कहानी संग्रह >> औरत के हक में औरत के हक मेंतसलीमा नसरीन
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पुरुष शासित समाज में स्त्रियों के अधिकार और नारी–मुक्ति को लेकर चाहे जितने बड़े-बड़े दावे पेश किये जाएँ, बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन का स्वर निस्सन्देह सबसे भास्वर है।
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
पुरुष शासित समाज में स्त्रियों के अधिकार और नारी–मुक्ति को
लेकर चाहे जितने बड़े-बड़े दावे पेश किये जाएँ, बांग्लादेश की लेखिका
तसलीमा नसरीन का स्वर निस्सन्देह सबसे भास्वर है। उनके लेखन का तेवर
सर्वाधिक व्यंग्य मुखर और तिलमिला दोनो वाला है। संस्कार मुक्ति प्रतिवादी
और बेबाक तसलीमा ने अपने ‘निर्वाचित कलम’ द्वारा
बांग्लादेश में एक जबरदस्त हलचल-सी मचा दी और जैसा कि तय था, विवाद के
केन्द्र में आ गयी। इस अप्रतिम रचना को आनन्द पुरस्कार से सम्मानित किये
जाने की खबर से सारे देश में एक कृति के प्रति स्वभावतः कौतुहल पैदा हो
गया। उक्त रचना के साथ उनके द्वारा इसी विषय पर लिखित उनके अन्य लेखों को
भी पस्तुत संस्करण में सम्मिलित कर लिया गया है। इस कृति में तसलीमा ने
बचपन से लेकर अब तक की निर्मम, नग्न और निष्ठुर घटनाओं और अनुभवों के आलोक
में नये सवाल उठाए गये हैं, जिनसे स्त्रियों के समान अधिकारों को एक
सार्थक एवं निर्णायक प्रस्थान प्राप्त हुआ है।
प्रस्तुत कृति में पुरुष शासित समाज में स्त्रियों की दुर्दशा का हू-ब-हू चित्रण है। स्त्री-भोग्या मात्र है और धर्मशास्त्रों में भी उसके पाँवों में बेड़ियाँ डाल रखी हैं। ईश्वर की कल्पना तक में परोक्षतः नारी-पीड़ा का समर्थन किया गया है। सामाजिकत रूढ़ियों के पालन में, और दाम्पात्य जावन के प्रत्येक क्षेत्र में-यानी स्त्रियों के किसी भी मामले में पुरुषों की लालसा, नीचता, आक्रमकता, और निरंकुश भाव को तसलीमा ने खुले आम चुनौती दी है। अपनी दुस्साहसपूर्ण भाषा-शाली और दो टूक अंदाज में अपने विचारों को इस तरह रखा है कि पाठक एक बारगी तो तिलमिला उठता है।
प्रस्तुत कृति में पुरुष शासित समाज में स्त्रियों की दुर्दशा का हू-ब-हू चित्रण है। स्त्री-भोग्या मात्र है और धर्मशास्त्रों में भी उसके पाँवों में बेड़ियाँ डाल रखी हैं। ईश्वर की कल्पना तक में परोक्षतः नारी-पीड़ा का समर्थन किया गया है। सामाजिकत रूढ़ियों के पालन में, और दाम्पात्य जावन के प्रत्येक क्षेत्र में-यानी स्त्रियों के किसी भी मामले में पुरुषों की लालसा, नीचता, आक्रमकता, और निरंकुश भाव को तसलीमा ने खुले आम चुनौती दी है। अपनी दुस्साहसपूर्ण भाषा-शाली और दो टूक अंदाज में अपने विचारों को इस तरह रखा है कि पाठक एक बारगी तो तिलमिला उठता है।
1
उस समय मेरी उम्र उट्ठारह-उन्नीस की होगी। मयमनसिंह शहर के एक सिनेमा हॉल
में दोपहर का ‘शो’ ख़त्म हुआ है। क़तारों में रिक्शे
खड़े हैं। मैं एक रिक्शे पर चढ़ी। भीड़ के कारण रिक्शा एक जगह रुक गया था:
कभी थोड़ा चलता, फिर रुक जाता। इसी दौरान मुझे अपनी दाहिनी बाँह में आचनक
तेज़ दर्द महसूस हुआ। मैंने पाया कि बारह-तेरह साल का एक लड़का मेरी बांह
में एक जलती सिगरेट दाग़े हुए है। वह शर्ट और लुंगी पहने था। मैं उसे
पहचानती नहीं और न पहले कभी देखा ही है। मैं दर्द के मारे कराह उठी। और वह
सहज भाव से हँसता हुआ चला गया। मैंने सोचा, चिल्लाऊँ, किसी को आवाज़ दूँ,
या फिर दौड़कर उसे पकड़ लूँ। लोगों को इकट्ठा कर फ़रियाद करूँ। लेकिन
लड़कियों में एक छठी इन्द्रिय भी होती है, शायद इसीलिए उस दिन उस लड़के को
सज़ा दिलाने की कोई कोशिश मैंने नहीं की थी। उसी उम्र में मेरी समझ में आ
गया था कि मैं उस लड़के को पकड़ूँगी या फिर पकड़ने के लिए लोगों से मदद
चाहूँगी तो सभी मुझे घेर लेंगे, मुझे देखेंगे, मेरे शरीर के उतार-चढ़ाव का
आनन्द लेंगे, बदन की चिकनाहट देखेंगे, मेरी तकलीफ़ मेरी चीख़-पुकार, मेरा
गुस्सा और मेरी रुलाई देखेंगे। कोई समवेदना जतायेगा, कोई ज़बरदस्ती
सहानुभूति प्रकट करते हुए जानना चाहेगा कि आख़िर हुआ क्या ? कोई कहेगा,
लड़के को पकड़कर दो-चार थप्पड़ लगाना चाहिए। उसके पिता का नाम क्या है, घर
कहाँ है आदि पूछेगा। दरअसल सब मिलकर मेरा मजाक़ उड़ायेंगे। मेरी असहायता
का उपभोग करेंगे। कहाँ जला है-यह देखने के बहाने मेरी सुडौल खुली बाँह
देखेंगे। मेरे चले जाने के बाद मेरे शुभचिन्तकगण सीटी बजायेंगे। यह सब
सोचकर मैं अपना दर्द अपने अन्दर दबाये रह गई।
मेरी दाहिनी बाँह में आज भी वह दाग़ जल रहा है। मैं उस उजड्ड अनपढ़ लड़के को क्या दोष दूँ, शिक्षित सुसंस्कृत लोग ही कहाँ निर्दोष हैं ! मेरी आँखों के सामने एक लड़का मेरी सहेली की जाँघ में चिकोटी काटकर भाग गया था। एक बार एक अपरिचित युवक मेरी बहन का दुपट्टा खींचकर भाग गया था। भीड़ के बीच स्तन और नितंब स्पर्श करने के लिए एक सौ एक हाथ अंधेरे में अपने-अपने पंजे बढ़ाये रहते हैं। मैं जानती हूँ ये सब के सब हाथ अनपढ़ों के नहीं होते, इनमें से अनेक हाथ पढ़े-लिखे लोगों के भी होते हैं।
