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जलाक

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 17000
आईएसबीएन :9781613017678

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सुदर्शन प्रियदर्शिनी के उपन्यास का द्वितीय संस्करण

क्या मेरे साथ यही नहीं हुआ ?

मैंने पाश्चात्य वस्तु-स्थिति को जैसे अपने अन्दर धारा... इसे धारणा नहीं गहना कहना चाहिए... या ये दोनों शब्द ही गलत हैं। वह ऐसी स्थिति थी जिसमें मरजी से गहना या धारणा नहीं होता। आप पानी में तैरते हुए पानी के गीलेपन से अलग नहीं हो सकते... कुछ इसी तरह। विशिष्ट स्थितियों में पड़कर जैसे स्थिति अनुरूप ही आप बहते जायेंगे... कुछ उसी तरह।

बढ़े हुए परिपक्व पेड़ को कैसे भी जल दो फल जायेगा लेकिन उगती हुई पौंध को तो जल और वायु की विशिष्टता ही प्रभावित करेगी।

पता नहीं कौन-कौन से स्टेशन निकल गए हैं... और मैं वहीं खिड़की पर सिर टिकाए समय को भागते देख रही हूँ... बस उसी तरह जैसे मेरी जिन्दगी में से न जाने क्या-क्या बिना छुए और बिना देखे निकल गया है।

कुछ क्षण मेरी जिन्दगी में ऐसे आये हैं जिन पर मैं आज भी उँगली रख सकती हूँ। वे क्षण मुझे बिना-छुये नहीं निकल सके हैं। वे मेरे अन्दर से होकर आरी की मानिन्द गुजरे हैं... और आज भी गुजर रहे हैं।

मैंने बिना-पूछे, बिना समझे घर छोड़ दिया था। देहली में जब श्रीकांत मुझे विवाह के लिए ले जाने वाले थे... तो मैं बेबस उदास सी हो आई थी। बिना श्रीकांत को बताए मैंने टेलीफोन पर पिता का नम्बर घुमा दिया था.. मैं जानती थी, वहाँ से हमारा शहर सीधे- सम्बन्धित है टेलीफोन से (डायरेक्ट कॉल)... पिता दुकान पर ही मिल गए थे।

मेरी आवाज सुनकर उनकी आवाज भर आई थी... कुछ क्षण टेलीफोन पर मौन सध गया था।

उस समय जाने क्या था- मैंने बड़े बेलाग होकर कहा था- मैंने घर छोड़ दिया है- पापा...

जैसे बिना पूछे छोड़ा है उसी तरह बिना पूछे लौटना भी मत- मीनल... पापा ने कहा था। और वह मीनल शब्द कहीं आज भी मेरे अन्दर उसी तरह भरा-भरा बैठा है। यही वह अन्तिम शब्द था जो मैंने पिता के मुँह से सुना था।

लेकिन उस समय उनकी वह भारी-भारी आवाज भी मुझे लौटा नहीं पाई थी । इसके बाद कुछ वर्ष पहले जब मैं बहुत भटक गई थी... और कहीं मेरी गाड़ी एक बार शहर के बीच से ही गुजर रही थी- तो समय का अन्दाजा लेकर- मैंने एक बार फिर टेलीफोन पर नम्बर घुमा दिया था... पिता मिल गए थे।

मैं मीनल बोल रही हूँ... पापा।

पापा... बहुत लम्बा गोता खा गए थे।

पापा। मेरी आवाज भटकन की थकान से रोनी-रोनी हो आई थी।

कैसी हो... मीनल।

ठीक हूँ... पापा...

पापा... मैं घर आ जाऊँ...?

पापा... बहुत देर चुप हो रहे थे... फिर धीरे-धीरे बोले- नहीं मीनल... नहीं... तुम घर नहीं आ सकतीं। जाने का फैसला तुम्हारा था- यह हमारा है। और बिना कुछ और कहने-सुनने का मुझे अधिकार देने से पहले ही पापा ने फोन बन्द कर दिया था।

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