कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
उसे
अपना खाना समाप्त करते-करते तो तीन बरन जाऐगे इस तरह। फिर सारा रसोईघर
धोना होगा। सारे घर में झाड़ू-पौंछा लगाना बाकी है अभी। घर कल से बासी पड़ा
है। बर्तन धोने हैं, दोनों वक्त के कपड़े धोना भी जरूरी है, जिनका ढेर पड़ा
है-साड़ियाँ, कुरते, गंजी, कथरी, चीथड़े, दस्ती और न जाने क्या-क्या...?
इन सबके बाद फिर चूल्हे
से जूझना।
फिर वही भात और दाल।
इसके
बाद फिर अगले दिन की तैयारी। अगर ऐसा न किया गया तो उसके अगले दिन फिर ऐसी
ही हड़बोंग मचेगी और अफरातफरी होगी और कोई काम समय पर न होगा।
काम भी कोई इतना ही नहीं
है। और भी ढेर सारे काम हैं, जिनके बारे में जयन्ती कुछ नहीं जानती।
कल...आज...कल...फिर
परसों...उसके बाद भी आगे और अगले दिनों में भी सावित्री अब कभी भी काम का
यह भार अपने कन्धे पर नहीं ढो पाएगी...। वह अपने पाँवों पर चलकर इन सारे
सवालों से क्यू नहीं पाएगी...मिट्टी के खिलौने की तरह चुपचाप पड़ी
रहेगी...और फिर देखते-देखते पथरा जाएगी...दूसरे के कन्धों पर चढ़कर ही अब
वह विदा होगी?
आखिर यह सब कौन करेगा?
दिन की पाली सँभालने के
बाद ही जयन्ती को यह लगने लगा कि अब क्या करे? वह बिछावन पर जाकर पड़ जाए।
या...फिर किसी जंगल की तरफ भाग जाए।
अपनी
बेटी के चेहरे की तरफ देखकर बिजन बाबू के मन में जैसे दया का भाव उमड़ आया।
दोपहर ढलने के बाद वे बेटी से बोले, ''जया, सुन...अब इस बेला रसोई बनाने
की जरूरत नहीं। दूकान से डबलरोटी मँगवा ली जायगी।...और तू ऐसा कर कि माँ
के पास ही थोड़ी देर के लिए बैठ जा। मैं देखता हूँ चाय-वाय का क्या किया जा
सकता है?''
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