इन घटनाओं का मैंने कभी विरोध नहीं किया। बल्कि मैं अपने आपको खुशनसीब समझती हूँ कि अब तक किसी ने ‘एसिड बल्ब’ मारकर मेरा चेहरा नहीं जलाया, मेरी आँखें फोड़ कर मुझे अंधा नहीं किया। यह मेरा सौभाग्य है कि वहशी मर्दों के किसी गिरोह ने अब तक मेरा बलात्कार नहीं किया। इतना ही नहीं, मैं अब तब जीवित हूँ, यह भी मेरा सौभाग्य ही है। मैं अपने जिस अपराध के लिए उन तमाम अत्याचारों की आशंका कर रही हूँ, वह है मेरा ‘लड़की जात’ होना।’ मेरी शिक्षा, मेरी रुचि मेरी मेधा मुढे ‘मानव जात’ नहीं बना सकी, सिर्फ़ ‘लड़की जात’ ही बनाकर रख दिया। इस देश में ‘लड़की जात’ अपने अन्दर तमाम खूबियाँ रखने के बावजूद ‘मानव जाति’ में शामिल नहीं हो सकती। मैं जानती हूँ इस समाज के प्रथम श्रेणी में गिने जाने वाले अनेक नागरिक सिनेमा हॉल के पास सिगरेट से जलाये जाने की घटना को मेरी ‘व्यक्तिगत घटना’ मान लेंगे। दरअसल व्यक्तिगत घटना कहकर वे अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ना चाहते हैं। लेकिन जो भी लड़कियाँ घर से बाहर निकलती हैं, उनमें मैं अकेली नहीं हूँ। बल्कि सभी लड़कियाँ रास्ते में होने वाली अश्लील घटनाओं को चुपचाप झेलने के लिए तैयार रहती हैं। वे यह भी जानती हैं कि उनके कपड़े पर पान थूककर अपने गन्दे दाँत चमकाता, हँसता कोई अनजान युवक निर्लिप्त भाव से चला जायेगा। इतना ही नहीं, ये लड़कियाँ एसिड बल्ब, अपहरण, बलात्कार, हत्या जैसी किसी भी दुर्घटना के लिए तैयार रहती हैं। रास्ते में निकलने पर बदन पर दो-एक कंकड़ गिराना तो बहुत मामूली बात है। सरेरहा फेंकी गयी जलती सिगरेट से रिक्शे में जा रही युवती के कपड़ों में आग लग जाती है और वे अर्धनग्न अवस्था में घर लौटती हैं-यह सिर्फ़ दो महीने पहले की बात है। इस घटना से इस शहर में कई लोगों ने काफ़ी चटखारा लिया था। कभी आदमी गुफा में रहता था और लड़की के जन्म लेते ही उसे ज़िन्दा गाड़ देता था। तब से काफ़ी परिवर्तन आया है लेकिन मनुष्य की भावना में कुछ खास तब्दीली नहीं आयी है।
मयमनसिंह शहर के विभिन्न स्थानों पर, विशेष रूप से लड़कियों के स्कूल, कॉलेज, सिनेमा हॉल के बग़ल में लड़की के खम्भों पर एक तरह के सूचना पट्ट पर लिखा रहता था-‘‘गुंडों की हरकतों के ख़िलाफ़ पुलिस की सहायता लें।’’ यह बहुत दिनों तक टिक नहीं पाया। शायद ये गुंडे उन खम्भों को ही उखाड़ ले गये। जितने दिनों तक ‘सूचना’ पट्ट’ था, लड़कियों के स्कूल आते-जाते समय लड़के उसी से टेक लगकर सीटी बजाते थे। सबसे मज़े की बात तो यह है कि एक बार पुलिस वालों की हरकतों से बचने के लिए लड़कियों को उन्हीं गुंडों की मदद लेनी पड़ी थी।
मेरी दाहिनी बाँह में आज भी वह दाग़ जल रहा है। मैं उस उजड्ड अनपढ़ लड़के को क्या दोष दूँ, शिक्षित सुसंस्कृत लोग ही कहाँ निर्दोष हैं ! मेरी आँखों के सामने एक लड़का मेरी सहेली की जाँघ में चिकोटी काटकर भाग गया था। एक बार एक अपरिचित युवक मेरी बहन का दुपट्टा खींचकर भाग गया था। भीड़ के बीच स्तन और नितंब स्पर्श करने के लिए एक सौ एक हाथ अंधेरे में अपने-अपने पंजे बढ़ाये रहते हैं। मैं जानती हूँ ये सब के सब हाथ अनपढ़ों के नहीं होते, इनमें से अनेक हाथ पढ़े-लिखे लोगों के भी होते हैं।
इन घटनाओं का मैंने कभी विरोध नहीं किया। बल्कि मैं अपने आपको खुशनसीब समझती हूँ कि अब तक किसी ने ‘एसिड बल्ब’ मारकर मेरा चेहरा नहीं जलाया, मेरी आँखें फोड़ कर मुझे अंधा नहीं किया। यह मेरा सौभाग्य है कि वहशी मर्दों के किसी गिरोह ने अब तक मेरा बलात्कार नहीं किया। इतना ही नहीं, मैं अब तब जीवित हूँ, यह भी मेरा सौभाग्य ही है। मैं अपने जिस अपराध के लिए उन तमाम अत्याचारों की आशंका कर रही हूँ, वह है मेरा ‘लड़की जात’ होना।’ मेरी शिक्षा, मेरी रुचि मेरी मेधा मुढे ‘मानव जात’ नहीं बना सकी, सिर्फ़ ‘लड़की जात’ ही बनाकर रख दिया। इस देश में ‘लड़की जात’ अपने अन्दर तमाम खूबियाँ रखने के बावजूद ‘मानव जाति’ में शामिल नहीं हो सकती। मैं जानती हूँ इस समाज के प्रथम श्रेणी में गिने जाने वाले अनेक नागरिक सिनेमा हॉल के पास सिगरेट से जलाये जाने की घटना को मेरी ‘व्यक्तिगत घटना’ मान लेंगे। दरअसल व्यक्तिगत घटना कहकर वे अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ना चाहते हैं। लेकिन जो भी लड़कियाँ घर से बाहर निकलती हैं, उनमें मैं अकेली नहीं हूँ। बल्कि सभी लड़कियाँ रास्ते में होने वाली अश्लील घटनाओं को चुपचाप झेलने के लिए तैयार रहती हैं। वे यह भी जानती हैं कि उनके कपड़े पर पान थूककर अपने गन्दे दाँत चमकाता, हँसता कोई अनजान युवक निर्लिप्त भाव से चला जायेगा। इतना ही नहीं, ये लड़कियाँ एसिड बल्ब, अपहरण, बलात्कार, हत्या जैसी किसी भी दुर्घटना के लिए तैयार रहती हैं। रास्ते में निकलने पर बदन पर दो-एक कंकड़ गिराना तो बहुत मामूली बात है। सरेरहा फेंकी गयी जलती सिगरेट से रिक्शे में जा रही युवती के कपड़ों में आग लग जाती है और वे अर्धनग्न अवस्था में घर लौटती हैं-यह सिर्फ़ दो महीने पहले की बात है। इस घटना से इस शहर में कई लोगों ने काफ़ी चटखारा लिया था। कभी आदमी गुफा में रहता था और लड़की के जन्म लेते ही उसे ज़िन्दा गाड़ देता था। तब से काफ़ी परिवर्तन आया है लेकिन मनुष्य की भावना में कुछ खास तब्दीली नहीं आयी है।
मयमनसिंह शहर के विभिन्न स्थानों पर, विशेष रूप से लड़कियों के स्कूल, कॉलेज, सिनेमा हॉल के बग़ल में लड़की के खम्भों पर एक तरह के सूचना पट्ट पर लिखा रहता था-‘‘गुंडों की हरकतों के ख़िलाफ़ पुलिस की सहायता लें।’’ यह बहुत दिनों तक टिक नहीं पाया। शायद ये गुंडे उन खम्भों को ही उखाड़ ले गये। जितने दिनों तक ‘सूचना’ पट्ट’ था, लड़कियों के स्कूल आते-जाते समय लड़के उसी से टेक लगकर सीटी बजाते थे। सबसे मज़े की बात तो यह है कि एक बार पुलिस वालों की हरकतों से बचने के लिए लड़कियों को उन्हीं गुंडों की मदद लेनी पड़ी थी।
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कलकत्ता के ‘साहित्य संसद’ से प्रकाशित शब्दकोश पिछले
तीस वर्षों से बांग्ला भाषा-भाषी पाठकों के साथ रहकर उनकी सेवा करता आ रहा
है। जनवरी 1987 में ‘साहित्य संसद’ द्वारा ही
प्रकाशित अशोक मुखोपाध्याय संपादित-संकलित ‘सामर्थ
