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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


कहना न होगा, यह दिलचस्प मामला धीरे-धीरे बेहद दिलचस्प हो गया और सबकी जुबान पर इसकी चर्चा रहने लगी। इसके बाद मजाक-ही-मजाक में सही 'नयी मालकिन... नयी मालकिन का सम्बोधन उसके लिए रूढ़ हो गया। बात यह थी कि एकदम सामने पड़ जाने पर ही माँ शब्द जोड़कर लोग उसे पुकार लेते थे...वैसे नहीं।

लेकिन कदम ने भी इस बात की बहुत परवाह नहीं की।

उसने बिना किसी परेशानी या दुराव के केशव को 'केशव' और उसकी पत्नी को 'बहूरानी' कहकर अपनी पद-मर्यादा को बनाये रखा। केशव ने अपने जीते-जी कदम के साथ सीधे कोई बात नहीं की थी लेकिन अपनी उम्र से पाँच-सात साल छोटी सास को केशव की पत्नी ने एक दिन टोका था, ''वे उमर में तुमसे इतने बड़े हैं उनका नाम लेते लाज नहीं आती तुम्हें?''

कदम ने मुँह बिचकाकर जबाब दिया था, ''इसमें लाज किस बात की? जब इतने बड़े आदमी के बाप के कान पकड़कर उठाती-बिठाती हूँ तो उसके बेटे का नाम लेने में काहै की शरम?''

इस जबाब को सुनकर बहूरानी के कान लाज से दिप उठे थे जिसे छिपाने के लिए बह वहाँ से भाग खड़ी हुई थी।

यहाँ इस बात का हवाला देना जरूरी नहीं है कि भण्डार-घर की चाबी को अपने आँचल से बांध लेने में कदम को कोई खास देर नहीं हुई। उसके आचरण को देखकर किसी की समझ में भी आ सकता था कि वह तमाम हथियारों से लैस होकर लड़ाई के मैदान में उतरी है। और इन सारी बातों को भी सात-आठ साल बीत गये।

अब तो और भी बुरा हाल है।

राघव राय को गुजरे भी दो साल बीत चुके हैं। इसी के साथ कदम का सौभाग्य-सूर्य अस्त हो गया था। केशव की घरवाली अपने छिने हुए गौरव को प्राप्त करने में लग गयी थी। केशव भी यही सोचने लगे थे कि कदम को उसके पाँच साल के बेटे के साथ उसके ममेरे भाई के पास भेज दिया जाए...और हर महीने खाने-पीने का कोई इन्तजाम कर दिया जाए। ठीक ऐसी ही घड़ी में यह खबर उसके कानों में पड़ी थी जिसे सुनकर उसके तन में आग-सी लग गयी थी मानो बिच्छू ने काट खाया हो।

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