कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''क्यों
नहीं उगेगी? तुम्हारी तरह मेरी आंखों में कोई मोतियाबिन्द तो उभरा नहीं कि
कुछ नजर ही न आए। बड़े-बड़े शहरों में कितनी तरह की शैतानी...कितने तरह का
उचक्कापन और लूट-खसोट है...पता है तुम्हें? आये दिन ऐसी खबरें छपती रहती
हैं। और तुम जब यह देखोगी कि उसी लड़की ने तुम्हारी भलमनसाहत का मुखौटा
उतारकर फेंक दिया है और सरेआम यह कह रही है कि बाबू ने काम के बहाने
बुलाया और जबरदस्ती हाथ पकडे हुए हैं...। और बस चले तो मेरे नाम भी जोरदार
इल्जाम लगाकर थाने में एक मामला ठोंक देगी।''
''इसमें उसका क्या फायदा
होगा?'' सुमित्रा की आवाज बैठ गयी।
महीतोष
ने व्यंग्यभरी मुस्कान के साथ कहा, ''लगता है...तुमने अभी-अभी धरती पर
अपनी आँखें खोली हैं। क्या फायदा है...यह तुम्हें नहीं मालूम! कान उमेठकर
भले लोगों से जबरदस्ती रुपये वसूलना। वह जिन गुण्डों और बदमाशों की बात कह
रही है न...मुमकिन है वही सब उसे ऐसा करने पर उकसा रहे हों। और
देखना...वही सब छाती पर सवार होकर भद्दी-भद्दी गालियाँ बकेंगे। हाय-तोबा
करेंगे...हो-हल्ला मचाएँगे। नहीं भई...यह सब नहीं होगा। बस...जितनी जल्दी
हो रफा-दफा करो। तुम्हें बताया न कि रात में बेटी को लेने माँ आएगी तभी कह
देना...कि भैया साहब इस बात के लिए राजी नहीं हुए।''
सुमित्रा
ने ठहरी हुई आँखों से देखा और कहा, ''इसका मतलब तो यही हुआ न कि एक बर्तन
माँजने वाली के सामने मुझे यह मान लेना होगा कि इस घर-संसार में मेरी कोई
हैसियत ही नहीं है।''
महीतोष
ने इस शिकायत पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। उसने उसकी बात की अनसुनी करते
हुए कहा, ''अरे...बाप! ऐसा..लगता है, न जाने कितने बड़े आदमी के सामने
तुम्हारी इज्जत चली जाएगी। कविताई छोड़कर दुनियादारी की तरफ लौटने की
कोशिश करो जरा। और मान लो कि सारी वातें सही हैं...तो फिर क्या करोगी तुम?
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