शब्दकोश’ एक अलग तरह का शब्दकोश है। यह समानार्थ शब्दकोश
बांग्ला भाषा का थिसॉरस है। इस शब्दकोश में किसी शब्द का प्रति शब्द, उसका
आनुषांगिक शब्द, समानार्थक शब्द और समवर्गीय शब्द एकत्रित किये गये हैं।
‘समर्थ शब्दकोश’ बांग्ला भाषा और साहित्य का एक
अतुलनीय संयोजन है। इस मूल्यवान शब्दकोश में ‘पुरुष’
शब्द के समानार्थक शब्द-पुरुष, बेटा छेले, छेले (लड़का), मरद, मद्दा,
मद्द, मर्द, पुमान, मिनसे, नर, मानव, मानुस, मनुष्य, आदमी और
नारी’, के समानार्थक शब्द-स्त्री, मेये (लड़की), स्त्रीलोक,
रमणी, मेयेमानुष, मेये छेले, महिला, ललना अंगना, वामा, रमा, मानवी,
मानविका, कामिनी, अबला, औरत जनाना, योषित , योषिता, योषा, जनि, बाला,
प्रमदाजन, वनिता, भामिनी, शर्वरी और प्रतिपदर्शिनी लिखे गये हैं। यहाँ
‘नारी के समानार्थक शब्द अधिक हैं। लेकिन ध्यान देने की बात यह
है कि ‘मनुष्य’ शब्द ‘पुरुष’ के
समानार्थक शब्द के रूप में व्यवहृत हुआ है लेकिन
‘नारी’ के समानार्थक कहीं भी उल्लिखित नहीं। सुधीजन,
समादृत इस ग्रन्थ में ‘पुरुष’ और
‘नारी’ के इस अद्भुत अर्थ से ही मुझे बड़ी हैरानी हुई।
मैं उसी तरह आश्चर्यचकित हुई जब देखा कि विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास के दरवाज़े शाम होते ही उसी प्रकार बंद हो जाते हैं, जैसे मुर्गी बतख़ वगैरह को शाम होते ही दड़बे में डाल दिया जाता है। इस बात पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि बहुत जल्दी इन सारे लाभदायी पालतू जानवरों के नाम ‘नारी’ शब्द के समानार्थक शब्दों की तालिका में अपना स्थान बना लेंगे। एक छात्र अपनी ज़रूरत के मुताबिक इधर-उधर जाता है लेकिन एक छात्रा की ज़रूरत कोई मायने नहीं रखती। विश्वविद्यालय में जब मेधा या प्रतिभा की बात आती है तब लड़का और लड़की दोनों ही एक तरह के अध्ययन और प्रतियोगिता में भाग लेते हैं। छात्राओं के लिए कोई कमज़ोर आसान और निम्न स्तर की शिक्षा व्यवस्था तो उपलब्ध नहीं। निश्चित समय पर एक छात्रा को वापस न लौटने पर कारण जानने के बहाने प्रबन्धन जिन शब्दों का इस्तेमाल करता है उसे सुनकर कोई भी दुर्बल और बीमार दिमाग़ का आदमी सहज ही वश में आ जायेगा। लेकिन अपने अधिकार के प्रति सचेत लड़कियाँ भी इस अवैध और फूहड़ नियम को मानकर खुद प्रमाणित कर चुकी हैं कि वे असहाय, दुर्बल और पुरुषों के भोग की सामग्री हैं। वे दीवार और पहरेदार के बग़ैर सुरक्षित नहीं। (छात्राओं के छात्रावास का मुख्य द्वार शाम को ही बन्द कर दिया जाता है। तो क्या प्रकारान्तर से विश्वविद्यालय के अध्यापक उन्हें पतिता नहीं कहते ? कहते हैं। और कहेंगे।)
दरअसल रात कोई मायने नहीं रखती, अन्धकार कुछ नहीं है, दुर्घटना भी कुछ नहीं है, सबकी आड़ में एक ही उद्देश्य है और वह है-नारी का दमन। सारे विपर्यय, विघ्न-बाधा, संकट, दुःसमय, दुःशासन, उत्पीड़न का अतिक्रमण करते हुए वह फिर कहीं स्वावलम्बी न हो जाए, स्वच्छंद न हो जाए, सबल और दुर्लंघ्य न हो जाए !
और यदि ऐसा हो गया तो बहुत असुविधा होगी। क्योंकि शिक्षित लड़कियाँ ‘आधुनिक दासी’ होने के सर्वथा योग्य हैं। पति को मुग्ध और तुष्ट करने के लिए इनकी निरलस रूपचर्या, इनके द्वारा बनायी गईं सभा-समितियाँ, कला-संस्कृति, नारी आन्दोलन, यह सब कुछ, धर्म-शिक्षा के साथ बंगाली लड़कियों द्वारा कढ़ाई-बुनाई कर लिखी जाने वाली ‘सती का देवता पति’ का ही आधुनिकीकरण है।
जर्मन ग्रीयर की पुस्तक ‘फिमेल यूनाक’ में लड़कियों के ऊँची एड़ी वाले सैंडिल के अविष्कार के पीछे एक बहुत अच्छी बात कही गई है। पुरुष जब किसी लड़की पर आक्रमण करता है तब वह खुद को बचाने के लिए दौड़ती है। वह ज़्यादा तेज़ न दौड़ सके इसीलिए उनके पावों में ‘हाईहील’ यानी ऊँची एड़ी वाले सैंडिल की व्यवस्था की गई।
मैं उसी तरह आश्चर्यचकित हुई जब देखा कि विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास के दरवाज़े शाम होते ही उसी प्रकार बंद हो जाते हैं, जैसे मुर्गी बतख़ वगैरह को शाम होते ही दड़बे में डाल दिया जाता है। इस बात पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि बहुत जल्दी इन सारे लाभदायी पालतू जानवरों के नाम ‘नारी’ शब्द के समानार्थक शब्दों की तालिका में अपना स्थान बना लेंगे। एक छात्र अपनी ज़रूरत के मुताबिक इधर-उधर जाता है लेकिन एक छात्रा की ज़रूरत कोई मायने नहीं रखती। विश्वविद्यालय में जब मेधा या प्रतिभा की बात आती है तब लड़का और लड़की दोनों ही एक तरह के अध्ययन और प्रतियोगिता में भाग लेते हैं। छात्राओं के लिए कोई कमज़ोर आसान और निम्न स्तर की शिक्षा व्यवस्था तो उपलब्ध नहीं। निश्चित समय पर एक छात्रा को वापस न लौटने पर कारण जानने के बहाने प्रबन्धन जिन शब्दों का इस्तेमाल करता है उसे सुनकर कोई भी दुर्बल और बीमार दिमाग़ का आदमी सहज ही वश में आ जायेगा। लेकिन अपने अधिकार के प्रति सचेत लड़कियाँ भी इस अवैध और फूहड़ नियम को मानकर खुद प्रमाणित कर चुकी हैं कि वे असहाय, दुर्बल और पुरुषों के भोग की सामग्री हैं। वे दीवार और पहरेदार के बग़ैर सुरक्षित नहीं। (छात्राओं के छात्रावास का मुख्य द्वार शाम को ही बन्द कर दिया जाता है। तो क्या प्रकारान्तर से विश्वविद्यालय के अध्यापक उन्हें पतिता नहीं कहते ? कहते हैं। और कहेंगे।)
दरअसल रात कोई मायने नहीं रखती, अन्धकार कुछ नहीं है, दुर्घटना भी कुछ नहीं है, सबकी आड़ में एक ही उद्देश्य है और वह है-नारी का दमन। सारे विपर्यय, विघ्न-बाधा, संकट, दुःसमय, दुःशासन, उत्पीड़न का अतिक्रमण करते हुए वह फिर कहीं स्वावलम्बी न हो जाए, स्वच्छंद न हो जाए, सबल और दुर्लंघ्य न हो जाए !
