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रिपोर्टर

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2090
आईएसबीएन :81-8143-505-2

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास...

Riportar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैजिस्ट्रेट ने जवाब तलब किया था-मणि बाबू आप ऐसी ख़बरें क्यों छापते हैं ? बाऊजी ने जवाब दिया, क्योंकि यही सब घट जो रहा है। मैजिस्ट्रेट ने अगला सवाल किया, अनंग बाबू के बारे में इतना कुछ लिखने की क्या ज़रूरत थी ? बाऊ जी का जवाब था, ज़रूरत थी ! अनंग बाबू जैसी उम्र का शख़्स, इस आन्दोलन में शामिल है, उनका पिछला इतिहास, जनता नहीं जानना चाहेगी ?, मैजिस्ट्रेट ने मानो हथियार डाल दिए, ‘अब मैं आपसे क्या कहूँ ? ‘बाऊ जी का साफ जवाब था, ‘कुछ मत कहिए, मुमकिन है आपकी बात मैं न मानूँ’। मैजिस्ट्रेट ने अफ़सोस जाहिर किया, ‘आपका अपना बेटा भी उग्रपंथी हो गया, वेरी सैड ! आप ठहरे अहम् हस्ती...’ बाऊ जी के पास इसका भी जवाब था, ‘देखिए, जब मैंने राजनीति की, अपने पिता की बात नहीं मानी। इसलिए बेटे को रोकने वाला मैं कौन होता हूँ ? वैसे मुझे नहीं लगता कि वह ग़लत कर रहा है।’ जज ने फिर पूछा, ‘यानी अख़बारों में आप इस क़िस्म की ख़बरें छापते रहेंगे ?’ बाऊ जी ने छूटते ही जवाब दिया, ‘देखिए, मेरे जिला सफर में, अगर मेरे बंदी बच्चों पर गोलियाँ चल सकती हैं, तो अख़बार वह ख़बर दे ही सकता है और आप अपने फ़ैसले मुताबिक कदम उठा सकते हैं।’

 

इसी पुस्तक से


आजकल के नौजवानों में लगभग नब्बे प्रतिशत, असुरक्षा के शिकार हैं। पूरी की पूरी एक पीढ़ी यह महसूस करती है कि राज्य, राष्ट्र नौकरी, कल-कारखाने, स्वनियुक्ति के कामकाज, विविध योजनाओं में उनके लिए कहीं, कोई जगह नहीं है। वे लोग निरे फालतू हैं। अगर वे न भी पैदा हुए होते, तो चल जाता। सिस्टम ने उन्हें ख़ारिज कर दिया है।
अमिय की पीढ़ी यही महसूस करती है। पिछली पीढ़ी उन्हें समझ ही नहीं पाई। यह सड़े-गले, हिंस्र-निर्मम सिस्टम ने उन लोगों को ख़ारिज़ कर दिया है। प्रतिवाद की आवाज़ मानो विद्रोह की आवाज हो। विद्रोह का अर्थ ही है, जड़ से समूल नष्ट कर दो।


रिपोर्टर 


दलदली शहर के इस तरफ़, गंगा के पूर्व में, हालाँकि ‘वार्तावह’ का दफ़्तर मौजूद था, लेकिन वह अन्दाज़ा लगाने का कतई उपाय नहीं था कि पश्चिम की तरफ़ भागीरथी प्रवाह मान हैं। अमिय ने एकबार ‘प्रसंग भागीरथी’ अंक निकाला था। आजकल लोगों में उस अंक की काफ़ी मांग है। लेकिन उन दिनों कुल पन्द्रह पैसे देकर भी, लोगों में यह ख़ास नहीं बिकी। पिछली बार महा-सैलाब में जब घर के अन्दर तक पानी घुस आया था, काफ़ी सारे पुराने अंक नष्ट हो गए। दूर्वा बेहद खुश हुई।

