कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
प्रश्न
: सवाल यह नहीं रह जाता कि जिनके लिए या जिनको लेकर आप इतने सालों से
लिखती रही हैं, वे कितने प्रबुद्ध या जागरूक हुए हैं?
उत्तर
: हमारा
समाज निश्चित रूप से जागरूक हुआ है। अपनी वंचना और अधिकार के प्रति उनमें
चेतना का संचार हुआ है। और इसमें सभी संस्थाएँ समान रूप से कारगर भूमिका
अदा कर रही हैं...साहित्य भी उसका एक अभिन्न और अन्तरंग घटक है। इस
शताब्दी के शुरू के दशकों में साहित्य ने जबरदरत्त भूमिका निवाही थी। वे
सारे स्वनामधन्य साहित्यकार, जिनका एक-एक कर नाम गिनाने की जरूरत नहीं है,
अपने समय और समाज को राजनीतिक स्वतन्त्रता की चेतना और मानवीय सरोकार से
जोड़ते रहे। वे सफल भी हुए। तब के पाठक भी, साहित्य को अधिक गम्भीरता से
लेते थे और उनके जविन के केन्द्र में वाद-विवाद और परिवाद में...साहित्य
को केन्द्रीयता प्राप्त थी। अब स्थिति बदल ही नहीं गयी, जटिल भी हो गयी
है।
प्रश्न
: क्या इसके लिए आज का पाठक समुदाय दोषी है?
उत्तर
: दोष
तो सबका है। और यह दृष्टि-दोष हैं। समाज में सुधी पाठक, समझदार लोग और
दायित्व-सम्पन्न लेखक मौजूद हैं पर उनमें परस्पर संवाद कायम नहीं हो रहा।
किसी भी कथ्य या वक्तव्य का सकारात्मक पक्ष ग्रहण किये बिना ही उसे नाकारा
घोषित कर दिया जाता है। आखिर लड़ना तो किसी विरोधी पक्ष से ही होगा। हम
अपनी कुण्ठा में खुद से लड़ रहे हैं। और लड़ना अपने आप में कोई मूल्य नहीं।
हमें अपने आपको इतना चौकस और सतर्क रहना होगा कि हमारी भावुकता, गरीबी,
जाहिली और काहिली हमें न ले डूबे। हमारे समाज की महिलाओं पर इस बात की वड़ी
जिम्मेदारी है कि वे इन चुनौतियों का सामना कैसे करती हैं। अपने आपको
साम्प्रतिक और प्रस्तावित सामाजिक सन्दर्भों में किस तरह रखना-देखना चाहती
हैं। कहानियों और उपन्यासों के द्वारा उनके जीवन के एक पक्ष या परिस्थिति
को उकेरा जा सकता है लेकिन जीवन को समझने और उसमें सकारात्मक या रचनात्मक
बदलाव के लिए उन्हें खुद को तैयार करना होगा और ऐसा समाज प्राप्त करना
होगा-जो उसके सोच और समझ को स्वीकृति प्रदान करे।
|