और यदि ऐसा हो गया तो बहुत असुविधा होगी। क्योंकि शिक्षित लड़कियाँ ‘आधुनिक दासी’ होने के सर्वथा योग्य हैं। पति को मुग्ध और तुष्ट करने के लिए इनकी निरलस रूपचर्या, इनके द्वारा बनायी गईं सभा-समितियाँ, कला-संस्कृति, नारी आन्दोलन, यह सब कुछ, धर्म-शिक्षा के साथ बंगाली लड़कियों द्वारा कढ़ाई-बुनाई कर लिखी जाने वाली ‘सती का देवता पति’ का ही आधुनिकीकरण है।
जर्मन ग्रीयर की पुस्तक ‘फिमेल यूनाक’ में लड़कियों के ऊँची एड़ी वाले सैंडिल के अविष्कार के पीछे एक बहुत अच्छी बात कही गई है। पुरुष जब किसी लड़की पर आक्रमण करता है तब वह खुद को बचाने के लिए दौड़ती है। वह ज़्यादा तेज़ न दौड़ सके इसीलिए उनके पावों में ‘हाईहील’ यानी ऊँची एड़ी वाले सैंडिल की व्यवस्था की गई।
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मैं भारत घूमने गई थी। मैं कलकत्ता, दिल्ली, आगरा, जयपुर, शिमला, कश्मीर
घूमकर लौट आई-यह जानकर लोगों ने मुझसे सबसे पहला जो सवाल किया वह
था-‘‘साथ में कौन था ?’’ कश्मीर
का बर्फ़ आच्छादित गुलमर्ग, बनिहाल टनेल हिमालय की पहाड़ियों में रोप वे
चेयर कार की सवारी के शिकारे और हाउसबोटों के बारे में बताने के लिए मैं
बेचैन हो रही थी। लेकिन उनका वह एक सवाल था-साथ में कौन था ?
मैंने बताया-मैं अकेली थी।
अकेली ? अकेली एक लड़की बाहर घूमने जा सकती है ? कोई यक़ीन ही नहीं करता। इसके बाद फिर किसी ने मेरे शान्तिनिकेतन, दीघा के समुद्र, कन्याकुमारी के अद्भुत अनुभव के प्रति कोई जिज्ञासा नहीं दिखायी। जो बात उनके दिलो-दिमाग़ में घर कर गई थी, वह थी-साथ में कौन था ? मैंने एक बार कहा-साथ में अतसी, कृष्णकली और मल्लिका भी थीं।
और ?
और कोई नहीं।
कोई मर्द नहीं था ?
नहीं।
लोग हैरान होकर मुझे देखते रहे। बग़ैर मर्द के अकेली औरत का होना भी वैसा है, जैसा सात औरतों का साथ होना।
ऐसी स्थिति में यदि मेरी ही उम्र का कोई लड़का दार्जिलिंग, शिमला, कश्मीर से घूम आता तो उससे प्रभावित हो सभी कहते, अहा, क्या पवित्र मन है ! कितनी अच्छी रुचि है ! कैसा अगाध सौन्दर्य-बोध है क्या बात है !
मान लीजिए, मेरा मन चाह रहा हो कि मैं समुद्र स्नान का आनन्द लेना चाहूँ, सीताकुण्ड पहाड़ पर जाऊँ, बिहार के सालवन में जाऊँ, काप्तुई झील में स्पीड बोट लेकर सारा दिन घूमती रहूँ, पद्मा नदी में तैरती रहूँ, तो मुझे क्या करना होगा ? एक मर्द का जुगाड़ करना होगा !
बग़ैर पुरुष के लड़कियाँ दूर कहीं जा नहीं सकतीं, चाहे वे किसी उम्र की क्यों न हों ? बस में चढ़ने पर कण्डक्टर पूछता है, आपके साथ कोई आदमी नहीं है ? वे इस बात से निश्चित रहते हैं कि साथ में एक आदमी यानी मर्द ज़रूर ही होगा।
जगह-जगह परपुरुष के साथ रहने या न रहने के कारण स्त्रियों को परेशानी उठानी पड़ती है। साथ में यदि पुरुष रहे भी और वह पति या क़रीबी रिश्तेदार न हो तब भी परेशानी उठानी पड़ती है-कौन है वह आदमी ? उससे क्या रिश्ता है ? और अगर साथ में पुरुष नहीं है, तो क्यों नहीं है ? यह बहुत सोची-समझी चाल है कि लड़कियाँ पुरुषों के ऊपर निर्भर हैं। मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय पिता की कुछ कन्याएँ या पति की पत्नियाँ दो-चार रिश्तेदारों के घर और मार्केट में अकेली घूमकर समझती हैं कि उन्होंने ‘नारी स्वाधीनता’ हासिल कर ली है।
लेकिन इससे कुछ नहीं होता। लड़कियों के पैरों में पड़ी बेड़ियाँ बहुत मजबूत हैं। हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने पर कोई इन बेड़ियों को खोलकर नहीं कहेगा कि आ, इसमें से निकल आ ! तिलिस्मी कहानियों में ऐसे सदाशयी मिलते हैं, हक़ीक़त में नहीं।
लड़कियाँ अब बड़े शौक़ से पायल-पाजेब पहनती हैं। पर इस पायल के आविष्कार और लड़कियों के पहनने के पीछे एक उद्देश्य है। पायल पहनने से लड़कियों की गतिविधि यानी वे कहाँ जा रही हैं, क्या कर रही हैं इसकी आवाज़ सुनाई पड़ती रहती है और बेवकूफ लड़कियाँ उसी पायल को, जो उसे एक निश्चित दायरे में बाँधे रखता है, पहनकर फूली नहीं समातीं कि उनके पैरों की खूबसूरती काफ़ी बढ़ गयी है।
मैंने बताया-मैं अकेली थी।
अकेली ? अकेली एक लड़की बाहर घूमने जा सकती है ? कोई यक़ीन ही नहीं करता। इसके बाद फिर किसी ने मेरे शान्तिनिकेतन, दीघा के समुद्र, कन्याकुमारी के अद्भुत अनुभव के प्रति कोई जिज्ञासा नहीं दिखायी। जो बात उनके दिलो-दिमाग़ में घर कर गई थी, वह थी-साथ में कौन था ? मैंने एक बार कहा-साथ में अतसी, कृष्णकली और मल्लिका भी थीं।
और ?
और कोई नहीं।
कोई मर्द नहीं था ?
नहीं।
लोग हैरान होकर मुझे देखते रहे। बग़ैर मर्द के अकेली औरत का होना भी वैसा है, जैसा सात औरतों का साथ होना।
ऐसी स्थिति में यदि मेरी ही उम्र का कोई लड़का दार्जिलिंग, शिमला, कश्मीर से घूम आता तो उससे प्रभावित हो सभी कहते, अहा, क्या पवित्र मन है ! कितनी अच्छी रुचि है ! कैसा अगाध सौन्दर्य-बोध है क्या बात है !
मान लीजिए, मेरा मन चाह रहा हो कि मैं समुद्र स्नान का आनन्द लेना चाहूँ, सीताकुण्ड पहाड़ पर जाऊँ, बिहार के सालवन में जाऊँ, काप्तुई झील में स्पीड बोट लेकर सारा दिन घूमती रहूँ, पद्मा नदी में तैरती रहूँ, तो मुझे क्या करना होगा ? एक मर्द का जुगाड़ करना होगा !
