अपना काम क्यों करें?
महात्मा गाँधी सदैव ही इस बात पर बल देते थे कि अपने जो नित्य क्रिया की चीजें हैं, खुद करनी चाहिए। जैसे- स्वयं के कपड़े, अपने बाथरूम, घर की सफाई इत्यादि। गाँधी जी को इस बात को क्यों कहना पड़ा क्योंकि वो जानते थे कि हम भारतीयों में कार्य संस्कृति को लेकर कोई जागरूकता नहीं है। अकसर आप अपने आस-पास के लोगों को अपना गुणगान करते सुन सकते हैं – मेरी लड़की तो ऐसे घर में गयी है जहाँ उसे पलंग पर बैठे-बैठे ही सब कुछ मिल जाता है। आठ-दस नौकर चाकर उसके आजू-बाजू घूमते रहते हैं। अब आप खुद सोचिए जो लड़की इतना बैठेगी तो उसको ब्लड प्रेशर, मोटापा व डायबिटीज नहीं होगा तो क्या होगा?
आज घरों में एक नया चलन पनप रहा है, बच्चे पढ़ रहे हैं इसलिए उनसे कोई काम करने को नहीं कहते। माँ-बाप को सोचना ही होगा कि बच्चे चौबीस घन्टे नहीं पढ़ते। दूसरे हाथ-पैर चलाने से शारीरिक विकास होगा, आत्मनिर्भर बनेगा। फिर उसको काम करने से क्यों रोकना? खासतौर पर माताएँ भले ही खुद बीमार हों पर अपने बेटे बेटियों से छोटा सा काम भी नहीं करा सकते। नतीजा उन बच्चों को सामाजिकता का जरा भी ज्ञान नहीं हो पा रहा। इतना ही नहीं वे अपने काम करने में भी असमर्थ हैं। इतिहास में सबसे अच्छा दृष्टांत वाजिदअली शाह का मिलता है जो लखनऊ के नवाब थे। जब अंग्रेजों ने उनके महल पर हमला कर दिया, उनके नौकर चाकर सैनिक सब महल छोड़कर भाग गए पर वो महल छोड़कर नहीं भागे, वो अपने बिस्तर पर लेटे रहे।
अंग्रेज सैन्य अधिकारी ने पूछा – नवाब साहब आप क्यों नहीं भाग गए?
वाजिदअली शाह – मेरा जूता पहनाने वाला नौकर भाग गया। जब जूता ही नहीं पहन पाऊँगा तो भागूँगा कैसे?
सैन्य अधिकारी आर्श्चयचकित नवाब को देखता रह गया, उसने अपने मन में सोचा जब तक ऐसे काहिल शासक हिन्दुस्तान में होते रहेंगे हम लोगों का शासन बना रहेगा।
आज शहरी परिवेश में खाना बनाने से आसान आनलाइन पिज्जा, बर्गर आर्डर करना लगता है।
आज करीब एक दशक से ज्यादा पढ़ाते हुए हो गया। जब भी विद्यार्थियों से पूछता हूँ कि – कौन-कौन घर के कामों में अपने माता-पिता का हाथ बँटाता है?
बमुश्किल दो चार हाथ उठते हैं, इसका नतीजा क्या हो रहा है बच्चे बचपन में ही बुढ़ापे वाली बीमारियों के शिकार हो जा रहे हैं। आप सोच कर आश्चर्य में पड़ जाएँगे कि दस साल के बच्चे को डायबिटीज, ब्लड प्रेशर इत्यादि हो जा रहा है। दूसरे शब्दों में बच्चे इतनी मस्ती से जी रहे हैं कि जब जीवन में संघर्ष का समय आता है तो ये अपने को परिस्थितियों के आगे विवश पाते हैं। उनका मन मस्तिष्क दबाव झेल ही नहीं पाता और वो जीने की लालसा ही छोड़ देते हैं। अन्यथा भारत में तो अपनी जान देने की प्रवृत्ति नहीं रही है।
हमें बच्चों को मानसिक व शारीरिक रूप से मजबूत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। जब हम अपने समय को याद करते हैं तो हमारी परिस्थिति अलग थी, हम लोग घर का हर काम करके पढ़ाई करते थे, अपना हर एक काम करना चाहे गाय को चारा डालना हो, कभी-कभी तो घर में माता जी की तबीयत खराब होने पर खुद ही खाना बना देना। जब बाहर पढ़ने गये तब भी अपना हर एक काम कर लेते थे। हम लोगों का पाठ्यक्रम भी काफी विस्तृत था। एक साथ नवीं-दसवीं व ग्यारहवीं- बारहवीं कक्षा की परीक्षा देते थे। आज तो हर शिक्षा बोर्ड ने पाठ्यक्रम को इतना छोटा कर दिया है फिर भी बच्चे उसको नहीं कर पा रहे हैं। हमें सोचना ही पड़ेगा कि हम किस तरह के समाज का निर्माण करना चाहते है। एक आत्मनिर्भर व सबल या फिर हर चीज के लिए दूसरे पर निर्भर समाज, चुनाव हमारा है। सशक्त व आत्मनिर्भर समाज के लिए कुछ उपाय मेरी समझ से ये हो सकते हैं –
