जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
असीत रंजन ने धीमी आवाज में कहा, 'कलकत्ता में। मैंने तो खरीदा है।'
सुधामय ने ऊँची आवाज में कहा, 'तुम कमाओगे यहाँ और खर्च करोगे उस देश में? तुम्हें तो देशद्रोही कहा जा सकता है।'
असीत रंजन सुधामय की बातें सुनकर हैरान हो जाते थे। वे सोचते थे, किसी हिन्दू को उन्होंने ऐसा कहते नहीं सुना। बल्कि उन्हीं की तरह वे लोग भी रुपया-पैसा यहाँ खर्च न कर जमा रखने के पक्ष में हैं। क्योंकि कब क्या होगा, कौन कह सकता है! यहाँ जमकर बैठेंगे और कब कौन आकर जड़ से उखाड़ फेंकेगा!
सुधामय कभी-कभी सोचते हैं कि क्यों वे मयमनसिंह छोड़कर चले आये। अपने घर के स्नेह ने क्यों नहीं उन्हें आतुर किया? माया को लेकर समस्या हुई थी, वह तो हो ही सकती है। अपहरण के मामले में हिन्दू-मुसलमान दोनों सम्प्रदायों के लोग भुगत सकते हैं। क्या सुधामय अपने घर में सुरक्षा का अभाव महसूस करते थे? वे अपने आप से ही सवाल कर रहे थे। तांतीवाजार के उस छोटे-से मकान में लेटे-लेटे सुधामय सोचते रहते क्यों वे अपना मकान छोड़कर इस अनजान इलाके में आकर रहने लगे क्या वे अपने आपको इस तरह छिपा रहे थे? क्यों अपनी जमीन-जायदाद रहने के बावजूद खुद को शरणार्थी जैसा लगता था? या फिर शौकत साहब की नकली दलील से उन्हें डर लग गया था कि वे हार जायेंगे? खुद का ही घर है और खुद ही मुकदमे में हार जायें। इससे तो अच्छा है समय रहते ही इज्जत बचाकर चले जायें। सुधामय ने अपने एक फुफेरे भाई को इसी तरह अपना घर छोड़ते हुए देखा है। टांगाइल के 'आकुर ठाकुर' मुहल्ले में उनका मकान था। वगल में रहने वाला जमीर मुंशी एक हाथ जमीन हड़प लेना चाहता था। अदालत में मुकदमा दायर हुआ। पाँच वर्ष तक मुकदमा चला। अन्त में फैसला जमीर मुंशी के पक्ष में रहा। उसके बाद तारापद घोषाल अपना देश छोड़कर इण्डिया चले गये। शौकत साहब का मुकदमा भी तारापद के मामले का रूप न ले ले यह सोचकर उन्होंने जल्द से जल्द अपने बाप-दादा की जमीन को बेच दिया, अगर यह हो भी जाता तो हैरानी की बात नहीं होती। क्योंकि सुधामय का पहले की तरह रुतवा नहीं था और यार-दोस्तों की संख्या भी घटती जा रही थी। मौका पाते ही एक-एक हिन्दू परिवार देश छोड़कर चला जाता था। कई लोगों की मृत्यु हो गयी। कितनों को कन्धा देना पड़ा। जो जिन्दा भी थे, उनके भीतर थी चरम हताशा मानो जिन्दा रहने का कोई मतलब ही नहीं था। उनके साथ बातें करते हुए सुधामय ने पाया कि वे भी डर रहे हैं। मानो जल्द ही आधी रात में कोई दैत्व आकर उन्हें मसल जायेगा। सबके सपनों का देश इण्डिया, सभी गोपनीय ढंग से सीमा पार होने की तैयारी करने लगे। सुधाकर ने कई बार कहा था, 'जब देश में युद्ध शुरू हुआ तब डरपोक की तरह इण्डिया भागने लगे। फिर जब देश आजाद हुआ तो वीरता के साथ वापस आ गये, अब बात-बात में इण्डिया भाग जाते हो। इसने उसे धक्का मार दिया, इण्डिया भाग जाओ। तुम सब के सब कावाई हो। सुधामय से धीरे-धीरे जतीन देवनाथ, तुपार कर, खगेश, किरण सभी दूर होने लगे। वे उनसे दिल खोलकर बातें नहीं करते। सुधामय अपने ही शहर में बड़े अकेले हो गये। उनके मुसलमान दोस्त शकूर, फैसल, माजिद, गफ्फार के साथ भी दूरियाँ बढ़ने लगीं। यदि उनके घर गये तो वे कहते, 'तुम जरा बैठक में बैठो सुधामय, मैं नमाज पढ़कर आता हूँ।' या फिर कहते, 'आज आये हो, आज तो घर में मिलाद है! वामपंथियों की उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनकी धर्म के प्रति निष्ठा बढ़ती है। सुधामय बहुत ही निःसंग हो गये। अपने शहर में चिन्ता, चेतना, मननशीलता की दैन्यता ने उन्हें काफी आहत किया। इसीलिए वे भागना चाहते थे-देश छोड़कर नहीं, सपनों का शहर छोड़कर। ताकि उन्हें सपनों की नीली मृत्यु मगरमच्छ की तरह निगल न सके।
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