कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
असीमा
ने गम्भीर स्वर में पूछा, ''और अगर वह मुझे पहचान न पाया...तो? बड़े लोगों
का अपने गरीब दोस्तों को भूल जाना ही ज्यादा सुविधाजनक और स्वाभाविक होता
है। मान लो, वह मुझे पहचान न पाए या पहचानने से मुकर जाए तो...?''
''तुम
तो खामखाह बात का बतंगड़ बना रही हो...'' रणवीर ने मुस्कराते हुए आगे जोड़ा,
''तुम अच्छी तरह जानती हो कि वह तुम्हें पहचान लेगा। मैं भी इसे खूब जानता
हूँ जिसने तुम्हें एक बार देख लिया वह जिन्दगी भर भूल नहीं सकता।''
असीमा
का चेहरा एक वार फिर लाल हो गया। लेकिन उसमें कोई उतावलापन नहीं था। उसने
बड़ी शान्ति से ही कहा, ''मान लो, उसने पहचान भी लिया...लेकिन इस बात की
क्या गारण्टी है कि वह मेरा अनुरोध स्वीकार कर लेगा? ऐसा न हुआ तो मेरी
ड्ज्जत तो मिल गयी माटी में!''
''अनुरोध
रखेगा कि नहीं...इस बात की कोई गारण्टी नहीं...'' रणवीर ने कुटिल हँसी के
साथ कहा, ''इसकी गारण्टी है...जरूर है! सौ फीसदी है, मुझे मालूम है।"
असीमा
का चेहरा तमतमा उठा था, ऐसा लग रहा था कि वह अब अपनी जबान को काबू में रख
नहीं पा रही है। तभी बोली, ''अगर तुम्हें मालूम है तो मुझे किस साहस के
बूते पर वहाँ भेज रहे हो?''
''अजीब
परेशानी है...तुम मजाक तक नहीं समझती?'' रणवीर एक बार फिर ठठाकर हँस पड़ा
और फिर बोला, ''क्या तुम समझ नहीं पाती? तुम्हीं हो मेरा साहस...मेरी
शक्ति। मजाक की बात छोड़ो। घोषाल साहब पुरानी दोस्ती के नाते कभी 'न' नहीं
कर पाएँगे, यह निश्चित है। अगर मैं भी उनकी जगह होता तो कभी 'न'
नहीं कर पाता।''
''तो फिर ठीक है। मर्द ही
मर्दों की बात समझ सकते हैं। लेकिन मैं यह सब नहीं कर पाऊँगी।''
''नहीं कर पाओगी.. इतनी
देर के बाद दो-टूक जवाब दे रही हो कि मैं नहीं कर पाऊँगी!''
''जवाब न दूँ तो और क्या
करूँ? जो कर नहीं सकती...''
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