‘‘पाप थे...साक्षात् पाप ! नष्ट हो गए, जान बची। समूचा घर ऐसा गोदाम बन गया था कि अगर वहां सांप वगैरह भी रेंग रहे हों, तो ताज्जुब नहीं। चल, अब वे कमरे खाली कर डालें।’
‘जा: तुम भी क्या बात करती हो। अख़बार न रहा, तो बाबुम भला जी पाएंगे ?’ सीतू ने कहा।
‘ठीक है ! अख़बार और तेरे बाबू सलामत रहें।’
वैसे अमिय ने दूर्वा की बातों पर कान नहीं दिया। दूसरी मंज़िल तुम्हारी; तीसरी सीतू की, लेकिन पहली मंज़िल सिर्फ़ मेरी ! ‘वार्तावह’ के अलावा मेरा और कुछ नहीं है।’’
‘वार्तावह चलाकर क्या होगा ?’
‘इसकी बिक्री आठ सौ तक पहुंच गई है।’
‘आजकल लोग क्या क्या कुछ कर रहे हैं..’
‘मसलन् ?’
‘सब बेच-बाच दो।’
‘उसके बाद ?’
‘नए टाउनशिप की तरफ़ चलो।’
‘वहां करूंगा। क्या ?’

‘जितने दाम मिलेंगे, उससे मकान भी होगा, दुकान भी ! दुकान का किराया आएगा-’ यह मुझसे नहीं होगा, दूर्वा !’
‘नासिर खां रोड की इस दमघोंटू आबोहवा, नालियों की बदबू, श्मशान की गंध यह सब, अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता।’
‘तुम्हारा स्कूल क़रीब है; सीता का स्कूल भी क़रीब है, यह सब क्या मामूली सुविधा है ?’
‘पता नहीं ! बस, यहां मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।’
अमिय इसका क्या जवाब देता ? एक दिन, तुम्हें यह सब अच्छा लगा था। मैं, मेरा घर, मेरे आदर्श तुम्हें बेहद पसन्द थे। आज, तुम्हें वे सब बातें याद नहीं रहीं। तुम्हारी बेटी की उम्र चौदह हुई; मेरे अख़बार की उम्र बारह। मुझे तो अभी भी ये सब बेहद प्रिय हैं। असल में तुम बदल गई हो। वक़्त...यह वक़्त बदल गया है।

नया टाउनशिप !
आज, सभी लोग उसे नया शहर कहते हैं, मगर अमिय को मालूम है, अगले दस सालों के अन्दर अन्दर, यह प्रधान शहर बन जाएगा। यह शहर काफ़ी छोटा है ! हाथ-पांव फैलाने तक की जगह नहीं है। किसी ज़माने में पूर्व की तरफ़, जो लम्बे-चौड़े, अपार धान के खेत और झील-नहरें थीं, उनकी जगह, अब नया शहर बस गया है। जगह काफ़ी है। प्लानिंग की सुविधा है। हज़ार लोग तो वहां अभी ही बसे हुए हैं ! अच्छा ख़ासा बाज़ार जम गया हैं हाइवे से, ख़ूबसूरत-सी एक सड़क उस नए शहर से जा मिली है। अब वहाँ मार्केट-कॉम्पेल्क्स, प्रसूति-सदन और बच्चों का अस्पातल बनने वाला है।

नए शहर का नाम भी खूबसूरत है-अरुणोदय !

अब तो इसकी याद भी नहीं आती कि वहां कभी सिंह परिवार में विशाल आम-बाग़ हुआ करता था। सिंह बागान में, जिले भर के मशहूर-मशहूर आमों के पेड़ मौजूद थे। किसी ज़माने में, सिंह कोठी में आम का डिनर हुआ करता था। उन दिनों, सवारी गाड़ी के नाम पर सिर्फ़ घोड़ागाड़ी हुआ करती थी।

सन् चौसठ की बात है। अमिया ने जब एम.ए. में दाख़िला लिया, उस साल उस पार से अनगिनत शरणार्थी आए थे। अर्से तक, वे लोग उसी आम्र-वन में टिके रहे। अमिय लोगों ने त्राण-शिविर खोला था।
सन् इकहत्तर में, अमिय, उसी बाग़न में गिरफ़्तार किया गया।
उन दिनों कोई और ही ज़माना था। कोई और ही समय था। अमिया वगैरह काफ़ी सक्रिय थे।
यह तो ख़ैर, मानना ही होगा अमिय के पिता ने अपनी इकलौती सन्तान पर कभी कोई शासन-अंकुश नहीं रखा।

