कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
प्रतिमा
के माँ के गुजर जाने की खबर क्या वैसी ही साधारण है, जैसी कि आये दिन आने
वाली चिट्ठियों में कुशल-मंगल दर्ज किये जाने वाले समाचार। उसे चुपचाप और
अकेले यह जान लेना पड़ा कि उसकी माँ नहीं रही। दस मिनट पहले यह चिट्ठी नहीं
आ सकती थी? तब शक्तिपद भी इस बारे में जान पाता। प्रतिमा कितनी बुरी तरह
शोक-सन्तप्त है, इस देखने जानने वाला एक दर्शक। शक्तिपद पास होता तो वह
अभी तक शोक मैं पागल प्रतिमा को साथ लेकर हाबडा स्टेशन दौड़ पड़ता।
नहीं।
अगर अभी किसी ट्रेन के रबाना होने का समय न होता तो वह ट्रेन का इन्तजार
किये बिना दौड़कर जाती और टैक्सी बुला लाती। इस बारे में किसी की सलाह
मानने का सवाल ही पैदा नहीं होता कि ट्रेन का इन्तजार कर लिया जाए।
शक्तिपद भी इस बात पर राजी हो जाता। ऐसी हालत में जबकि प्रतिमा पर दुख का
जैसा पहाड़ टूट पड़ा हो...शक्तिपद ऐसा पत्थर नहीं कि इस मामले में कोई
कंजूसी करे? टैक्सी से उतरते ही वह माँ के बिछावन पर औंधी जा पड़ती और अब
उसे चाचा-चाची...मौसी-बुआ सभी सान्त्वना देते...सारे मोहल्ले के लोग उसे
घेर लेते। माँ को गँवाकर प्रतिमा को कितना कष्ट हुआ है...इसे सभी देख लेते।
लेकिन
यह क्या? शोक-प्रदर्शन का सारा आयोजन धरा-का-धरा रह गया। वह जोर से
चीत्कार कर उठे...उसका हृदय हाहाकार कर उठे...एक बारगी फट पडे...ऐसी भी
प्रेरणा नहीं रही कोई। अकेले...घर में पड़े-पड़े कहीं रोया-धोया जा सकता है
भला!
बड़े
लोग जो नहीं कर सकते हैं उसे छोटे बच्चे बड़ी आसानी से कर लेते हैं। तभी
जोर-जोर से सारे पास-पड़ोस को सर पर उठाकर चिल्लाने लगा था दस महीने का
खोकन। अभी-अभी तो वह बड़ी शान्ति से खेल रहा था अचानक यह क्या हो गया उसे?
जब
घर में कोई दूसरा न हो और बच्चा इस तरह चीख रहा हो तो वहाँ दौड़कर न जाने
के सिवा चारा भी क्या है? माँ की मौत की खबर मिलने के बावजूद।
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