बग़ैर पुरुष के लड़कियाँ दूर कहीं जा नहीं सकतीं, चाहे वे किसी उम्र की क्यों न हों ? बस में चढ़ने पर कण्डक्टर पूछता है, आपके साथ कोई आदमी नहीं है ? वे इस बात से निश्चित रहते हैं कि साथ में एक आदमी यानी मर्द ज़रूर ही होगा।
जगह-जगह परपुरुष के साथ रहने या न रहने के कारण स्त्रियों को परेशानी उठानी पड़ती है। साथ में यदि पुरुष रहे भी और वह पति या क़रीबी रिश्तेदार न हो तब भी परेशानी उठानी पड़ती है-कौन है वह आदमी ? उससे क्या रिश्ता है ? और अगर साथ में पुरुष नहीं है, तो क्यों नहीं है ? यह बहुत सोची-समझी चाल है कि लड़कियाँ पुरुषों के ऊपर निर्भर हैं। मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय पिता की कुछ कन्याएँ या पति की पत्नियाँ दो-चार रिश्तेदारों के घर और मार्केट में अकेली घूमकर समझती हैं कि उन्होंने ‘नारी स्वाधीनता’ हासिल कर ली है।
लेकिन इससे कुछ नहीं होता। लड़कियों के पैरों में पड़ी बेड़ियाँ बहुत मजबूत हैं। हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने पर कोई इन बेड़ियों को खोलकर नहीं कहेगा कि आ, इसमें से निकल आ ! तिलिस्मी कहानियों में ऐसे सदाशयी मिलते हैं, हक़ीक़त में नहीं।
लड़कियाँ अब बड़े शौक़ से पायल-पाजेब पहनती हैं। पर इस पायल के आविष्कार और लड़कियों के पहनने के पीछे एक उद्देश्य है। पायल पहनने से लड़कियों की गतिविधि यानी वे कहाँ जा रही हैं, क्या कर रही हैं इसकी आवाज़ सुनाई पड़ती रहती है और बेवकूफ लड़कियाँ उसी पायल को, जो उसे एक निश्चित दायरे में बाँधे रखता है, पहनकर फूली नहीं समातीं कि उनके पैरों की खूबसूरती काफ़ी बढ़ गयी है।
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हमारे देश के एक सुपरिचित कवि और मेरे पिता के हमउम्र ने मेरी कविताओं की
खूब प्रशंसा की लेकिन उन्होंने यह प्रशंसा सिर्फ़ मेरे ही सामने की। वे
लोगों के सामने कुछ नहीं कहते, अख़बारों में नहीं लिखते।
क्योंकि मैं चाहे कितनी ही अच्छी कविता क्यों न लिखूँ आख़िर एक लड़की ही
हूँ। किसी लड़की की प्रशंसा क्या खुलेआम करनी चाहिए ? इससे उनकी इज्ज़त
नहीं जायेगी !
इस देश के ‘चरित्र सजग’ बुद्धिजीवी गोपनीय ढंग से लड़कियों के साथ घूमना-फिरना पसन्द करते हैं। शहर के बड़े-बड़े रेस्तराँ में सबसे किनारे वाली टेबुल पर बैठकर ‘चाईनीज़’ खाते हुए गप्पें लड़ाना पसन्द करते हैं। क्योंकि उनके अन्दर तो घिनौना संस्कार नहीं है, उनका जीवन तरंगहीन तालाब नहीं, उत्ताल समुद्र है। वे जीवन के विचित्र आनन्द को अपने में समाहित करने में व्यस्त हैं। वे लड़कियों के कान में रह-रहकर फुसफुसाते रहते है, ‘तुमसे प्यार करता हूँ।’ लेकिन सबके सामने कहते हैं, ‘चुपचाप रहो।’ क्योंकि, ‘जात’ में आने यानी प्रतिष्ठित हो जाने के बाद लड़कियों को लेकर बातचीत करना शोभा नहीं देता।
मेरे एक उपन्यासकार दोस्त ने उस दिन कहा, ‘‘तुम्हारा कॉलम बहुत अच्छा जा रहा है।’’ मेरे धन्यवाद-ज्ञापन के बाद उसने गम्भीर लहज़े में जो बात कही उसके लिए मैं तैयार नहीं थी। उसने कहा, ‘‘सेलिना हुसैन के मुक़ाबले तुम्हारी शैली अच्छी है।’’
मैंने पूछा, ‘‘यह अचानक सेलिना हुसैन का प्रसंग क्यों आया ?’’
उसने कहा, ‘‘स्त्रियों में सेलिना हुसैन ही अच्छा लिखती है न, इसलिए।’’ स्त्रियों में’ शब्द का उपहार देकर मेरा दोस्त चला गया और मुझे समझा गया कि मैं चाहे जितना ही अच्छा क्यों न लिखूँ, उसकी परख ‘स्त्रियों के बीच’ ही होगी। क्योंकि स्त्रियाँ अलग हैं। राष्ट्रीय दैनिक में ‘बच्चों के पेज़’ की तरह ‘महिलाओं का पेज’ नाम से एक अलग खण्ड रहता है। ‘डाक साइट’ में काव्य समालोचक गण, मैं अच्छी कविता लिखती हूँ या नासिमा या सुहिता या विरोला अच्छी लिखती हैं, इस पर गम्भीर चर्चा करते हैं। लेकिन कभी फ़रीद अच्छा लिखता है या मैं, या फिर शहरयार अच्छा लिखता है या मैं-इस पर चर्चा नहीं होती। क्योंकि मैं तो एक स्त्री हूँ। मेरी तुलना तो स्त्रियों से ही होगी।
इस देश के एक जाने-माने उपन्यासकार और नाट्यकार प्रायः कहते हैं कि महिलाएँ उन्हें काफ़ी पत्र लिखती हैं क्योंकि वे उनके प्रेम में दीवानी हैं, हालाँकि वह उनमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते। एक बार तो वह लोगों के दरवाज़े-दरवाज़े जाकर कह आये कि एक लड़की ने अपने सीने के खून से उन्हें पत्र लिखा है। बाद में पता चला कि खून-फून कुछ नहीं, लाल रंग में डूबे नये वर्ष का एक कार्ड लेकर उन्होंने मनगढ़ंत कहानी बनायी थी। लड़कियों को लेकर इस तरह की बातें बनाकर ये लोग एक तरह का विकृत आनन्द लेते हैं।
मेरा एक दोस्त एक साप्ताहिक पत्रिका का सम्पादक है। एक दिन बहुत उद्वेग और कुछ असंतोष के साथ बोला, शाहबाग के मोड़ पर दो लड़के तुम्हारे बारे में अनाप-शनाप बक रहे थे। सुनते ही मैं ज़ोर से हँस पड़ी। मैंने हँसते-हँसते कहा-‘‘इसमें हैरान होने की क्या बात है ? क्या वे लोग अबुल कलाम के बारे में बातें करेंगे ?’’
