कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
5 पाठकों को प्रिय 3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
फिर
भी कानन ने उसको साथ घसीटते हुए पूरे घर का चक्कर लगवाया। घर इतना बड़ा
नहीं था कि कोई खास समय लगता। फिर भी कानन के लिए घर काफी बड़ा था।
अनिमेष बोला, ''घर-बार तो
देख चुका। अब जरा सब कुछ जल्दी से समेट लो। खाना-पीना भी है या नहीं?''
कानन ने आँखें चढ़ाते हुए
कहा, ''खाना? खाना खाओगे? ऐसी शानदार घड़ी में तुम बस मामूली-सी खाने की
बात कर रहे हो?''
परन्तु
फौरन हँसते हुए आँचल कमर में खोंसती हुई बिस्तरबन्द को लुढकाती हुए बोली,
''ठीक है, घण्टे भर में मैं तुम्हें तीन तरह की सब्जी और भात-दाल खिलाती
हूँ। तब देखना और कहना कैसी घरवाली हूँ मैं तुम्हारी?''
कानन चौकड़ी भरती हुई
किशोरी बन गयी थी।
कानन के तन और मन से मानो
आठ-दस साल झर गये थे।
शादी के बाद और उससे
पहले-पच्चीस साल-किस तरह घुट-घुटकर जीती
रही
थी वह? अनिमेष रेलवे की नौकरी पाकर चला गया तो उसे छोटे-से कमरे की खिड़की
के सींखचों पर सिर पीटती थी और भगवान से मनाती रहती थी, ''भगवान, मुझे
क्या इन लोगों से छुटकारा नहीं मिलेगा? अगर नहीं मिलेगा तो इस जीवन से
छुट्टी दिला दो। मुझसे अब सहन नहीं हो रहा।''
भगवान को सचमुच दया आ गयी।
छुटकारा
मिला। अनिमेष को मिली पदोन्नति और इस क्वार्टर के मार्फत। जिठानी, ननद और
भावजों की ईर्ष्यापूर्ण जलती आँखों के सामने सामान लादकर टैक्सी पर चढ़
बैठी कानन...और हावड़ा स्टेशन की ओर चल पड़ी थी।
|