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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''तब ऐसे ही वज उठेगी बंसी-
इस घाट पर... इस छिन
कट जाएगा आज का टिन भी
जैसे बीत गये हैं दिन...''

ढेर सारी बातें जान-बूझकर और सुनकर और न जाने कितना कुछ देखने के बाद अब वे दीवारें टोह-टटोलकर चलने की भूमिका निवाह रही हैं। और यही वजह है कि डस दुनिया के घर्र...घर्र घूमते चक्के की आवाज से वह समझ लेती हैं कि कहीं क्या घटित हो रहा है.... किधर क्या-कुछ हो रहा है?

हां... सरोजवासिनी की अनगिनत जिज्ञासाओं पर...वे लोग हर घड़ी खिन्न हो उठते हैं। कहते हैं, ''सारी बातों को जानना जरूरी है? नहीं जान पाओगी तो सारी दुनिया क्या रसातल में चली जाएगी?'' सचमुच...बड़े अचरज की बात है?

हालाँकि वे दबी जुबान इस बात को स्वीकार करते हैं कि अरे सरोजवासिनी को इस बात का पता कैसे चला! लेकिन तो भी...उन सबकी खिन्नता और हैरानी के बावजूद, उनकी जिज्ञासा और मासूम सवालों का सिलसिला चलता रहता है और वे सब बेमतलब-से जान पड़ने वाले सवालों से और भी जल-भुन उठते हैं।

जूते की आहट कानों में पड़ी नहीं कि सरोजवासिनी कमरे से ही चिल्लाकर जानना चाहती हैं, ''कौन है रे...कौन घर से जा रहा है?''

घर के लौगों के सिवा अगर किसी दूसरे की हल्की-सी आवाज का कोई सिरा उनके हाथ लगा तो वे गला फाडकर पूछेगी, ''बाहर से कोई आया है...है.. न...। अरी ओ बहू...अरी कमला...लीला...।''

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