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जलाक

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 17000
आईएसबीएन :9781613017678

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सुदर्शन प्रियदर्शिनी के उपन्यास का द्वितीय संस्करण

इसके बाद... तो पीछे मुड़कर देखने का साहस ही नहीं हुआ। किसी खिड़की की खुली- हवा मुझे नसीब नहीं हुई और किसी घर की चौखट मेरे पाँवों को नहीं मिली।

तब सोचती थी कि कहीं मैं ही घर छोड़ने और वापस जाने की मनः स्थितियों के बीच में पिसी हूँ। माता-पिता की जगह पर होकर मैंने कभी उस वस्तु-स्थिति को नहीं आँका कि उनकी स्थिति कितनी विकट रही होगी।

पर उस दिन फोन पर लगा- माँ और पिता भी कैसे निर्मम हो सकते हैं? पर जो निर्ममता मैंने की थी, उसके बाद भी मैं पिता से इतने खुलेपन की अपेक्षा किए थी... जिसमें वे बच्चों को अनुभवों का मौका दे सकते हैं। लेकिन शायद इतना बड़ा जिगर माँ-बाप में नहीं होता। पहली बार जब श्रीकांत के घर से फोन किया था- तो पिता ने एक बात और कही थी- मीनल- जिस दिन मन-बदले उसी दिन पीछे देखना... केवल बाहरी जरुरतों को पूरा करने आयेगी- तो मैं आने नहीं दूँगा... और आज पिता ने बिना पूछे ही फैसला सुना दिया। एक बार भी नहीं पूछा- मीनल... तुम क्या सच मे घर लौटना चाहती हो...?

उसके बाद उम्र भर मैं उनकी एक-एक बात को मन में रखकर... उनसे भरपूर घृणा करती रही... घृणा और बेहद घृणा।

पर आज जब भी कहीं माता-पिता शब्द आते हैं तो मेरी आँखें नम हो जाती हैं। मैं कहीं अन्दर के खालीपन से ढह जाती हूँ।

ये इतने सारे खिलवाड़ मैंने अपनी बचपन की चंचलता में कर डाले। एक-एक खिलौना तोड़ डाला... कि आज किसी खिलौने का भग्न-मर्मस्पर्श भी नहीं रहा।

मेरे पीछे जो इतिहास है बिसूरने को उसमें माँ और पिता की मासूम तस्वीरें हैं.. बहन-भाइयों के दर्द भरे चेहरे हैं... जो दर्द मैंने उन्हें उम्र भर के लिए दे दिए क्या वे कभी उभरे होंगे... उनसे ... एक नासूर की तरह मैं उनके दिलों में हर सुबह दुःखती रही होऊँगी। हर सुबह चाय की प्याली के धुंए में मैं कालिख बनकर उनकी आँखों में उभरती रही होऊँगी..।

उन्हीं का कल मैं हूँ... पर जब वे मेरी अपने कल के रूप में कल्पना करते होंगे... तब उनकी आँखों में क्या कोई नमी उभरती होगी....? कोई भाप उठती होगी....? नहीं... वहाँ तो जब भी मैं उनका कोई आज या कल बनकर उभरती होऊँगी - एक घृणा की लपट की तरह उनके कलेजों को दबोच लेती होऊँगी।

मैं उम्र भर यही करती रही हूँ।

आज सोचती हूँ- आदमी क्या इसीलिए जीता है कि वह अपने अरमानों को पूरा कर ले और उन्हें पूरा करने के लिए अपनी बनाई राह पर मनमाना चलता फिरे। उस मनमानी में चाहे दूसरों को रौंद डाले ?

क्यों हमारे समाज में नियम बनते हैं? क्यों नैतिक मानदण्ड, चारित्रिक मान्यताएँ या सीमाएँ निर्धारित की जाती हैं...? आज समझ गई हूँ कि बेलाग नदी की उछलती लहरों का कोई किनारा नहीं होता... और किनारे में रहने वाली नदी - उम्र भर खेतों-खलिहानों को सेत कर अन्त में वहीं अपनी सीमा में समाप्त हो जाती है और उस सीमा में ही उसकी गरिमा को लोग नहीं भूल पाते।

मैंने तो सभी दीवारें तोड़ी हैं, सभी नियम उलांघे हैं। सबको अपनी मनमानी से रौंदा है। इसलिए आज कहीं मरने को भी स्थान नहीं है। किसी की आँखों में भाप सी नमी नहीं है। किसी का नरम-घुटना नहीं है और प्यार भरी आँखें नहीं हैं जहाँ अपना दम-तोड़कर उन आँखों की चमक में जिन्दा रह सकूँ।

शायद इसी... मात्र इसी शांति के लए लोग उम्र भर नियमों में बँधे रहते हैं... अपनी सीमाओं में ही असीम की खोज करते हैं।

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