कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
उसके
मन में कई-कई बार विचार आया कि वह जल्द ही घर लौट जाएगा लेकिन क्यों....यह
दलील जुटा न पाया। आखिर वह घर इतनी जल्दी क्यों आ गया? इस सवाल से बचने के
लिए उसे आँख-कान मूँदकर दफ्तर में ही दिन काटना होगा।
उसने
जो कुछ किया था....उसे भुगतना ही था। कोई चारा न था। भुनी हुई मछली को ठीक
से रखकर और रसोईघर के दूसरे छोटे-मोटे काम निपटाकर प्रतिमा इधर आ गयी।
उसका जी बेचैन था। शक्तिप्द को दफ्तर गये काफी देर हो गयी थी। घर का बाहरी
दरवाजा अब भी खुला होगा....गनीमत है बच्चा अब तक चुप था। दरवाजे की चिटखनी
चढ़ाकर वह अन्दर लौट ही रही थी कि उसकी निगाह खिड़की पर रखी चिट्ठी और
पत्रिका के लिफाफे पर पड़ी।....अच्छा....तो 'छाया-छवि' का नया अंक आ गया
है? इस हफ्ते तीन बड़ी अभिनेत्रियों के साथ पत्रिका के प्रतिनिधि
साक्षात्कार ले रहे हैं....कई-कई मुद्दों पर।
कब आयी डाक?
उस
समय तो नहीं....जब शक्तिपद बाहर जाने के लिए कपड़े बदल रहे थे। और
लो....वर्धमान से भी चिट्ठी आ गयी है। लेकिन यह चिट्ठी चाचा जी ने क्यों
लिखी है? विजयादशमी के मौके पर ही वे हमें याद कर लेते हैं....बस। चाचा जी
तो....कभी....माँ ठीक-ठाक हैं न...?
चिन्ता हवा से भी अधिक
तेज रफ्तार से दौड़ती है।
चिट्ठी
को हाथ में लेते-लेते ही उसने इतना कुछ सोच लिया था। और हाथ में उठाकर
रखते-रखते ही उसने सारा कुछ एक साँस में पढ़ लिया था और दूसरे ही क्षण
प्रतिमा चक्कर खाकर वहीं जमीन पर गिर पड़ा।
यह क्या...क्या हो गया।
पाँच
पैसे का पोस्ट कार्ड आखिर ऐसी कौन-सी खबर के साथ पहुँचा? माँ नहीं
रही...प्रतिमा की माँ गुजर गयी। और उसके चले जाने की खबर बस दो लाइनों में
लिखी गयी इस चिट्ठी की मार्फत पहुँच गयी?
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