जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
किरणमयी की रुलाई रुक गयी थी। वह एक राधाकृष्ण की तस्वीर के सामने झुकी हुई थी, इससे पहले सुरंजन ने घर में गणेश की एक मूर्ति देखी थी, शायद मुसलमानों ने उसे तोड़ दिया है। किरणमयी ने शायद राधाकृष्ण की इस तस्वीर को कहीं छिपा कर रखा था। भगवान कृष्ण से वह सुरक्षा, निश्चिन्तता, निश्चयता, शांतिपूर्ण जीवन के लिए प्रार्थना कर रही है।
निराशा के अथाह जल में सुरंजन अकेला तैरता रहता है। रात हो जाती है। रात गहराती है। वह बड़ा अकेला महसूस करता है। कोई नहीं है, कोई मददगार नहीं है उसका। अपना ही देश अपने को प्रवास लगता है। वह अपने तर्क, बुद्धि, विवेक सहित अपने में सिमटता जाता है। उसका उदार, सहिष्णु, तर्कवादी मन, हड़ताल, कयूं और आतंक के देश में क्रमशः संकुचित होता जाता है। वह रिक्त होता जाता है। अपने बंद दरवाजा-खिड़की वाले कमरे में उसे साँस लेने के लिए शुद्ध हवा नहीं मिल पाती। मानो वे सभी एक भयावह मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब और माया के लिए नहीं, अपने भविष्य की आशंका से सबका हृदय काँप उठता है। वे अकेले पड़ते जा रहे हैं। जान-पहचान के लोग, मुसलमान दोस्त और पड़ोसी देखने आ रहे हैं। लेकिन कोई कह नहीं पा रहा है, हमारे जीवन की जैसे एक निश्चयता है, वैसी ही आपकी भी है। आप लोग कुंठित मत होइए। सिकुड़े-सिमटे मत रहिए। आप लोग निर्भय होकर चलिए, निर्विघ्न अपना काम कीजिए, दिल खोल कर हँसिए, निश्चिन्त होकर सोइए।
रात भर एक भयंकर अस्थिरता सुरंजन को नोच खाती है।
रात के आखिरी पहर में सुरंजन को नींद आती है। नींद में वह एक अद्भुत स्वप्न देखता है। अकेला एक नदी के तट से होकर वह चला जा रहा है। चलते-चलते वह देखता है, नदी की एक उन्मत्त लहर उसे खींचकर गहराई में ले जाती है, वह भँवर में फँस गया है, भीतर धंसता जा रहा है। वह बचना चाह रहा है लेकिन कोई नहीं है जो उसके असहाय हाथ को पकड़कर उसे तट की ओर खींच ले। वह पसीना-पसीना हो जाता है। वह फुफकारते हुए अनजाने पानी में धंसता चला जाता है। ऐसे समय में एक शांत, स्निग्ध हाथ उसे स्पर्श करते हुए जगाता है! सुरंजन चौंक उठता है। डर से उसका चेहरा विवर्ण हो जाता है। भँवर का पानी उसे डुबोये जा रहा था, वह जी-जान से चिल्ला रहा था, एक तिनके के सहारे के लिए हाथ बढ़ा रहा था। स्वप्न में मानो उसे बचाने के लिए एक हाथ आगे आया। सुरंजन तुरंत सुधामय के मजबूत हाथ को जकड़ लेता है।
किरणमयी के कंधे का सहारा लिए हुए वे चलकर आये हैं। उनके शरीर में थोड़ी-थोड़ी ताकत आ रही है। वे सुरंजन के सिरहाने बैठते हैं। उनकी आँखों में दूर नक्षत्र की ज्योति है।
'पिता जी?'
एक गूंगी जिज्ञासा सुरंजन के भीतर धक्-धक् करती है। तब सुबह हो रही थी। खिड़की की दरार से एक टुकड़ा रोशनी अंदर आ रही है। सुधामय ने कहा, 'चलो, हमलोग चलते हैं।
सुरंजन विस्मित होता है। पूछता है, 'कहाँ पिताजी?'
सुधामय ने कहा, 'इंडिया!'
सुधामय को कहने में लज्जा होती है, उनका स्वर काँपता है, फिर भी वे चले जाने की बात कहते हैं; क्योंकि उनके भीतर का वह कठोर पहाड़ भी दिन-ब-दिन धंसता जा रहा है।
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