‘अबुल कलाम’ नाम से हमारे सम्पादक बन्धु ने क्या समझा था, मुझे मालूम नहीं। लेकिन मैं कहना चाहती थी,‘अनाप-शनाप’ कहने से जो तात्पर्य है, वह अबुल कलाम या अब्दुर रहमान या शमसुल इसलाम के उपयुक्त नहीं होगा। इस मामले में लड़की होना ज़्यादा ठीक होता है।
जो महिलाएँ लिखती हैं, साधारण लोगों में ऐसी आम धारणा है कि ये जो भी लिखती हैं, यह उनके जीवन में घटी अवश्य ही कोई बड़ी दुर्घटना होगी। जीवन में कभी-कभी किसी दुर्घटना के घटने पर महिलाओं में कोई आत्महत्या कर लेती है, कोई वेश्याओं के मोहल्ले जाने लगती है इसी तरह कोई साहित्य रचना का आश्रय ले लेती है। एक लड़की जब लिखना शुरू करती है तब उसके लेखन से ज़्यादा उसके व्यक्तिगत मामलो में लोगों की रुचि होती है। प्रेमासक्त होने अथवा में प्रेम में असफल होने, पारिवारिक अशान्ति अथवा परिवार के प्रति निराशा वगैरह हुए बिना कोई लड़की बेमतलब साहित्य रचना क्यों करेगी, यह बात अनेक लोगों की समझ से परे है। साहित्य तो बहुत दूर की बात है, पढ़ाई-लिखाई जैसी चीज़ तो लड़कियों के लिए है ही नहीं। लड़कियों को कुरान की तालीम दी जाती थी पति की हिफ़ाजत के लिए, ताकि वह दवा-दारु का नाम पढ़ सके। इसके बाद थोड़ा-बहुत आक्षरिक ज्ञान दिया गया, ताकि वह तकिये के गिलाफ़ पर ‘मुझे मत भूलना’ जैसी कढ़ाई कर सके और प्रवास में रहने वाले पति को ग़लत हिज्जे से ख़त लिख सके। इस समय लड़कियों की शिक्षा तो अधिकांशतः बच्चों को पढ़ाने-लिखाने और पालन-पोषण करने के लिए है। इसके अलावा आजकल के (स्मार्ट) पतिगण घर में शिक्षित पत्नी को लेकर एक तरह का गर्व अनुभव करते हैं। मानो इसका श्रेय उन्हीं को जाता है। इसके अलावा शिक्षित लड़कियों की सेवा लेने का मज़ा ही कुछ और है। तो फिर ये युवतियाँ साहित्य लेखन क्यों करेंगी ? ज़्यादा-से-ज़्यादा शादी-ब्याह और दहेज की कुछ समस्याओं को लेकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के महिला स्तम्भ में लिखकर पेज भर सकती हैं। इससे ज़्यादा कुछ चाहने पर यानी पुरुषों के साथ गद्य-पद्य, भाषा-साहित्य, पाण्डित्य में यदि महिलाओं के साथ उनकी तुलना की जायेगी तो पुरुषों को शर्म नहीं आयेगी ?
छिः !
इस देश के ‘चरित्र सजग’ बुद्धिजीवी गोपनीय ढंग से लड़कियों के साथ घूमना-फिरना पसन्द करते हैं। शहर के बड़े-बड़े रेस्तराँ में सबसे किनारे वाली टेबुल पर बैठकर ‘चाईनीज़’ खाते हुए गप्पें लड़ाना पसन्द करते हैं। क्योंकि उनके अन्दर तो घिनौना संस्कार नहीं है, उनका जीवन तरंगहीन तालाब नहीं, उत्ताल समुद्र है। वे जीवन के विचित्र आनन्द को अपने में समाहित करने में व्यस्त हैं। वे लड़कियों के कान में रह-रहकर फुसफुसाते रहते है, ‘तुमसे प्यार करता हूँ।’ लेकिन सबके सामने कहते हैं, ‘चुपचाप रहो।’ क्योंकि, ‘जात’ में आने यानी प्रतिष्ठित हो जाने के बाद लड़कियों को लेकर बातचीत करना शोभा नहीं देता।
मेरे एक उपन्यासकार दोस्त ने उस दिन कहा, ‘‘तुम्हारा कॉलम बहुत अच्छा जा रहा है।’’ मेरे धन्यवाद-ज्ञापन के बाद उसने गम्भीर लहज़े में जो बात कही उसके लिए मैं तैयार नहीं थी। उसने कहा, ‘‘सेलिना हुसैन के मुक़ाबले तुम्हारी शैली अच्छी है।’’
मैंने पूछा, ‘‘यह अचानक सेलिना हुसैन का प्रसंग क्यों आया ?’’
उसने कहा, ‘‘स्त्रियों में सेलिना हुसैन ही अच्छा लिखती है न, इसलिए।’’ स्त्रियों में’ शब्द का उपहार देकर मेरा दोस्त चला गया और मुझे समझा गया कि मैं चाहे जितना ही अच्छा क्यों न लिखूँ, उसकी परख ‘स्त्रियों के बीच’ ही होगी। क्योंकि स्त्रियाँ अलग हैं। राष्ट्रीय दैनिक में ‘बच्चों के पेज़’ की तरह ‘महिलाओं का पेज’ नाम से एक अलग खण्ड रहता है। ‘डाक साइट’ में काव्य समालोचक गण, मैं अच्छी कविता लिखती हूँ या नासिमा या सुहिता या विरोला अच्छी लिखती हैं, इस पर गम्भीर चर्चा करते हैं। लेकिन कभी फ़रीद अच्छा लिखता है या मैं, या फिर शहरयार अच्छा लिखता है या मैं-इस पर चर्चा नहीं होती। क्योंकि मैं तो एक स्त्री हूँ। मेरी तुलना तो स्त्रियों से ही होगी।
इस देश के एक जाने-माने उपन्यासकार और नाट्यकार प्रायः कहते हैं कि महिलाएँ उन्हें काफ़ी पत्र लिखती हैं क्योंकि वे उनके प्रेम में दीवानी हैं, हालाँकि वह उनमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते। एक बार तो वह लोगों के दरवाज़े-दरवाज़े जाकर कह आये कि एक लड़की ने अपने सीने के खून से उन्हें पत्र लिखा है। बाद में पता चला कि खून-फून कुछ नहीं, लाल रंग में डूबे नये वर्ष का एक कार्ड लेकर उन्होंने मनगढ़ंत कहानी बनायी थी। लड़कियों को लेकर इस तरह की बातें बनाकर ये लोग एक तरह का विकृत आनन्द लेते हैं।
मेरा एक दोस्त एक साप्ताहिक पत्रिका का सम्पादक है। एक दिन बहुत उद्वेग और कुछ असंतोष के साथ बोला, शाहबाग के मोड़ पर दो लड़के तुम्हारे बारे में अनाप-शनाप बक रहे थे। सुनते ही मैं ज़ोर से हँस पड़ी। मैंने हँसते-हँसते कहा-‘‘इसमें हैरान होने की क्या बात है ? क्या वे लोग अबुल कलाम के बारे में बातें करेंगे ?’’
‘अबुल कलाम’ नाम से हमारे सम्पादक बन्धु ने क्या समझा था, मुझे मालूम नहीं। लेकिन मैं कहना चाहती थी,‘अनाप-शनाप’ कहने से जो तात्पर्य है, वह अबुल कलाम या अब्दुर रहमान या शमसुल इसलाम के उपयुक्त नहीं होगा। इस मामले में लड़की होना ज़्यादा ठीक होता है।
जो महिलाएँ लिखती हैं, साधारण लोगों में ऐसी आम धारणा है कि ये जो भी लिखती हैं, यह उनके जीवन में घटी अवश्य ही कोई बड़ी दुर्घटना होगी। जीवन में कभी-कभी किसी दुर्घटना के घटने पर महिलाओं में कोई आत्महत्या कर लेती है, कोई वेश्याओं के मोहल्ले जाने लगती है इसी तरह कोई साहित्य रचना का आश्रय ले लेती है। एक लड़की जब लिखना शुरू करती है तब उसके लेखन से ज़्यादा उसके व्यक्तिगत मामलो में लोगों की रुचि होती है। प्रेमासक्त होने अथवा में प्रेम में असफल होने, पारिवारिक अशान्ति अथवा परिवार के प्रति निराशा वगैरह हुए बिना कोई लड़की बेमतलब साहित्य रचना क्यों करेगी, यह बात अनेक लोगों की समझ से परे है। साहित्य तो बहुत दूर की बात है, पढ़ाई-लिखाई जैसी चीज़ तो लड़कियों के लिए है ही नहीं। लड़कियों को कुरान की तालीम दी जाती थी पति की हिफ़ाजत के लिए, ताकि वह दवा-दारु का नाम पढ़ सके। इसके बाद थोड़ा-बहुत आक्षरिक ज्ञान दिया गया, ताकि वह तकिये के गिलाफ़ पर ‘मुझे मत भूलना’ जैसी कढ़ाई कर सके और प्रवास में रहने वाले पति को ग़लत हिज्जे से ख़त लिख सके। इस समय लड़कियों की शिक्षा तो अधिकांशतः बच्चों को पढ़ाने-लिखाने और पालन-पोषण करने के लिए है। इसके अलावा आजकल के (स्मार्ट) पतिगण घर में शिक्षित पत्नी को लेकर एक तरह का गर्व अनुभव करते हैं। मानो इसका श्रेय उन्हीं को जाता है। इसके अलावा शिक्षित लड़कियों की सेवा लेने का मज़ा ही कुछ और है। तो फिर ये युवतियाँ साहित्य लेखन क्यों करेंगी ? ज़्यादा-से-ज़्यादा शादी-ब्याह और दहेज की कुछ समस्याओं को लेकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के महिला स्तम्भ में लिखकर पेज भर सकती हैं। इससे ज़्यादा कुछ चाहने पर यानी पुरुषों के साथ गद्य-पद्य, भाषा-साहित्य, पाण्डित्य में यदि महिलाओं के साथ उनकी तुलना की जायेगी तो पुरुषों को शर्म नहीं आयेगी ?
