कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''मैं, नीचे जाकर उन
लोगों से क्या कहूँगा, छवि...?''
''कुछ नहीं अमल, कुछ
नहीं। दया करो। वर-वधू कोहबर घर में हैं उनके रंग में भंग न करो। उनकी यह
रात सजने दो''
''छवि, यह सब तुम कैसे कर
रही हो?''
''करना तो पड़ेगा ही, अमल!
हमें सीमा-रेखा की अनदेखी करना ठीक नहीं है न? उनकी इस खुशी के समय क्या
मैं अपना...''
''सारी रात तुम इसी तरह
से रहोगी?''
''नहीं,
सो जाऊँगी। नींद बड़ी जोरों की आ रही है, लग रहा है गिर जाऊँगा।'' बेहूदी
और बदतमीज छवि ने यकायक अमल के मुँह के सामने ही दरवाजा बन्द कर दिया। खट
से एक आवाज हुई...छिटकनी की आवाज।
हां, दरवाजा बन्द करना
जरूरी था। अब उसे सतीनाथ की बात ही ठीक लग रही है-'हर बात की हद होती है
और होनी भी चाहिए।'
कुछ
घण्टे इस ठण्डे और स्याह अन्धकार में डूबी रहेगी छवि तो शायद थोड़ी-सी ताकत
बटोर सकेगी! फिर कल सुबह बड़े स्वाभाविक ढंग से नीचे उतर जाएगी और सहज भाव
से कह सकेगी-''कल शादी के हंगामे में तुम लोगों को बताकर किसी परेशानी में
डालना नहीं चाहती थी लेकिन अब तो डालना ही पड़ रहा है। अब जाकर देखो। जो भी
करना है, अब तो तुम लोगों को ही करना है।''
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