कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
अमल को देखकर हाथ रुक
गये। दरवाजा अधखुला ही था।
अमल ने सोचा कि जल्दी से
एक दियासलाई की तीली जला लूँ? देखूँ छवि का चेहरा कैसा लग रहा है? पर
जलायी नहीं।
बोला,, ''बत्ती तो जलाओ।''
पहले जैसी ही सूखी-सूखी
आवाज में छवि ने पूछा, ''क्या बहुत जरूरी है?''
''बहुत जरूरी तो नहीं है
लेकिन तुम कुछ भूतनी-अनी-सी लग रही हो इसीलिए...।''
छवि
ने कोई विरोध या उत्तेजना प्रकट नहीं की, न ही बचपन की यादों गे बनाये
रखने के लिए कही गयी इस मजेदार बात पर हँसी। छवि छवि की तरह ही उस धुँधलके
अँधेरे में खड़ी रही।
अमल
को छवि के कमरे के भीतर का कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। छवि अधखुले किवाड़
के एक पल्ले को पकड़े खड़ी थी। इसीलिए भीतर झींकने की नाकामयाब कोशिश करते
हुए अमल बोला, ''क्षितीश बाबू सो रहे हैं?''
''हां,'' डतनी देर वाद
उसकी हँसी सुन पड़ी।
''सुना
सतीनाथ बाबू ने उन्हें बड़ा बुरा-भला कहा है। लेकिन छवि, तुम इतना नाटक न
भी करती तो अच्छा होता। सुन-सुनकर इतनी शर्म लग रही थी...''
इसके साथ ही बार अमल कौ
लगा, छवि आधी भूतनी तो लग ही रही है।
यहाँ तक कि उसकी हँसी भी।
छवि मुस्कराकर बोली, ''मेरी बेशर्मी पर यकायक तुम्हें क्यों शर्म आयी,
अमल?''
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