असल में अपने पिता के साथ अमिय का बेहद सम्मानजनक समझौता था। किसी ज़माने में उसके पिता ने भी ‘स्वदेशी’ किया था। उसके बाद, वे जेल में ही, कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। अमिय ने सुना है, उन लोगों की आदि-बस्ती मेजे गांव में थी। मेजे गांव के कुम्हारों की कारीगरी काफ़ी मशहूर थी। गांव के बीचोंबीच से मेजे नहर बहती थी।
‘जिले का प्राचीन इतिहास’ पढ़कर पता चलता है, कि मेजे नहर के किनारे षड्भुजा काली का मंदिर स्थित था। जाड़े के मौसम में, वहाँ पौषकाली पूजा होती थी, काफ़ी बड़ा मेला लगता था। सिंहराय यहां के ज़मीन्दार थे। अब उनके वंशधर, ‘सिंह’ और ‘राय’ दो-दो पदवी में बंट गए हैं। अब इस जिले में उनमें से कोई भी नहीं रहता।

उनके एक-एक साझीदार, बारी-बारी से, एक-एक बार यहां ‘पूजा’ का दायित्व सम्हालते थे। किसी की ‘पूजा’ कितनी धूमधाम से सम्पन्न हुई, इस बारे में दोनों हिस्सेदारों में जबर्दस्त मुक़ाबला ठना रहता था। एक बार तो खुद उद्धव राय यहां आए थे और काली कीर्तन में उन्होंने गाया भी था।

हिस्सेदारों के बीच, मुक़ाबले की होड़ में ही ज़मीन्दारी का हाल, बेहाल हो आया। एक बार तो बड़े शरीफ़ नृसिंह राय, ‘पूजा’ के मौक़े पर ‘कारणवारी’ चढ़ाकर, इतने मदहोश हो गए कि उन्होंने छोटे शरीफ़ के नौजवान बेटे को पकड़कर, नरबलि दे डाली। पुस्तक-लेखक ने मंतव्य दिया था। इस अशुभ हादसे के बाद ही देवी मइया ने मुंह फेर लिया, मेजे गांव की नहर एकदम से सूखकर काठ हो गई।
धीरे-धीरे भागीरथी के कराल ग्रास में, मेजे समेत, कई बड़े-बड़े गांव, एक अदद सुसमृद्ध इलाका ही, हमेशा-हमेशा के लिए लुप्त हो गया।

अमिय के बाऊ जी बताते थे, चूंकि गांव, भागीरथी के ग्रास में समाता जा रहा था, यह देखकर उनके परदादा, नन्दकोल गांव में आ बसे। वर्तमान नसीरगंज शहर, उस नन्दकोल समेत सात अन्य गांवों की बुनियाद पर प्रतिष्ठित हुआ। अमिय के बाऊजी कभी जिला कृषक मोर्चे में कार्यरत थे। सन् चालिस में अमिय की मां से उनका विवाह ! उन दिनों जंग छिड़ चुकी थी। अमिय के बाऊ जी बताया करते थे-मेरा जन्म पहले महायुद्ध वाले वर्ष में हुआ था। मेरा विवाह दूसरे महायुद्ध के छः महीने बाद हुआ। मेरा बेटा मन्वन्तर वर्ष में पैदा हुआ। मेरी पत्नी का निधन सन् सैंतालिस की पन्द्रह अगस्त को हुआ। यानी इस ख़ानदान में इतिहास की ख़ासी घनघटा छाई रही।
 
पत्नी की मृत्यु के बाद, अमिय के बाऊ जी ने दूसरा विवाह नहीं किया। हर वक़्त पार्टी के काम में भी जुटे रहना संभव नहीं था। ऐसे में उन्होंने पत्नी के नाम पर ‘कल्याणी प्रेस’ खोली। अमिय, अपनी बुआ की छत्रछाया में पलता-बढ़ता रहा। बुआ, बहरामपुर के खगड़ा में रहती थीं। अमिय ने वहीं के स्कूल-कॉलेज में लिखाई-पढ़ाई की। नसीरगंज तो वह छुट्टी वगैरह में आता था। इस जिले में एक सुविधा भी थी। यहां के तमाम शहरों तक बस में भी जाया जा सकता था। बहरामपुर से जिले के किसी भी प्रान्त की धैय्या छूकर, एक ही दिन में लौटा जा सकता था।