छिः !
5
बचपन में मैं जब भी किसी पेड़ के नीचे से आती-जाती थी,
‘गेछोभूत’ (पेड़ पर रहनेवाले भूत) के डर से सारा शरीर
सिहर जाया करता था। अब सुनती हूँ कि ‘गेछो लड़की’
(पेड़ पर चढ़नेवाली लड़की) के डर से पुरुषों की देह सिहर जाती है। अगर बात
लड़के की हो तो पेड़ पर चढ़ना डर की कोई बात नहीं, लेकिन किसी लड़की के
मामले में ऐसा हो तो घोर आपत्ति होती है। प्रकृति-पुरुष और नारी को अलग से
नहीं देखती, देखता है समाज। जब पेड़ पर एक अमरूद पकता है तो उसे सबसे पहले
पाने की लालसा लड़कों से लड़कियों में कुछ कम नहीं होती। लेकिन लड़की अपनी
इच्छा को दमित करती है ताकि उसे ‘गेछो लड़की’ की
उपाधि न मिले। क्योंकि अगर ऐसा होता है तो घर-बाहर कहीं भी उसका सम्मान
नहीं रहता। सम्मान यदि कमल का पत्ता है, तो लड़की उस पर पड़ी जल की एक
बूँद है। सम्मान हिला-डुला नहीं कि लड़की ओझल। इसी सम्मान के ही सहारे
लड़कियाँ जीवित रहती हैं।
मेरी किशोरावस्था में फल के एक पेड़ पर चढ़ने से माँ ने मुझे रोका था, कहा था, ‘‘लड़कियों के पेड़ पर चढ़ने से पेड़ मर जाते हैं।’’ बड़ी हुई और जब वनस्पति विज्ञान की पढ़ाई की तो ऐसा कुछ भी नहीं मिला कि नारी के स्पर्श से वृक्षों के जीने-मरने का कोई सम्बन्ध है।
‘गेछो’ (पेड़ वाली) कहने से एक तरह के अल्हड़पन का एहसास होता है जो लड़कियों के लिए उचित नहीं है। लड़कियाँ शर्मीली, परावलम्बित, डरपोक, दुविधा ग्रस्त, अल्पभाषी, मृदुभाषी न हों तो समाज उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखता। किसी भी पुरुष के चरित्र में उपर्युक्त दोष मिलने पर उसे ‘मौगड़ा’ का विशेषण दिया जाता है। दूसरी तरफ यदि किसी लड़की में दुस्साहस घमण्ड, क्रोध, चंचलता, आत्मनिर्भरता कुंठाहीन खुलापन आदि गुण हों तो उसे ‘मर्दानी’ दोष का विशेषण दिया जाता है। लेकिन ज़नाना और मर्दाना खूबी किसी के शारीरिक गठन या चरित्र के साथ जुड़ी हुई नहीं है। अगर किसी ने अपनी जिज्ञासा को दबा रखना, नज़रें नीची कर आसनी में रखना, ज़्यादा हाथ-पाँव न फैलाना और जुबान का न चलाना सीख लिया है, तो वह अवश्य ही अपनी शारीरिक विशेषताओं के साथ अत्याचार कर रहा है क्योंकि शारीरिक तौर पर नहीं, समाज द्वारा निर्धारित ‘औरताना स्वभाव’ उसे अपने शरीर में आरोपित करना पड़ता है। वरना उसके सम्मान को ठेस पहुँचती है।
हिन्दू नारियों के लिए ‘सतीतत्व रक्षा’ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मामला है। क्योंकि किसी एक के प्रति एकाग्रता सिर्फ़ नारी के लिए ही निर्धारित है, पुरुष के लिए नहीं। परपुरुष-संगम से, पतिव्रता-धर्म का नाश होने पर सतीत्व का नाश होता है। सामाजिक बाध्यताओं का अतिक्रमण करने पर नारी को ‘पतिता’ होना पड़ता है, हाँ, पुरुष यदि स्वेच्छाचारी हो तो उसे ‘पतित’ नहीं होना पड़ता। एक पुरुष चाहे कितना ही बहुगामी क्यों न हो, शादी करते समय कुमारी कन्या को छोड़ नैव-नैव च’। मैं ऐसे कई शिक्षित पुरुषों को जानती हूँ जिन्होंने पत्नी के साथ सहवास के समय सफ़ेद चादर सिर्फ़ इसलिए बिछायी थी कि इससे उसके कौमार्य की परीक्षा होगी। चादर में खून का धब्बा न पाकर उन्होंने पत्नी के चरित्र को लेकर सवाल उठाया था। स्त्री के योनिमुख पर एक पतली झिल्ली रहती है। यूनानियों के विवाह देवता ‘हाइमेन’ के नाम पर इस आवरण या झिल्ली का नाम हाइमेन (सतिच्छद) रखा गया है। प्रसिद्ध स्त्री रोग विशेषज्ञ सर नरमैन जेफकट ने कहा है, ‘‘प्रथम सहवास में ‘हाइमेन’ फट जाता है। फलस्वरूप थोड़ा रक्तस्राव हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। इस हाइमेन के फटे बिना भी संभोग सम्भव है। इसलिए कौमार्य प्रमाणित करने का यही एक चिन्ह है, यह विश्वास योग्य नहीं।’’
‘सत्’ और ‘सतता’ के साथ ‘सती’ शब्द का थोड़ा भी सम्बन्ध रहा है तो मैं समझती हूँ कि एक लड़की दस पुरुषों के साथ यौन सम्पर्क रखने के बावजूद ‘सती’ रह सकती है और एक लड़की एक पुरुष के साथ सम्पर्क रखकर भी ‘असती’ हो सकती है।
‘नष्ट’ (भ्रष्ट या ख़राब) शब्द पुरुषों के लिए नहीं, स्त्रियों के लिए प्रयोग होता है। अण्डा नष्ट होता है, दूध नष्ट होता है, नारियल नष्ट होता है और लड़की भी नष्ट होती है। किसी भी चीज़ की तरह हमारा समाज किसी लड़की को ‘नष्ट’ कहकर चिह्नित कर सकता है। इस देश की शिक्षित सुरुचि सम्पन्न महिलाएँ ऐसी ‘नष्ट लड़कियों’ से अपने आपको अलग रखने के मामले में बहुत सतर्क रहती हैं। दरअसल अलग रहने की चाह सरासर बेवकूफ़ी है। जहाँ किसी-न-किसी तरह भी स्त्रियाँ प्रताड़ित हैं, वहाँ श्रेणी विभाजन का सवाल ही नहीं उठता। यह नष्ट समाज ताक में बैठ हुआ है कि कैसे मौक़ा मिले और वह लड़कियों को ‘नष्ट’ उपाधि दे दे। समाज की बर्बादी इतनी दूर तक फैली है कि लड़कियाँ चाह कर भी उसके पंजे से बच नहीं सकतीं।
पिछले 20 अक्टूबर, 1989 को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ केन्द्र’ में किताब का आवरण और साज-सज्जा’ विषय पर एक सेमिनार हुआ था जिसमें प्रो. मुस्तका नूरुल इस्लाम ने क्षोभ व्यक्त किया कि प्रकाशक किताब को ‘माल’ कहते हैं। यह अवश्य ही एक अनुचित फ़तवा है। मैं यह सोचकर हैरान हुई कि तब कितना अनुचित होगा, जब एक आदमी दूसरे आदमी को ‘माल’ कहता है ? ‘माल’ एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है बिकने वाली चीज़। मुस्लिम हदीस शरीफ़ में लिखा गया है-दुनिया में सब कुछ भोग्य सामग्री है और दुनिया की सर्वोत्तम सामग्री है ‘स्त्री।’ विनिमेय वस्तु के वतौर, मूल्यवान दासी के रूप में, कीमती सामग्री के रूप में समाज में नारी का स्थान है। इसीलिए नारी को ‘माल’ कहकर सम्बोधित करने में कोई हिचक नहीं है। लोग ऐसा कहते हैं, इसलिए चूँकि धर्म उकसाता है, समाज और राष्ट्र इन्हें प्रश्रय दे रहे हैं।
