कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''तुम...आखिर तुम क्या
करोगे?'' जयन्ती ने बुझे स्वर में पूछा।
''देखूँ...क्या कुछ
है...हम दोनों ही तो इस मामले में अनाड़ी हैं। मिनू चल तो...जरा मुझे दिखा
तो सही...कहीं क्या रखा है?''
चूल्हे
में ताव देते हुए भी जयन्ती चुपचाप पिताजी को देखती रही। आगे उन्हें मना
करे उसमें ऐसा उत्साह न था। थोड़ी देर खड़ी रहने के बाद वह माँ के बिछावन
के पास जाकर बैठ गयी।
सावित्री के चेहरे पर कोई
भाव न था...। ऐसा लगता था मौत के पहले ही वह घर और संसार से अपने तमाम
सम्बन्धों को तोड़ देना चाहती हो।
अपनी माँ पर होने वाले
गुस्से के चलते ही लगता है उसकी आँखों में इतनी देर बाद आँसू उमड़ आये।
दुनिया
भर के काम के साथ अपनी दुबली-पतली काया को घसीटती चली जा रही थी। दिन और
रात-रात और दिन...। इस तरह किसी भी दिन डबलरोटी खरीदकर उन्हें रात नहीं
बितानी पड़ी थी और न ही ट्यूबबेल से मिनू को पानी ढोकर लाना पड़ा था।
उसने देखा था कभी कि
रसोईघर के फर्श पर औंधे पड़े बिजन बाबू चूल्हे के सामने पंखा झल रहे हैं?
नौकरी मिलने के बाद एक
बार के लिए भी कभी जयन्ती ने माँ के लिए पान का एक पत्ता भी सजाकर आगे
बढ़ाया है?
उसकी
नौकरी से मिलने वाले ये थोड़े-से रुपयों की भला औकात भी क्या है? या फिर
उन रुपयों की चमक और चौंध इतनी ज्यादा है कि जयन्ती की आंखें चौंधिया गयी
हैं।
तभी घड़ी ने टन
टन...टन...टन...टन...पाँच बजाये।
पाँच
बज ठीक पाँच बजे उसे कोई जरूरी काम करना था...ओह...हां...सभा में जाना था।
आज तो दफ्तर भी नहीं जा पायी थी वह। उसे तो कुछ याद भी नहीं रहा था। क्या
तो कहना था जयन्ती को? उसे ललितसेन का चेहरा भी ठीक से याद नहीं आ रहा
उसकी बातें रह-रहकर याद आती रहीं...। पैदल सैनिक...कौन हैं वे? सिर्फ लड़ाई
के मैदान में लड़नेवाले सैनिक...या कारखाने में काम करने वाले मजदूर?
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