लोगों की राय

कहानी संग्रह >> किर्चियाँ

किर्चियाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

3465 पाठक हैं

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''अच्छा-अच्छा....बस भी करो, ''पद्मलता ने उसे झिड़कते हुए कहा, ''इस खुर्रे को ज्याटा लम्बी करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारी घरवाली कहाँ है?''

''आस-पास ही होगी कहीं!''

''और बड़े भैया बड़ी भाभी?''

''वे लोग...? वे सब तो बहुत पहले ही गाँव छोड़कर चले गये। माँ-बाप के गुजर जाने के बाद।...''

''तभी तुम्हारा यह हाल है!''

मुरारि ने अपनी कमजोर और बीमार देह पर नजर दौड़ायी और फिर तीखे स्वर में बोला, ''इसमें बुरा ही क्या है? अब सबके नसीब में सोने का कदलीवन तो लिखा नहीं होता।''

''कदलीवन न हो....बेंत का वन तो होता है!'' पद्मलता ने छूटते ही कहा।

''अरे रोना तो इसी बात का है कि बड़े लोगों की खाल पर इस बेंत का कोई असर नहीं होता,'' कहते-कहते मुरारि हँस पड़ा।

उसके इस मजाक पर कोई ध्यान न देते हुए पद्मलता पास रखे एक मोढ़े पर बैठ गयी और बोली, ''अब तुम बैठने को तो कहोगे नहीं। बड़ी अकड़फूँ वाले हो। लो, मैं तो बिना कहे जम गयी। अरी कहां चली गयी, ओ घर की मालकिन!....कोई अता-पता नहीं।''

घर की मालकिन तब अपनी रूखी-सूखी धज को सहेजने में ही लगी थी। सब कुछ अस्त-व्यस्त पड़ा था। यहाँ तक कि किसी के सामने निकल पाना भी मुश्किल हो जाता है। दोनों बच्चे भी बाबा आदम की औलाद बने फिर रहे हैं। कैसे सँभाले वह यह सब!

पद्मलता सारी बातें समझती है इसलिए वह उसे पुकारना छोड़कर मुरारि के साथ ही बतियाने लगी है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book