिंह दिनकर की अठारह कविताओं का संग्रह...


(25)
जो अड़े, शेर उस नर से डर जाता है,
है विदित, व्याघ्र को व्याघ्र नहीं खाता है।
सच पूछो तो अब भी सच यही वचन है,
सभ्यता, क्षीण, बलवान, हिंस्र कानन है।
एक ही पन्थ अब भी जग में जीने का,
अभ्यास करो छागियो ! रक्त पीने का।

(26)
जब शान्तिवादियों ने कपोत छोड़े थे,
किसने आशा से नहीं हाथ जोड़े थे?
पर, हाय, धर्म यह भी धोखा है, छल है;
उजले कबूतरों में भी छिपा अनल है।
पंजों में इनके धार धरी होती है,
कइयों में तो बारूद भरी होती है।

(27)
जो पुण्य-पुण्य बक रहे, उन्हें बकने दो,
जैसे सदियाँ थक चुकीं, उन्हें थकने दो।
पर, देख चुके हम तो सब पुण्य कमा कर,
सौभाग्य, मान, गौरव, अभिमान गँवा कर।
वे पियें शीत, तुम आतप-घाम पियो रे !
वे जपें नाम, तुम बन कर राम जियो रे !

(28)
है जिन्हें दाँत, उनसे अदन्त कहते हैं,
यानी शूरों को देख सन्त कहते हैं,
“तुम तुड़ा दाँत क्यों नहीं पुण्य पाते हो?
यानी तुम भी क्यों भेंड़ न बन जाते हो?”
पर कौन शेर भेड़ों की बात सुनेगा,
जिन्दगी छोड़ मरने की राह चुनेगा?

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