कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
पराशर
एक सरकारी दफ्तर में नौकरी कर रहा है। वह ज्यादा देर रुक नहीं सकता। उसने
कहा, ''सोनू तू जरा दत्ता बाबू के घर जाकर देख तो आ।''
''...? चलो....अब और
ढूँढ़ती रहो.... ढेर सारी जगहें तो ढूँढ़ ली गयीं।'' कहकर थोड़ी-बहुत राहत
के साथ पराशर जल्दी से चला गया।
चूँकि परमेश की नौकरी आधी
सरकारी है....बल्कि कहना यह चाहिए कि बे-सरकारी ह्रै। इसलिए वह थोड़ा
इन्तजार कर सकता है।
वह जमीन पर पाँव पटकता
हुआ सोनू के आने की प्रतीक्षा करता रहा।
सोनू
ने आते ही मुँह बिचका दिया और बोली, ''दादी माँ उनके घर नहीं गयी। दत्ता
बाबू की माँ साग बीन रही थीं। उन्होंने बताया कि गंगा नहाने की बात कब और
कहीं से आ टपकी?''
असीमा
इतनी देर तक रसोंईघर में खाना पकाने का काम निपटा रही थी। आज खाना पकाने
की उसकी वरिा थी। और जिस दिन उसके जिम्मे खाना पकाने का काम होता वह दिन
को ही शाम का भी ज्यादातर खाना पकाकर रख देती और फ्रीज में डाल देती।
वैसे
खाना पकाने का काम तो वह हाथों से ही कर रही थी। कान तो डुधर ही लगे थे।
वह बाहर निकल आयी और पल्लू से हाथ पोंछती हुई बोली, ''तूने जब देखा कि
उनके घर में नहीं है तो तूने टुनटुनी के घर और गोपाल के घर जाकर क्यों
नहीं देखा? उनकी काकी के साथ भी तो वे कभी-कभी ठाकुरबाड़ी या झूलाबाड़ी चली
जाती हैं। टाबू की बुआ के साथ भी...''
''हां,''
सोनू ने झुँझलाकर जवाब दिया, ''और मुझे कोई काम तो करना है नहीं। इसीलिए
सुबह-सबेरे तुम लोगों की लावारिस और भटकी हुई गाय खोजती फिरूँ।''
सोनू वैसे तो फ्रॉक ही
पहनती है इसलिए उसकी बातचीत का तेवर उसकी माँ सुधावासिनी से कम हो, यह
जरूरी नहीं है।
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