कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
कोई
और दूसरा मौका होता तो लोग इस बात को हँसी में उड़ा देते या उस पर ध्यान न
देते। लेकिन अभी लीलावती देवी के छोटे बेटे परमेश की नसों में दूसरे ही
तरह की उत्तेजना थी। उसकी नौकरी सरकारी नहीं थी लेकिन ऐसा न था कि वह इसकी
अनदेखी कर पाये। भैया तो बहाने बनाकर पहले ही खिसक चुके थे।
इसलिए
इस घड़ी परमेश को उस छोटी-सी छोकरी की गज भर जुबान पर हँसी नहीं आयी। उसने
उसे बुरी तरह डपट दिया, ''चुप शैतान कहीं की! जो जी में आता है...बक देती
है।''
असीमा
को ऐसा जान पड़ा कि कहीं कोई बम फटा। दरअसल गुस्सा तो किसी और के लिए था और
गान कहीं और गिरी थी। उसका टिमाग मारे गुस्से के सातवें आसमान पर चढ़ गया।
लेकिन
इस समय उस गुस्से को जाहिर करना ठीक नहीं होगा। जब मौका आएगा तब टेखेगी।
उफ....बड़ा सेब झाड़ा जा रहा जेल। तुम सबकी माँ कहीं-कहाँ जाती है तो क्या
हमें कभी बताकर भी जाती है।
घर
में रात-दिन अपना थोड़ा इस तरह लटकाये रखती हैं मानो फाँसी की सजा सुनाई
गयी हो लेकिन कोई मिलने-जुलने वाली आयी नहीं कि...खैर! असीमा ने साड़ी के
आँचल को पीठ पर फैलाया और चप्पल में पाँव घुसेड़कर बोली, ''ठीक है...मैं
देखकर आती हूँ।''
परमेश
ने घर के पास वाली स्टेशनरी की दूकान से नकद रुपये देकर दफ्तर को फोन करके
यह बता दिया कि किसी खास काम की वजह से वह अटक गया है। दफ्तर पहुँचने में
थोड़ी देर होगी।
'सबका
साथी' दूकान का मालिक है अरविन्द। परमेश का लँगोटिया यार। लेकिन बचपन का
यह दोस्त ऐसा बेशरम है कि टेलीफोन करने के पैसे पहले ही रखवा लेता है।
उधार के पैसे तो बहुत टूर की बात है। बेशरमी की हद तो इसी से देखी जा सकती
है कि उसने टेलीफोन के स्टैण्ड पर एक नोटिस लगा रखी है जिस पर लिखा
है-''पैसा फेंक...तमाशा देख।''
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