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किर्चियाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह



किर्चियाँ

अँधेरा... सब कुछ अँधेरा... अँधेरा

दिन भी रात की तरह स्याह...बस आँखों के सामने कुछेक रंगीन किर्चियाँ कभी बसन्ती...कभी लाल...कभी बैंगनी...फिर बसन्ती...फिर...पहले तो आँखों के सामने अजीब धुन्ध-सी छा जाया करती थी...अब ऐसा नहीं होता। धीरे-धीरे ये किर्चियाँ भी परिचित-सी जान पड़ने लगीं। रात में जब घर-घर में तेज पावर वाली रोशनी जलती है तब चिनगारियों की तरह छूटती ये लाल किर्चियाँ चौंध भरी लड़ियाँ बिखेरने लगती हैं...और जब तेज दुपहरी की धूप में शरीर तपने-सुलगने लगता है तब उस पंखे वाले कमरे में जाकर बैठ जाने की डच्छा करती है...तब बसन्ती रंग के फूल खिलते रहते हैं।...

जव नींद आ जाती है...और जब आँखें खुल जाती हैं तब...मुलायम कोनी रंग के छींटे...आँखों के रेशों और रंगों को अपनी तरल फुहारों से दुलरा देते हैं।

ये किर्चियाँ। ये तीन-तीन रंगों की किर्चियाँ ऐसी जान पड़ती हैं मानो अखिल विश्व के न खत्म होने वाले प्रकाश की आखिरी आहुतियाँ हैं। हो सकता है...यह भी समाप्त हो जाएगा...तब सरोजवासिनी को कुछ पता नहीं चल पाएगा कि घर में उन लोगों ने रोशनी को जलाकर रखा भी है या अँधेरा कर रखा है।...और उन्हें यह भी पता न चलेगा कि आकाशे मैं धूप उगी हुई है या वदली-सी छायी हुई है।

तब उन्हें केवल यही एहसास होगा कि वक्त भागता चला जा रहा है।...यह भी सिर्फ एक ही इन्द्रिय से समझ पाती है...कानों से। सारा कुछ उन्होंने इन्हीं के सारे समझ लेना सीख लिया है।

सरोजवासिनी की आँखों की रोशनी छिन गयी है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि संसार की गतिविधियाँ थम गयी हैं। सरोज इस बात की उम्मीद भी क्यों करने लगी? जब चारों ओर अनन्त आलोक के रचाव में यह धरती उन्मुक्त भाव से फैली थी तब क्या उन्होंने इसे देखा न था? और क्या उस परम सत्य के स्वर को गुना न था...सुना न था...

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