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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


बाजार का दुःस्वप्न नहीं देखा था, इसलिए कौवे या बिल्ली के बारे में कुछ सोचे-विचारे अनुपमा भी पिता के साथ उठ खड़ी हुई। थोड़ी दूर साथ-साथ चलकर धीमे स्वर में बोली, ''मुझे ले जाने के लिए कहोगे न, बाबूजी?''

अभी तक वह यह बात नहीं कह सकी थी, क्योंकि वह जानती थी कि भोजन के समय सबकी नजर इसी ओर टिकी होगी। पिता ने भी उसी तरह धीमी आवाज में कहा, ''कहूँगा कैसे नहीं? इसीलिए तो आया हूँ। यदि इस बार भी अकेला गया तो क्या तुम्हारी माँ मुझे सही-सलामत रहने देगी? सोच रहा हूँ, कल सवेरे की गाड़ी से ही लिवा चलूँ तुम्हें।''

आशा, आशंका, उद्वेग और उत्कण्ठा में उलझा उसका किशोर हृदय एक क्षण की भी प्रतीक्षा नहीं कर सकता। कल...सवेरे...मानो वह आगामी भविष्य की बात हो। लेकिन नयी-नयी बहू...मायके जाने के बारे में बात करे वह भी...पिछले-जमाने की बहू। मायके जाने की इच्छा करना तब बड़ा भारी अपराध माना जाता था। इसलिए पक्की गृहिणी की तरह अनुपमा ने फुसफुसाते हुए उपदेश दिया, ''खूब समझा-बुझाकर कहना, बाबूजी! पता ही है मेरे सुसर जी जरा क्रोधी स्वभाव के आदमी हैं।''

''जरा?'' पिताजी हँसे फिर बोले, ''अजीब-अजीब बातें करते हैं। उनकी हवाई बातें सुनते-सुनते तो दिमाग खराब हो जाता है! खैर...जाने भी दो। इस वार जैसे भी हो, कह-सुनकर...।''

इन बातों से अनुपमा का थोड़ा धीरज बँधा। उसने पिता को चुप रहने का इशारा किया। कहीं पर शायद पैरों की आहट हुई। पिता से ले जाने का अनुरोध करने के अपराध में पकड़े जाने पर बचने का कोई रास्ता नहीं। सास भले ही लजीली हैं लेकिन सहनशील भी होगी, यह जरूरी नहीं।

एक-आध घण्टे बाद उसी सहन में सतरंजी बिछायी गयी। और चार-पाँच कटोरियों से घिरी थाली में गृहस्वामी भोजन कर रहे थे। सामने ही अनुपमा हाथ में पंखा लिये बैठी थी। वे कोई बाहरी रिश्तेदार न थे पर मेहमाननबाजी किसी रिश्तेदार की ही तरह हो रही थी। यह भी एक रिवाज है। लड़के की बहू सेवा-शुश्रूषा करे, यही साध तो बड़े-बूढ़ों के मन में रहती है। और इस साध को पूरा करना जानती है अनुपमा।

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