अमिय के बाऊ जी को ‘कल्याणी प्रेस’ से थोड़ी-बहुत आमदनी भी होने लगी। नसीर खां रोड पर स्थित मकान के बीचोंबीच एक पक्का दालान और वहीं समूचा घर दो हिस्सों में बंटा हुआ था। पूरे आठ कट्ठे पर मकान खड़ा था। इसका एक हिस्सा, नसीर खां रोड पर और दूसरा हिस्सा रानी सुन्दरी लेन पर पड़ता था। दूसरा हिस्सा उन्होंने किराए पर चढ़ा दिया था।

वे तमाम किराएदार आज भी वहां मौजूद हैं। अभी तक अमिय को, किराए की तौर पर पूरे इकसठ रुपए मिलते थे। हां, तो बाऊ जी ही कल्याणी प्रेस चलाते थे। खुद ही कम्पोज़िटर, खुद ही प्रूफरीडर, खुद ही प्रिंटर। दुकानों की बिल-पुस्तिका, स्कूली पाठ्य-पुस्तकें वगैरह की छपाई के बीच-बीच में राजनीतिक प्रचार की सामग्रियां भी छापते थे। उसके बाद, पुलिस आ पहुंचती थी। कुछ दिनों प्रेस बंद रहता था। उनके एकमात्र सहयोगी थे-काली बाबू। काली बाबू के निधन के बाद, उनके श्राद्ध का कार्ड पढ़कर, अमिय को पहली बार ज्ञात हुआ कि उनका नाम सहायराम काली था।

बाऊ जी के प्रति काली बाबी की श्रद्धा-भक्ति देखने लायक थी। बाऊ जी को पुलिस जब परेशान करती थी, उन्हें पकड़कर थाने ले जाती थी; उनके कागज-पत्र तहस-नहस कर देती थी; काली बाबू सब सम्हाले सहेजे थे। वैसे पुलिस के ये खुराफ़ात सन् साठ के दशक से पहले ही कम होने लगे। बाऊ जी प्रेस में ज़्यादा व्यस्त रहने लगे और कम्युनिस्ट पार्टी के लोग विधान सभा, लोक सभा में पहुंच गए थे। बाऊ जी पर ख़बरदारी भी अब घटने लगी थी। मौत से कुछेक दिन पहले, बाऊ जी ने अमिय से कहा-प्रेस चलाते रहना। तुम्हारे अख़बार को भी मेरा आशीर्वाद है। मैं भी अख़बार निकालना चाहता था, लेकिन सिर्फ़ काली बाबू ही थे मेरे पास उनके सहारे अख़बार नहीं निकाला जा सकता था।’

‘तुमने एक अख़बार निकाला था न ?’
‘हां, ‘संग्राम’ ! दो ही अंक निकाल पाया। अख़बार ही ज़ब्त कर लिया गया।’
‘उसकी एक भी प्रति नहीं है ?’
‘मुमकिन है, अनंग के पास एकाध प्रति पड़ी हो।’
‘काली बाबू उन्हें कहां से मिल गए ?’
‘उन दिनों मैं कृषक संगठन में शामिल था काली बाबू...पहले डाकू थे..’
‘डा—कू ?’
‘मैं, अनंग, स्वर्गीय जदू बाबू और स्वर्गीय रतन कापाली-हम चारों ने मिलकर आटला गांव में एक मीटिंग आयोजित की। ज़मीन्दार की ग़लत-सलत वसूली, ख़ासकर आटला हाट से उगाही के बारे में वहां के लोगों में बेहद आक्रोश था। वहां का ज़मीन्दार था लाल मोहन दत्त ज़ुबान से कांग्रेस का समर्थक इसलिए अंग्रेज़ों का भक्त था।’

