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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


सुरंजन अट्टहास कर उठा, उसकी हँसी से सारा घर काँप उठा। बोला, 'एक बूंद भी नहीं। कष्ट क्यों होगा?'

पुलक थोड़ा चिन्तित हुआ। कहा, 'दरअसल उधर मेरे काफी रिश्तेदार हैं न इसलिए मुझे उनकी फिक्र है।'

'मुसलमान का काम मुसलमान कर रहे हैं, घरों में आग लगायी, लेकिन मुसलमानों का घर जलाना क्या हिन्दुओं को शोभा देता है? पुलक, तुम्हें मैं किसी भी तरह की सान्त्वना नहीं दे पा रहा हूँ। आई एम सॉरी, पुलक!'

पुलक ने अंदर से दो हजार रुपये लाकर सुरंजन को दिये। रुपये जेब में रखकर सुरंजन ने पूछा, 'अलक का क्या हालचाल है, उसे खेल में शामिल किया है पड़ोसियों ने?'

'नहीं, दिन भर वह घर में दुखी होकर बैठा रहता है। कहने को कुछ नहीं है। वह खिड़की से देख रहा है, उसके दोस्त मैदान में खेल रहे हैं। वह अकेला घर में छटपटा रहा है।'

'सुनो पुलक, जिन्हें हम असाम्प्रदायिक समझते हैं, अपना समझते हैं, दोस्त मानते हैं, वे लोग वास्तव में अन्दर-ही-अन्दर साम्प्रदायिक हैं। इस देश के मुसलमानों के साथ इस तरह से उठता-बैठता रहा हूँ हम लोग बेमतलब ही 'अस्सलामवालेकुम' कहते हैं, 'खुदा हाफ़िज़' कहते हैं, 'जल' को 'पानी' कहते हैं, 'स्नान' को 'गोसल' कहते हैं। जिनके रमजान के महीने में हम लोग बाहर चाय-सिगरेट तक नहीं पीते, यहाँ तक कि जरूरत पड़ने पर भी होटल-रेस्तराँ में दिन में खा नहीं सकते, फिर भी असलियत में वे हमारे कहाँ तक हैं? आखिर किसके लिए है हमारा यह त्याग, कहो? पूजा में हमें कितने दिनों की छुट्टी मिलती है? और उधर दोनों ईद में सरकारी अस्पतालों में हिन्दुओं से गर्दन पकड़कर काम कराया जाता है। आठवाँ संशोधन होने पर अवामी लीग कुछ दिनों तक चिल्लाई, बस। हसीना खुद ही तो अब पल्लू से सिर ढंकती है। हज करके आने के बाद तो बाल न दिखाई दें, ऐसा चूंघट किया था। सबका चरित्र एक है पुलक, सबका। अब हम सबको या तो आत्महत्या करनी होगी या फिर देश छोड़ना होगा।'

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