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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


इन स्थितियों के प्रतिकार के रूप में तब कई रचनाएँ प्रकाशित हुई थीं। इनका रचनाकार तब कोई और नहीं-स्वयं तत्कालीन समाज था। लेकिन तब भी अधिसंख्य साहित्यकार पुरुष पात्र केन्द्रित रचनाओं के लेखन में व्यस्त थे, जो उनकी दृष्टि से उचित भी था। महिला पात्रों की ओर ध्यान न दिया गया हो...ऐसा न था। लेकिन स्त्री को देवी, शक्ति या अनन्य प्रेयसी का दर्जा देने की होड़ में उसकी विश्वसनीयता कम होती जा रही थी या ज्यादा से ज्यादा वह किताबी बनकर रह गयी थी। वह सामाजिक नहीं समाजेतर बना दी गयी थी। सामाजिक परिवर्तन में उसकी अनिवार्य भूमिका को लोकोत्तर बनाकर प्रस्तुत किया जाता रहा-बंकिम और रवीन्द्र की आरम्भिक रचनाएँ भी इसके अपवाद नहीं। कहीं तो पुरुषोचित व्यवहार द्वारा और कहीं स्थितियों से पलायन द्वारा सामाजिक यथार्थ की अनदेखी की जा रही थी। आशापूर्णा ने अपने स्त्री पात्रों को अपने बीच से उठाया और सबके वचि रखा। उसे रसोई घर की दुनिया से बाहर निकालकर बृहत्तर परिवेश देना चाहा। लेकिन इसमें जहाँ इस नारी का माता-पत्नी और बेटीवाला रूप सुरक्षित रहा वहीं सामाजिक बदलाव की भूमिका में भी सक्रिय योगदान दिया। ऐसा नहीं था कि सामाजिक परिवर्तन के इस दौर में स्त्री जाति को अपने अधिकार क्षेत्र में रखने या 'पैसे की जूती' बनानेवाला पुरुष वर्ग इसके लिए तैयार रहता है। इस संकलन की कहानी 'जो नहीं है, वही' की नायिका गायत्री को उसका पति घर की दीवारों में जकड़कर रख देता है। यह उसकी मध्यकालीन कुण्ठा का परिचायक है, जिसमें औरत मात्र शैया-सुख के लिए पाली या खरीदकर हरम में डाल दी जाती थी। कहना न होगा, आज भी पुरुषों का एक वर्ग स्त्री के स्वाध्याय या अध्ययन, कलात्मक रुझान या सामाजिक कार्यों में उसकी हिस्सेदारी को फूटी आँखों नहीं देखना चाहता। और इस तरह विवाह या बाल-बच्चे हो जाने के बाद स्त्री के जीवन की सामाजिक सोद्देश्यता विनष्ट हो जाती है और वह कुलीन नौकरानी का जीवन जीने लगती है।

उक्त वक्तव्य क्रम में, इस संकलन की दो कहानियाँ ('इज्जत' और 'नागन की पूँछ') में से पहली कहानी उच्च वर्ग की एक महिला द्वारा समाज के निचले स्तर की एक बालिका को संरक्षण देने की मानसिकता से जुड़ी है तो दूसरी एक अधिकार सम्पन्न महिला द्वारा अनावश्यक छूट लेने से सम्बन्धित है। 'इज्जत' कहानी में उच्च और निम्न वर्ग के बीच प्रभुता और क्षमता के सामाजिक विनियोग का प्रश्न बड़ी नाटकीयता के साथ उठाया गया है। लेखिका ने उच्च स्तर के परिवारों में भी स्त्रियों की विवशता या दयनीयता का चित्रण किया है, जहाँ अब भी वे कोई निर्णय नहीं ले सकतीं। सामाजिक दृष्टि मानवीय समस्याओं के समाधान में आड़े आती है और यही कारण है कि उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के बीच की खाई निरन्तर चौड़ी होती जा रही है और विश्वसनीयता के बदले टकराव का वातावरण पैदा हो गया है।

'नागन की पूँछ' में अपनी सदाशयता के बावजूद, एक बड़े अधिकारी के अधीनस्थ की पत्नी अपने घर का सुख-चैन गँवा बैठती है। लेखिका यह बताना चाहती है कि हमें इस बात का ज्ञान रहना चाहिए कि हम किसी की भलाई की बात कर रहे हैं और हमारी नैतिक सीमा क्या होनी चाहिए। इसी तरफ इशारा करती हैं नायक की निराशाभरी पंक्तियाँ, जो वह अपनी पत्नी (नायिका) को सम्बोधित कर कहता है ''तुमने किसी पराये का घर ठीक करना चाहा था पर खुद अपना ही घरौंदा मिटा दिया।''

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