‘ज़माना काफ़ी बदल गया है, बाऊ जी ! अब तो उसका पोता सुकेश दत्त ही....’
‘हां, इतनी लिखाई-पढ़ाई करने के बाद भी, कोई इन्सान इतना कट्टर पुरातनपंथी हो सकता है, यही अफसोस की बात है।’
‘ख़ैर लिखाई-पढ़ाई तो सभी सीखते हैं।’
‘यही तो पाप है ! ऐसे लोग सच्चे अर्थों में लिखाई पढ़ाई नहीं करते। शिक्षा सिर्फ़ नौकरी-चाकरी हासिल करने के लिए है, आजकल यही ख्याल सबके मन में घर कर गया है, लगता है, शिक्षा व्यवस्था ही धीरे-धीरे बेतहर गड़बड़ा जाएगी।’
अब जाकर, अमिय को समझ में आने लगा है, बाऊ जी ने सच ही कहा था।
‘तुम लोगों के आन्दोलन के ज़माने तक भी पढ़ने जानने की एक अहमियत थी।’
‘ख़ैर यह अहमियत हमेशा रहेगी, बाऊ जी।’

‘कैसी अहमियत ? अपने नसीरगंज में भी कॉलेज खुल गया है। जो लोग बंगला या अंग्रेजी तक शुद्ध नहीं बोल सकते थे, वे ही लोग पास भी हो गए। सबसे भयावह बात यह कि उन्हीं लोगों को मास्टर प्रोफेसर की नौकरी भी मिल गई। अपने यतीन्द्र को ही लो। वह छात्रों को कुछ सिखाएगा ? मास-कॉपी करते हुए...सामूहिक भाव से ‘टीपकर’ वह नहीं पास हुआ ?
‘अच्छा, बाऊ जी तुम क्या पास हो ?’
‘मैं...? ये पास और वो पास। राजनीति करते-करते, मैट्रिक से आगे नहीं बढ़ पाया। हां, तुम्हारी मां ने आई.ए.पास किया था।’
‘अच्छा, यह तो सच है न कि मां ने ही सत्यभामा बालिका विद्यालय शुरु किया था ?’
वह अकेली नहीं थी, तीन-चार औरतों ने मिलकर शुरु किया था।’
‘स्कूल का नाम सत्यभामा क्यों रखा ?’
‘ज़मीन्दार परिवार ने ज़मीन दी, मकान भी दिया। उन दिनों अनुमति भी आसानी से मिल जाती थी, सो स्कूल बन गया। उन दिनों यहां लड़कियों का स्कूल तो था नहीं। लेकिन उन्हीं दिनों पूर्व बंग से अनगिनत लोग आ पहुंचे सो स्कूल शुरू हो गया। कल्याणी वगरैह ने जब स्कूल शुरू किया था। तब छात्राएं पकड़-पकड़कर लानी पड़ती थी। स्कूल में छात्राओं की संख्या बढ़ गई, स्कूल को अनुमोदन मिल गया, कल्याणी को यह सब देखना नसीब नहीं हुआ।’

‘अब तो वह विराट स्कूल बन गया है। हाई स्कूल ! बारहवीं क्लास तक पढ़ाई होती है।’
‘अब तो नसीरगंज में आठ-आठ प्राइमरी स्कूल, लड़कों के लिए दो जूनियर स्कूल, लड़कियों के दो हाईस्कूल, लड़कों के दो हाईस्कूल चल रहे हैं। पहले कभी किसी ने इसकी कल्पना भी की थी ?’
‘हां, काफ़ी तरक्की कर गया है यह शहर है न बाऊ जी ?’
‘हुंह: योजनाहीन, कल्पनाहीन तरक्की ! आदि-शहर तो रहा यहां ! नया शहर यहां से कितनी दूर...। उत्तर में कॉलोनी इलाका, अब नलिनी बागची मुहाल ! दक्षिण में, उसी तरह सूर्यसेन नगरी। धत् ! धत् ! कहीं कोई प्लान नहीं, रास्ता विजयी नगरपालिका व्यवस्था....कुछ भी नहीं।’


 

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