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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


खैर यहाँ तक तो ठीक था। रुपये उगाहने के लिए वे टिकट की एक गड्डी गायत्री को सौंप जाते तो इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। श्रीपति न तौ गरीब है और न ही कंजूस। लेकिन बात इतने पर ही नहीं थमी। उनकी तो माँग ही कुछ और थी। वे गायत्री को चाहे थे। कहने लगे, गायत्री की आवाज चन्दे की मोटी रकम से कहीं ज्यादा कीमती है।

इसीलिए सारे आयोजन की कर्ता-धर्ता रेखा दीदी को भी वे सब साथ लिवा लाये थे और वरना देकर बैठ गये।

उनका प्रस्ताव सुनकर गायत्री पहले तो खूब हँसती रही। फिर बोली, ''मैं अब गाना-बाना क्या गाऊँगी भला! यह तो गनीमत है कि तुम लोगों ने नाचने को नहीं कहा। आखिर यह भी तो था तुम लोगों के प्रोग्राम में? अब गाना-बाना सब भूल-भाल गयी हूँ रे!''

''यह क्या कह रही हैं आप? सीखी हुई चीज भी भला भूलता है कोई?''

''क्यों नहीं भूलता। बूढ़ी हो जाने पर सब भूल जाता है।''

लड़कों की मण्डली ठठाकर हँस पड़ी। ''बूढ़ी और आप? अगर आप बूढ़ी हैं तो फिर रेखा दी क्या हैं...स्थविर या कि भिक्षुणी?''

''रेखा दी?'' रेखा दीदी की और ताककर गायत्री ने मुस्कराते हुए कहा, ''रेखा दी की बात जाने भी दो। वे तो चिरतरुणी हैं।''

लम्बी-चौड़ी और चौकोर काया वाली रेखा दीदी एक कुर्सी में किसी तरह खप गयी थीं और अब तक हाँफ रही थी। अब उनके बोलने की बारी थी, "ऐसा भला कैसे सम्भव है? लेकिन तेरी तरह वे-वक्त बुढ़ा तो नहीं गयी। और तू किसके गले मढ़ गयी रे? हां। शादी तो हर किसी की होती है लेकिन सब तेरी तरह तो डूब नहीं जाते कि सारी दुनिया को भूलकर बस 'तुम और मैं' ही करते रहें।''

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