कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
असीमा
ने इस बारे में कोई जिज्ञासा नहीं दिखायी बल्कि उसने नाराजगी दिखाते हुए
कहा, ''उसके ताम-झाम से मुझे क्या लेना-देना। जैसा है...उसका है...मेरे
ठेंगे से..."
रणबीर
ने अपना हाथ नचाकर, मुँह बिचकाकर और कन्धा उचकाकर हँसते-हँसते बताया, ''अब
चाहे जो हो... कभी तो उसके साथ बड़ा मधुर सम्बन्ध था। अब बह सातवे आसमान पर
है...यह जानकर तुम्हें खुशी होगी...इसीलिए बता रहा हूँ।''
लेकिन वह जो बता रहा है,
वह तो कोई और बात है।
और
उससे जुडा जो संकट है...वह तो और भी भारी है। देवव्रत एक बहुत बड़ी कम्पनी
का भागीदार है....अगर वह चाहे तो चुटकी बजाते किसी को भी नौकरी दे सकता
है।...इसलिए उसके पास जाकर गिडगिड़ाआ...कि मेरे पति को अपने अधीन बहाल कर
लो। नौकरी न होने के कारण मैं बाल-बच्चों के साथ बड़ी मुसीबत में फँस गयी
हूँ।
छी...छी...छी...!
असीमा
ने संयत स्वर में कहा, ''सहज बने रहने और झेलने का माद्दा सबमें एक जैसा
नहीं होता। वैसे मैं तुमसे ही पूछ रही हूँ...क्या तुम उसके मातहत काम कर
सकोगे?''
''क्यों
नहीं...भला इसमें पूछने की ऐसी क्या बात है? हूँ...'' रणधीर ने अपना मुँह
उल्लू की तरह फैला दिया और बोला, ''भिखमंगे की भी कोई इज्जत होती है? काम
नहीं कर पाऊँगा...तुम ऐसा क्यों कह रही हो? अब मैं उसके साथ कोई हाथापाई
या मुठभेड़ के लिए तो नहीं जा रहा हूँ? वह तो मुझे जानता भी नहीं। तभी तो
मैं तुम्हें यह पट्टी पढ़ा रहा हूँ कि तुम उसके पास कुछ इस तरह जाना...जैसे
कि चोरी-चोरी मिलने आयी हो। मैं, जैसा कि नियम है, पूरी औपचारिकता के साथ
वहाँ नौकरी के लिए आवेदन दूँगा। तुम उसे मेरा नाम-पता बताकर मेरे मामले
में थोड़ा ध्यान देने का अनुरोध कर आओगी...बस। बातों-बातों में बन गयी बात!
उसके बाद कौन किसको डालने जाता है घास? और वह ठहरा खुद कम्पनी के मालिकों
में एक...उसके सामने छोटे-मोटे कारिन्दों की क्या बिसात!''
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