कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
बासन्ती
ने समझा सुमित्रा का जी थोड़ा-सा नरम हुआ है। उसने इसी मौके को भाँपकर कहा,
''इस बारे में भैया साहब से कुछ पूछने की क्या जरूरत है भाभी...आप जैसा
चाहेंगी भैया वैसा ही करेंगे।...और गृहस्थी की रानी तो आप ही हैं। आपके घर
में कोई मरद रसोइया या नौकर नहीं है...सिर्फ नौकरानी है। इसीलिए आपकी शरण
में आयी हूँ भाभी! आप 'ना' नहीं करेंगी...जानती थी। अब आज तो नहीं...कल
इसके कपड़े-लत्ते दे जाऊँगी।...जया...बेटी इधर आ...भाभी जी को परणाम कर। तू
इनके यहाँ रहेगी। भाभी जी जैसा कहें...वैसा ही करना है। जब तक तेरी शादी
नहीं हो जाती और तू पराये घर नहीं चली जाती तब तक यहीं...भाभी जी का घर ही
तैरा ठौर-ठिकाना है।''
सुमित्रा अब भी कुछ तय
नहीं कर पा रही थी। इसलिए बोली, ''लेकिन मैं कह रही थी...इसका यहाँ जी
लगेगा कि नहीं लगेगा।...''
''अब
लेकिन-वेकिन की कोई वात नहीं है भाभी,'' बासन्ती ने चिन्ता भरे स्वर में
कहा, ''आप जैसी भली महिला के पास इसका जी नहीं लगेगा भला? आप भी क्या कह
रही हैं? यमदूतों के सामने रहते-रहते इस लड़की का चेहरा मारे डर के सूखकर
काठ हो गया है! बस्ती के छोकरे डसको देखते ही सीटी बजाने लगते हैं।
गन्दे-गन्दे फिकरे कसते हैं...नल पर जाते-आते गन्दे गाने गाते हैं...इशारे
करते हैं. छेड़ते रहते हैं। अब आपको क्या-क्या बताऊँ भाभी...ये सारी बातें
कहना-सुनना भी पाप है।'' बासन्ती का स्वर 'पाप' कहते हुए बुझ गया। उसकी
गर्दन जैसै झुक गयी।
इस बात को सुनकर सुमित्रा
का चेहरा उदास और तनिक फीका पड़ गया।
बासन्ती
ने पल्लू से अपनी आँखों को ओट में किया और कहा, ''आपको मैं जान-बूझकर थोड़े
ही न यह सब कह रही हूँ भाभी! गरीब हूँ...बर्तन माँजकर गुजारा करती हूँ।
लेकिन लड़कियों की ड्ज्जत तो होती ही है। आप लोग तो सब पढ़ी-लिखी हैं....सब
समझती हैं। उसकी इज्जत की हिफाजत करने का भार आप पर है....भाभी!''
सुमित्रा के कलेजे में एक अजीब-सी धुकधुकी उठी। इस सुन्दर बालिका को मानो
बाघ खाने के लिए आ रहा है और सुमित्रा पर उसे बचाने की जिम्मेदारी है। वही
उसै बचा सकती है। लड़की के ऊपर साँप कुण्डली मारे और फन काढ़े बैठा है।
सुमित्रा अपनी दया-दृष्टि से चाहे तो उसकी रक्षा कर सकती है।
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