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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


नहीं!' मानो एक प्रश्न की प्रतीक्षा में ही वह खड़ी थी। मानो सुरंजन के मुँह से निकले किसी भी शब्द को लेकर वह दो-चार बातें कह सकती है। इस तरह जल्दी से जवाब देकर वह बिस्तर पर जा बैठी। लड़के के दायरे के अन्दर! सुरंजन ने अनुमान लगाया कि इतना नजदीक बैठने का कारण दरअसल असुरक्षा की बेचैनी ही है। वह किरणमयी की न सो पायी आँखों, अस्त-व्यस्त बाल व मलिन साड़ी से अपनी नजरें हटा लेता है। जरा झुककर प्याला उठाकर चुस्की लेता है-'वह क्यों नहीं लौट रही है? मुसलमान लोग उसकी रक्षा कर रहे हैं? उसे हम पर विश्वास नहीं? एक बार पूछा तक नहीं कि हम लोग यहाँ कैसे हैं? केवल उसके जीने भर से काम चल जायेगा?'

किरणमयी चुप रहती है। सुरंजन चाय के साथ-साथ एक सिगरेट सुलगाता है। माँ-बाप के सामने उसने कभी सिगरेट नहीं पी। लेकिन आज उसने ‘फस' से माचिस जलायी। कश लेकर मुँह भर धुआँ भी छोड़ा। उसे याद भी नहीं रहा कि वह किरणमयी के सामने सिगरेट नहीं पीता है। मानो अन्य दिनों की तरह यह सामान्य दिन नहीं है। इतने दिनों तक माँ-बेटे की जो दूरी थी, वह समाप्त हो गयी। जो सूक्ष्म दीवार थी, वह टूटी जा रही है। कितने दिन हो गये, उसने अपना स्नेहातुर हाथ किरणमयी की गोद में नहीं रखा। क्या बेटा बड़ा होते ही माँ के स्पर्श से इस तरह दूर होता जाता है! सुरंजन की इच्छा हो रही थी कि वह अबोध बालक की तरह माँ की गोद में सिर रखकर बचपन में पतंग उड़ाने की बात करे। उसके मामा जो सिलहट से आते थे, नवीन नाम था उनका, वे अपने ही हाथों से पतंग बनाते थे, और काफी अच्छा उड़ाते भी थे। आसमान में दूसरी पतंगों को काटकर उनकी पतंग अकेले ही समूचे आकाश में विचरण करती रहती।

सुरंजन ने माँ की गोद को तृष्णातुर नजरों से देखा। सिगरेट का अन्तिम कश लेकर पूछा, 'क्या कल कमाल, बेलाल या कोई और आया था?'

किरणमयी ने शांत स्वर में कहा, 'नहीं।'

कमाल एक बार पूछने भी नहीं आया। उसने हैरान होकर सोचा, क्या दोस्तों ने सोच लिया कि सुरंजन मर गया होगा, या फिर वह जिन्दा रहे, वे नहीं चाहते?

किरणमयी ने धीरे से बुझी हुई आवाज में पूछा, 'कल तुम कहाँ गये थे? और तुम तो चले गये, तुम्हारे पीछे अगर कुछ हो जाता तो? बगल का गौतम दोपहर में अंडे खरीदने के लिए दुकान गया था। रास्ते में मुसलमान लड़कों ने उसे पीटा। सामने के दो दाँत टूट गये हैं। सुनने में आया कि पैरों की हड्डियाँ भी टूट गयी हैं।'

'अच्छा!'

'तुम्हें याद है, दो साल पहले शनि अखाड़ा से गीता की माँ आती थी, उसका घर-द्वार कुछ नहीं था। सब कुछ जला दिया था। गीता की माँ हमारे घर का काम छोड़कर इसलिए चली गयी कि अपनी जमीन पर मकान बनाएगी। घर बनाया भी था काम करके दो-चार पैसे जोड़-जोड़कर। वह सुबह आयी थी। लड़के-बच्चे लेकर मारे-मारे फिर रही है। इस बार भी उसने जो नया घर बनाया था, जलाकर राख कर दिया गया है। जमीन पर कुछ भी नहीं है। आज सुबह आकर पूछ रही थी-भाभी, किसी दुकान में जहर मिलेगा? शायद पागल हो गई है।'

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