कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
अनिमेष हड़बडाया नहीं।
बोला, ''जो देखना है उसे
बाद में देख लेना, पहले सारा सामान तो देख-समझ लो।''
यह छोटी-सी बात कानन के
उत्साह को कम न कर सकी। उसकी अनसुनी
करती हुई वह बोली,
''देखना-समझना क्या है? तुमने तो सब मिला ही लिया होगा। यह सब छोड़ो, पहले
उधर चलो।''
''चलो?'' अनिमेष बोला,
''मामला क्या है? क्या आँगन के बेल के पेड़ पर दो-दो भूत सवार हैं?''
''अहा,
कैसी बात करते हो? आँगन में बेल का पेड़ नहीं है। आम के पेड़ हैं आम
के...दो-दो आम के पेड़। और उन दोनों पर छोटी-छोटी अमिया लटक रही हैं।''
यकायक अनिमेष ठिठक गया।
फिर माथा ठोंककर बोला, ''क्या कह रही हो? यह तो गजब हो गया! आम के पेड़ से
आम लटक रहे हैं?''
कानन
पहले तो उसके कहने के ढंग पर घवरा गयी, उसके बाद तुरत ही समझ गयी कि मजाक
है तो हँसते-हँसते उससे लिपट गयी-ओक्को, कितने शरारती हो तुम! मुझको ऐसा
डरा दिया। अच्छा...तो मजाक उड़ाया जा रहा है लेकिन यह वताओ, अपने ही घर
में, अपने अर्गिन में, फल के पेडू पर फल लटकते देखा है कभी?
अनिमेष
की आँखों के सामने तैरता-उतराता, उत्तरी कलकत्ता की सँकरी-सी गली में एक
टूटा-फूटा पुराना-सा मकान उभर आया, जो नाते-रिश्तेदारों में बँट चुका था।
उभर आया उसी मकान का कोनेवाला छोटा-सा कमरा। उसी के साथ याद आया कानन के
अपने मायके का उक्के भी अधिक छोटा, सीमेण्ट और पलस्तर गिरता एक मकान।
''हां, देखा नहीं है यह
तो मानना ही पड़ेगा।'' उसने हामी भरी।
यह क्वार्टर अनिमेष पहले
ही देख चुका था।
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