बच्चों को अपने छोटे-छोटे नित्य प्रतिदिन वाले काम खुद करने दे जैसे अपने कपड़े खुद धोने देना, पौधों में पानी डालना, घर में मेहमान आए तो उनके लिए जलपान ले आना आदि।
सुबह शाम बच्चों को खेल कूद के लिए प्रोत्साहित करना, इससे उसके पढ़ाई का कोई नुकसान नहीं होगा उल्टे उसमें परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता विकसित होगी, साथ ही खेल भावना का विकास होगा।
खासतौर पर सुबह के व्यायाम से तो बच्चों को पढ़ाई में ज्यादा मदद मिल सकती है। ये भ्रामक है कि खेल-कूद से बच्चों की पढ़ाई पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
छोटी उम्र से ही चाहे वो लड़की हो या लड़का उनको खाना बनाने की कला सिखाएँ क्योंकि जब घर में विपरीत परिस्थितियाँ आए तो वो सब की मदद कर सकें न कि वो दूसरों का मुँह देखते रहें कि अब कौन हमारी मदद करेगा? इससे बच्चों में आत्मनिर्भरता का विकास होता है वो अपना काम सीख जाते हैं साथ ही दूसरों की मदद भी कर सकते हैं।
काम करने से बच्चे स्वस्थ होते हैं अन्यथा उनमें भोंदूपन बढ़ता चला जाता है।
बच्चों को बार-बार पढ़ो-पढ़ो करने से वो ज्यादा नहीं पढ़ लेंगे। कहीं वो किताबी कीड़ा बन भी गये तो क्या? उन्हें व्यवहारिक ज्ञान तो आयेगा ही नहीं। दूसरे यह सम्भव ही नहीं होगा कि एक बच्चा शुरू से ही चौबीस घन्टे पढ़ना शुरू कर दे। खासतौर पर हमारे देश की माताएँ तो लगता है अपनी जितनी भी इच्छा बची-खुची रह गयी है। उसको अपने बच्चों से पूरा करा के ही दम लेंगी। हम उनकी इच्छा का पूरा सम्मान करते है, वो नहीं चाहती कि उनका बच्चा किसी भी रूप से जिन्दगी की दौड़ में पिछड़ जाये।
हमारा यकीन मानें, आप बच्चों को जब स्वयं के अपने घरेलू कामों को करने देंगी तो वो किसी भी तरह अपनी जिन्दगी में पिछड़ेगा नहीं बल्कि आत्मनिर्भर व मजबूती के साथ आने वाली संघर्षपूर्ण परिस्थितियों का सामना कर सकेगा। साथ ही उसको सदा अहसास रहेगा कि उसके माता-पिता उसके लिए कितना मेहनत कर रहे हैं।
अन्यथा उसे ये लगने लगेगा कि ये तो हर माँ-बाप का कर्तव्य है कि बच्चों को पाले-पोसे। कई बार आपसी झगड़े में वो बोल भी देते हैं कि आप ने हमारे लिए किया ही क्या है? ये तो हर माँ-बाप अपने बच्चों के लिए करते है। वे ऐसा इसलिए बोल देते हैं क्योंकि उनके समक्ष आने वाली समस्या का समाधान खुद पालकों ने कर दिया, वो उसके हिस्से का सारा काम खुद ही करते रहे। वो समझ बैठा कि ये सारा कार्य तो माता-पिता का ही होता है। इसलिए आप से आग्रह करता हूँ कि अपना काम स्वयं करें और बच्चों में भी आदत डाले कि वे अपना काम स्वयं करें। हम ऐसा करने में सफल हो गये तो एक सशक्त और आत्मनिर्भरयुवा समाज को देगें। जो पूरी तरह से अपनी शर्तों पर अपना जीवन जी लेगा, साथ ही भविष्य में आने वाले संघर्षों को झेल लेगा।
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