कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
यही सबसे अच्छा तरीका
होगा।...ठीक है।
पोखर
के किनारे ही अभागा छोकरा खड़ा है। पीछे से हलका-सा धक्का लगाने की ही तो
बात है...बस काम-तमाम। चूँ तक नहीं होगी और होगी भी तो कौन जान पाएगा?
सब लोग यही कहेंगे कि
असावधानी के चलते डूब मरा.. और क्या... बस यही तो
चाहिए। वाह...... गजब हो गया।
केशव
राय आगे बढ़ते गये।...नजदीक ...और नजदीक...। उनकी साँसें तेज होती गयीं...
छाती जोर-जोर से धड़कने लगी।... किसे पता है कि किसी की जान लेने पर उतारू
हत्यारे का चेहरा कैसा होता है? कोई नहीं जानता कि उस समय केशव राय की
मुख-मुद्रा कैसी हो चली थी। यह भी नहीं कहा जा सकता कि तब उनके होठों से
कोई शब्द फूटा भी था या नहीं?
अचानक
मानिक पोखर की तरफ से मुँह फिराकर खड़ा हो गया लेकिन सामने खड़ी यमराज की
मूर्ति देखकर बुरी तरह डर गया और उसने पाँव पीछे हटाना शुरू किया।
एक-दो
कदम हटाते हुए वह एकदम पोखर के धार तक चला आया था। सचमुच......बड़े भैया को
वह किसी यमराज की तरह ही देखता था और सहमा-सहमा रहता था।
और इधर... केशव राय?
उसके
एक-एक रोम में अजीव-सा रोमांच था......किसी की हत्या के मामले में नहीं
फँसना पड़ेगा। इस लड़के ने उनका काम और भी आसान कर दिया। बस... दो- तीन
कदम.... और....
सिर्फ
मुँह फाड़कर आतंकित करने भर की ही तो बात है।......फिर सारा खेल
तमाम.........। नहीं......चीखने या धमकाने की भी जरूरत नहीं। क्या पता यह
हवा हो दुश्मन हो जाए।
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