कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
क्या सुमित्रा इतना भी
नहीं करेगी?
क्या सचमुच इसमें उसे कोई
आपत्ति या असुविधा होगी....अगर गरीब घर की एक लड़की को उसके घर के एक कोने
में आश्रय मिल जाए।
एक
माँ का व्याकुल हृदय जो अपनी परेशान जवान बेटी की इज्जत बचाने का भार
सुमित्रा को सौंपना चाहता है...क्या सुमित्रा उस दायित्व को अनदेखी कर
देगी? उसका अनुरोध अस्वीकार कर देगी? सुमित्रा के दरवाजे पर मानवता की
दुहाई दी जा रही है...क्या वह दरवाजा बन्द कर देगी?
क्या
सुमित्रा यह कहकर अपना दामन बचा लेगी कि तुम अपनी बेटी की ड्ज्जत बचाये
रखने का भार मेरे कन्धे पर क्यों डालना चाहती हो? तुम्हीं जानो....यह
मामला तुम्हारा है।
लेकिन सुमित्रा जो कह
सकती थी....वही कह पायी।
बासन्ती
की आँखों से खुशी के आँसू निकल पड़े। और तब उसे रोक पाना किसी के बस में
नहीं रहा। वह भाभीजी के पैरों पर लोट गयी और उसके चरणों की धूल को अपने
सिर पर लेती हुई बोली, ''मुझे पता था, आप इस दुखिया पर जरूर दया करेंगी।
आप तो साक्षात् देवी भगवती हैं। मैं एक-एक करके कई घरों में गयी लेकिन कोई
मेरी बात सुनने को तैयार नहीं था।''
इसके
बाद....बड़े संकोच के साथ बोली, ''अच्छा तो भाभी, अभी मैं इसे छोड़े जाती
हूँ...रात को आकर ले जाऊँगी। आज की रात हम माँ-बेटी साथ पड़े रहेंगे। फिर
कल सबेरे इसे इसके कपड़े-लत्ते के साथ आपके हवाले कर जाऊँगी।''
''ठीक है!''
सुमित्रा
ने मन-ही-मन सोचा जैसे कि कपड़े-लत्ते के अभाव में मैं तेरी बेटी को रख
नहीं पाऊँगी। इसके बाद सुमित्रा अलमारी खोलकर पुरानी साड़ी और ब्लाउज बगैरह
चुनने बैठ गयी। इसके बाद जब कभी भी बासन्ती आएगी अपनी बेटी को देखकर हैरान
रह जाएगी। उसकी बेटी रूपवती ही नहीं है, उसका चेहरा एक खास तरह की शालीनता
से दमकता रहता है। सुमित्रा उसे एक नया जीवन देगी। सुमित्रा उसे
लिखना-पढ़ना भी सिखाएगी।
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