कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
कुछ
देर भोजन करने के बाद गृहस्वामी ने सिर उठाकर, मानो यकायक कोई बात याद आ
गयी हो, कहा, ''हां, ठीक ही तो है। तुम्हारे बाबूजी ले जाना चाहते हैं
तुम्हें।''
''बाबूजी
की बात...जाने भी दीजिए,'' यह कहकर अनुपमा पंखा और जोर-जोर से झलने लगी।
दिल की तेज होती जा रही धड़कन कहीं पकड़ी न जाए, इसलिए और भी परेशानी है।
''ऐसे
कैसे चलेगा?'' ससुर ने दोहरे ढंग से अपनी बात पूरी की। ''वे तो तुम्हें ले
जाने पर तुले हुए हैं। सुना है, तुम्हें न ले जाने पर तुम्हारी माँ उनको
पर में न घुसने देगी।
''यही
तो रोना है''...दही पर चनी डालते-डालते अनुपमा ने कहा, ''माँ भी अजीब हैं।
बेटी को देखने की इच्छा होते ही रोना-पीटना शुरू कर देती हैं। भला यह भी
कोई बात हुई? बाबूजी को क्या कम परेशानी है! उस बार इसी दशहरे पर बड़ी दीदी
के आने की बात थी। शायद आयी नहीं, बस इसी बात पर खाना-पीना बन्द। दशहरे के
अवसर पर नयी साड़ी-वाड़ी पहनेंगी, सजेंगी-धजेंगी...वह सब कुछ नहीं हो पाया।
अच्छा! क्या हमेशा बुलाने पर जाना सम्भव हो पाता है? घर की सुविधा-असुविधा
भी तो देखनी होगी।''
ससुर
के चेहरे से बादल छँट गये और वहाँ केवल कौतुकपूर्ण चमक ही दिखाई दी।
''मैंने तो तुम्हारे बाबूजी को वचन दे दिया है,'' यह कहकर उन्होंने खीर की
कटोरी आगे खींच ली।
अनुपमा
के चेहरे पर भी बिजली की चमक फैली लेकिन उसने उसे बड़ी सफाई से बनावटी
बादलों से ढँक दिया। हाथ का पंखा नीचे रखा और गाल पर हाथ रखकर बोली, ''यह
क्या? वचन दे दिया? यहाँ सासु माँ की तबीयत अच्छी नहीं। दो दिन बाद ननदजी
आने वाली हैं। और इधर रसोइया भी घर जाने को कह रहा था।''
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