कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
संकलन
की विशिष्ट कहानी 'किर्चियाँ' हमारे परिवारों में असहाय और अशक्त पड़ी
वृद्धाओं की दयनीय अवस्था को बड़े मार्मिक ढंग से व्यंजित करती है। यह एक
ऐसी विकट समस्या है जिसका सामना हर किसी को कभी-न-कभी करना है। अपनी आंखें
खोकर केवल स्पर्श और आहट से आसपास की गतिविधियों को जान लेने वाली...यह
नहीं समझ पाती कि अपने ही नाते-रिश्तेदार और घर के लोगों ने उसे कितना
अनावश्यक समझ लिया है और तब उसे यह लगने लगता है कि कटुता को झेलने से
अच्छा है उसकी सारी संवेदना छिन जाए ताकि वह क्रमशः अपरिचित और अमानवीय
होती जानेवाली दुनिया से अपने को अलग कर सके। इस कहानी में सर्वशक्तिमान
ईश्वर और निरीह प्राणी के बीच के संवाद और दोतरफा सम्बन्ध को एक नयी
अवधारणा दी है। यह दृष्टि हमें अपने चोगिर्द फैले अन्तःबाह्य परिवेश को
समझने में बहुत सहायक हो सकती है :
''हे
भगवान, अगर ऐसा ही होना है तो वह होकर रहे। मैं तुम पर व्यर्थ भरोसा किये
बैठी रही। तुम्हारी दया का सचमुच कोई अन्त नहीं है। ढेर सारे अपमान से
बचाने के लिए ही तुम अपने हाथों दान में दी गयी चीजें छीन लेते हो। कान
हैं तभी मैं उनकी बातें सुन पाती हूँ अगर आँखें सलामत रहतीं तो मुँहफट
ठहाकों से छितरे इन हँसोड़ और छिछोरे चेहरों को भी मुझे देखना पड़ता।''
इस
संकलन में पूर्व प्रेम को आधार वनाकर जो कहानियाँ संकलित हैं उनमें ऐसी कई
स्थितियाँ संकेतित हैं जबकि गलदश्रुता का सहारा लिया जा सकता था। लेकिन
लेखिका ने समय-चक्र और क्रूर तथा कटु परिस्थितियों को ही सर्वोपरि माना है
और पात्रों की मानसिकता में समयोचित संशोधन किये हैं।
'हथियार'
कहानी में पूर्व प्रेमी की अनुपस्थिति लेकिन अनुग्रह का एक विशिष्ट रंग
है। इसमें एक पूर्व-प्रेमिका जीविका से कहीं अधिक अपने ही पति की
हास्यास्पद और कायरतापूर्ण पलायन का मुँहतोड़ उत्तर देती है। वह पति पर
अपनी निर्भरता छोड़कर अपने पूर्व प्रसंग को एक नया और उपयोगी आयाम प्रदान
करती है। इस पात्रा (नायिका असीमा) के माध्यम से लेखिका ने उन कामकाजी
महिलाओं के आत्मविश्वास को जाग्रत किया है जो केवल रूप या सौन्दर्य से ही
नहीं अपनी दक्षता से भी समाज में एक वांछित और उपयोगी भूमिका निबाह सकती
हैं।
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