मेरी किशोरावस्था में फल के एक पेड़ पर चढ़ने से माँ ने मुझे रोका था, कहा था, ‘‘लड़कियों के पेड़ पर चढ़ने से पेड़ मर जाते हैं।’’ बड़ी हुई और जब वनस्पति विज्ञान की पढ़ाई की तो ऐसा कुछ भी नहीं मिला कि नारी के स्पर्श से वृक्षों के जीने-मरने का कोई सम्बन्ध है।
‘गेछो’ (पेड़ वाली) कहने से एक तरह के अल्हड़पन का एहसास होता है जो लड़कियों के लिए उचित नहीं है। लड़कियाँ शर्मीली, परावलम्बित, डरपोक, दुविधा ग्रस्त, अल्पभाषी, मृदुभाषी न हों तो समाज उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखता। किसी भी पुरुष के चरित्र में उपर्युक्त दोष मिलने पर उसे ‘मौगड़ा’ का विशेषण दिया जाता है। दूसरी तरफ यदि किसी लड़की में दुस्साहस घमण्ड, क्रोध, चंचलता, आत्मनिर्भरता कुंठाहीन खुलापन आदि गुण हों तो उसे ‘मर्दानी’ दोष का विशेषण दिया जाता है। लेकिन ज़नाना और मर्दाना खूबी किसी के शारीरिक गठन या चरित्र के साथ जुड़ी हुई नहीं है। अगर किसी ने अपनी जिज्ञासा को दबा रखना, नज़रें नीची कर आसनी में रखना, ज़्यादा हाथ-पाँव न फैलाना और जुबान का न चलाना सीख लिया है, तो वह अवश्य ही अपनी शारीरिक विशेषताओं के साथ अत्याचार कर रहा है क्योंकि शारीरिक तौर पर नहीं, समाज द्वारा निर्धारित ‘औरताना स्वभाव’ उसे अपने शरीर में आरोपित करना पड़ता है। वरना उसके सम्मान को ठेस पहुँचती है।
हिन्दू नारियों के लिए ‘सतीतत्व रक्षा’ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मामला है। क्योंकि किसी एक के प्रति एकाग्रता सिर्फ़ नारी के लिए ही निर्धारित है, पुरुष के लिए नहीं। परपुरुष-संगम से, पतिव्रता-धर्म का नाश होने पर सतीत्व का नाश होता है। सामाजिक बाध्यताओं का अतिक्रमण करने पर नारी को ‘पतिता’ होना पड़ता है, हाँ, पुरुष यदि स्वेच्छाचारी हो तो उसे ‘पतित’ नहीं होना पड़ता। एक पुरुष चाहे कितना ही बहुगामी क्यों न हो, शादी करते समय कुमारी कन्या को छोड़ नैव-नैव च’। मैं ऐसे कई शिक्षित पुरुषों को जानती हूँ जिन्होंने पत्नी के साथ सहवास के समय सफ़ेद चादर सिर्फ़ इसलिए बिछायी थी कि इससे उसके कौमार्य की परीक्षा होगी। चादर में खून का धब्बा न पाकर उन्होंने पत्नी के चरित्र को लेकर सवाल उठाया था। स्त्री के योनिमुख पर एक पतली झिल्ली रहती है। यूनानियों के विवाह देवता ‘हाइमेन’ के नाम पर इस आवरण या झिल्ली का नाम हाइमेन (सतिच्छद) रखा गया है। प्रसिद्ध स्त्री रोग विशेषज्ञ सर नरमैन जेफकट ने कहा है, ‘‘प्रथम सहवास में ‘हाइमेन’ फट जाता है। फलस्वरूप थोड़ा रक्तस्राव हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। इस हाइमेन के फटे बिना भी संभोग सम्भव है। इसलिए कौमार्य प्रमाणित करने का यही एक चिन्ह है, यह विश्वास योग्य नहीं।’’
‘सत्’ और ‘सतता’ के साथ ‘सती’ शब्द का थोड़ा भी सम्बन्ध रहा है तो मैं समझती हूँ कि एक लड़की दस पुरुषों के साथ यौन सम्पर्क रखने के बावजूद ‘सती’ रह सकती है और एक लड़की एक पुरुष के साथ सम्पर्क रखकर भी ‘असती’ हो सकती है।
‘नष्ट’ (भ्रष्ट या ख़राब) शब्द पुरुषों के लिए नहीं, स्त्रियों के लिए प्रयोग होता है। अण्डा नष्ट होता है, दूध नष्ट होता है, नारियल नष्ट होता है और लड़की भी नष्ट होती है। किसी भी चीज़ की तरह हमारा समाज किसी लड़की को ‘नष्ट’ कहकर चिह्नित कर सकता है। इस देश की शिक्षित सुरुचि सम्पन्न महिलाएँ ऐसी ‘नष्ट लड़कियों’ से अपने आपको अलग रखने के मामले में बहुत सतर्क रहती हैं। दरअसल अलग रहने की चाह सरासर बेवकूफ़ी है। जहाँ किसी-न-किसी तरह भी स्त्रियाँ प्रताड़ित हैं, वहाँ श्रेणी विभाजन का सवाल ही नहीं उठता। यह नष्ट समाज ताक में बैठ हुआ है कि कैसे मौक़ा मिले और वह लड़कियों को ‘नष्ट’ उपाधि दे दे। समाज की बर्बादी इतनी दूर तक फैली है कि लड़कियाँ चाह कर भी उसके पंजे से बच नहीं सकतीं।
पिछले 20 अक्टूबर, 1989 को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ केन्द्र’ में किताब का आवरण और साज-सज्जा’ विषय पर एक सेमिनार हुआ था जिसमें प्रो. मुस्तका नूरुल इस्लाम ने क्षोभ व्यक्त किया कि प्रकाशक किताब को ‘माल’ कहते हैं। यह अवश्य ही एक अनुचित फ़तवा है। मैं यह सोचकर हैरान हुई कि तब कितना अनुचित होगा, जब एक आदमी दूसरे आदमी को ‘माल’ कहता है ? ‘माल’ एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है बिकने वाली चीज़। मुस्लिम हदीस शरीफ़ में लिखा गया है-दुनिया में सब कुछ भोग्य सामग्री है और दुनिया की सर्वोत्तम सामग्री है ‘स्त्री।’ विनिमेय वस्तु के वतौर, मूल्यवान दासी के रूप में, कीमती सामग्री के रूप में समाज में नारी का स्थान है। इसीलिए नारी को ‘माल’ कहकर सम्बोधित करने में कोई हिचक नहीं है। लोग ऐसा कहते हैं, इसलिए चूँकि धर्म उकसाता है, समाज और राष्ट्र इन्हें प्रश्रय दे रहे हैं।
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