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औघड़ का दान एवं अन्य कहानियाँ

प्रदीप श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16994
आईएसबीएन :9781613017753

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प्रदीप श्रीवास्तव की सात बेहतरीन कहानियाँ

घर के बाक़ी सारे सदस्य, माँ की ननदें, देवर आदि सब आ चुके थे। जिन पापा को कभी किसी ने बाबा से तेज़ आवाज़ में बात करते भी नहीं सुना था, आज उन्हीं को उनसे इस तरह बिना हिचक लड़ते देखकर सभी सकते में थे। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। दादी भी कुछ-कुछ बुदबुदाती अपनी क़िस्मत को कोसती रोये जा रही थीं।

माँ बड़ी गहरी साँस लेकर कहतीं कि बाबा का आदेश सुनने के बाद पापा नम्र पड़ने के बजाय और बहक गये। उन्होंने छूटते ही कह दिया कि, "जिस घर में परिवार के सदस्य और मज़दूर के बीच कोई फ़र्क़ ही नहीं, वहाँ मुझे रहना ही नहीं है।" फिर तो बाबा ने अपना आख़िरी महाविस्फोट किया था।

साफ़ कहा था कि, "ठीक है... ठीक है बेटा इतनी ही शान है तो देहरी से अगर क़दम निकालना तो जीवन में कभी मुँह मत दिखाना। हम भी देखेंगे कि कितनी शान, कितनी ऐंठ है तुम में।"

माँ जब-जब अपनी यह बात पूरी करती थीं तो आख़िर में कभी मेरा हाथ पकड़कर या कभी कन्धे पर हल्के से थपथपाकर कहतीं, "बस तनु यही वह क्षण थे जब हमारी सारी ख़ुशियों को हमेशा के लिए ग्रहण लग गया।" माँ सच ही कहती थीं। जीवन भर मैंने उन्हें कभी हँसते खिलखिलाते नहीं देखा था। गाहे-बगाहे कभी हँसीं भी तो उनकी वह हँसी हमेशा खोखली एवं नक़ली ही दिखी। हर हँसी के पीछे मैं आँसू देखती थी। और पापा का भी यही हाल था।

मैं पापा-अम्मा के जीवन के उस दिन को उनके जीवन का सबसे मनहूस दिन मानती हूँ, जिसकी काली छाया ने मेरे जीवन को भी अन्धकारमय बनाया है। वह इतना काला दिन था कि एक बाप की डाँट को बेटा बर्दाश्त नहीं कर सका। वह अपने आवेश पर क़ाबू न कर सका और त्याग दिया सभी को।

कुछ ही दिन पहले आई पत्नी के लिए इतना बड़ा फ़ैसला ले लिया। वह पत्नी भी हाथ जोड़ती रही लेकिन नहीं माने। माँ कहती थीं कि तुम्हारे पापा से मैंने लाख मिन्नत की, हाथ पैर जोड़े लेकिन वह ऐसा मनहूस क्षण था कि वह नहीं माने। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि, "तुम्हें ज़्यादा वो हो तो तुम रहो यहीं। मुझसे सम्बन्ध ख़त्म। मैं नहीं रहूँगा यहाँ। किसी भी सूरत में नहीं।"

फिर शाम होते-होते वह माँ और दो सूटकेस में कपड़े वग़ैरह लेकर लखनऊ चले आये थे। नाना-नानी के घर भी कोई सूचना नहीं दी थी। दो दिन बाद जब नाना को पता चला तो वो नानी, मामा को लेकर दौड़े-भागे लखनऊ आये थे। मगर उनकी भी सारी कोशिश नाकाम रही।

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