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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''इसमें अब कैसी चाल?'' सुमित्रा ने धीमे स्वर में कहा, ''सारी बातें सुनने पर तुम भी 'न' नहीं कह पाते। टोले-मोहल्ले के न जाने कितने ही गुण्डों ने उसकी बेटी को कैसे-कैसे सताना शुरू कर दिया है। उन बेहूदी हरकतों से तंग आकर बेटी ने माँ कौ रो-रोकर बताया कि माँ देखना...एक दिन मैं गले में रस्सी का फन्दा डाले मूल रही होऊँगी।...''

''तो फिर माँ को भी उसी नौकरी को करते रहने की क्या जरूरत है?''

''अरे भई, रुपयों की जरूरत किसे नहीं होती है? और गरीबों को तो और भी ज्यादा। अपनी बेटी की शादी के लिए बेचारी माँ ये रुपये जोड़ रही है।''

महीतोष ने उखड़े ढंग से कहा, ''अरे एक बर्तन माँजनेवाली की बेटी को ब्याहने के लिए कितने हजार रुपयों की जरूरत पड़ेगी आखिर?''

सुमित्रा को इस सवाल से तकलीफ हुई। पति के मन में गरीबों के प्रति शुरू से ही जो उदासीनता भरा रवैया था, उसे वह एकदम झेल नहीं पाती थी। वह जैसे तन गयी और बोली, ''जाने भी दो...इस सूखी बहस में क्या रखा है? लेकिन बेटी की चौकसी करती हुई भी क्या बेचारी माँ उसे बचा पाएगी? आखिर उसकी हैसियत ही क्या है? हो सकता है कोई उसकी आंखों के सामने से ही उसे झपट ले जाए।''

महीतोष के तेवर में अब भी अवज्ञा का ही भाव था। उसने इसी के अनुरूप बिना कोई आग्रह जताते हुए कहा, ''हां, भाभीजी के जी को मोम-सा पिघलाने के लिए लगता है वह ढेर सारे बहाने बना गयी है। उनकी ये सारी बातें पूरे पर डालो...इनमें कोई दमखम नहीं है। ऐसे ही चोंचलों से वह तुम्हारे गले अपनी बेटी मढ़ जाएगी। और उधर पुलिस को बुलाकर कहेगी, बाबू लोगों ने मेरी बेटी को बन्द कर रखा है।''

सुमित्रा तो जैसे ढेर ही हो गयी। बोली, ''बातें बनाना सिर्फ उन्हें ही नहीं आता। ऐसी ऊल-जुलूल की बातें तुम्हारी खोपड़ी में भी उग सकती हैं।''

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