कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''अच्छा-अच्छा....बस
भी करो, ''पद्मलता ने उसे झिड़कते हुए कहा, ''इस खुर्रे को ज्याटा लम्बी
करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारी घरवाली कहाँ है?''
''आस-पास ही होगी कहीं!''
''और बड़े भैया बड़ी भाभी?''
''वे लोग...? वे सब तो
बहुत पहले ही गाँव छोड़कर चले गये। माँ-बाप के गुजर जाने के बाद।...''
''तभी तुम्हारा यह हाल
है!''
मुरारि
ने अपनी कमजोर और बीमार देह पर नजर दौड़ायी और फिर तीखे स्वर में बोला,
''इसमें बुरा ही क्या है? अब सबके नसीब में सोने का कदलीवन तो लिखा नहीं
होता।''
''कदलीवन न हो....बेंत का
वन तो होता है!'' पद्मलता ने छूटते ही कहा।
''अरे रोना तो इसी बात का
है कि बड़े लोगों की खाल पर इस बेंत का कोई असर नहीं होता,'' कहते-कहते
मुरारि हँस पड़ा।
उसके
इस मजाक पर कोई ध्यान न देते हुए पद्मलता पास रखे एक मोढ़े पर बैठ गयी और
बोली, ''अब तुम बैठने को तो कहोगे नहीं। बड़ी अकड़फूँ वाले हो। लो, मैं तो
बिना कहे जम गयी। अरी कहां चली गयी, ओ घर की मालकिन!....कोई अता-पता
नहीं।''
घर
की मालकिन तब अपनी रूखी-सूखी धज को सहेजने में ही लगी थी। सब कुछ
अस्त-व्यस्त पड़ा था। यहाँ तक कि किसी के सामने निकल पाना भी मुश्किल हो
जाता है। दोनों बच्चे भी बाबा आदम की औलाद बने फिर रहे हैं। कैसे सँभाले
वह यह सब!
पद्मलता सारी बातें समझती
है इसलिए वह उसे पुकारना छोड़कर मुरारि के साथ ही बतियाने लगी है।
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