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औघड़ का दान एवं अन्य कहानियाँ

प्रदीप श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16994
आईएसबीएन :9781613017753

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प्रदीप श्रीवास्तव की सात बेहतरीन कहानियाँ

उन्होंने यही बताया था कि शादी की बात चली तो पापा और उनके परिवार ने उन्हें एक नज़र देखते ही हाँ कर दी थी। यहाँ तक कह दिया था माँ के माता-पिता से कि यदि आप एक पैसा भी नहीं ख़र्चा करेंगे तो भी रिश्ता यही करेंगे। कोई दिक़्क़त है तो पैसा हम लगाने को तैयार हैं।

पापा की तरफ़ के इस उतावलेपन का माँ के परिवार ने ख़ूब फ़ायदा उठाया। इसमें उनके चाचा भी शामिल थे। सबने एक राय होकर जो कुछ माँ की शादी में करने, देने के लिए पहले से तय था उसका भी अधिकांश हिस्सा रोक लिया, नहीं दिया।

मगर माँ की ससुराल वालों ने इस पर भी क्षण-भर को ध्यान नहीं दिया। माँ ससुराल पहुँचीं तो उनकी सुन्दरता केवल अपने गाँव ही नहीं आस-पास के गाँवों में भी चर्चा का विषय बन गई। दादी उनकी सुन्दरता, सुघड़ता उनकी बातों, व्यवहार, शिष्टाचार की चर्चा कर-करके, सुन-सुनके ख़ुशी के मारे फूली न समाती थीं। रोज़ ही शाम को वह माँ की नज़र उतारती थीं कि किसी की नज़र न लगे। पापा सहित घर के सारे लोगों का यही हाल था।

माँ कहती थीं कि पापा, पहली रात को और बाद में भी कई दिनों तक, रात में जब उनके पास पहुँचते तो लालटेन उनके क़रीब करके देर तक उनको अपलक ही निहारा करते। माँ लजाकर सिर नीचे कर लेतीं, तो अपने दोनों हाथों में उनका चेहरा लेकर यूँ धीरे-धीरे ऊपर उठाते कि मानो पानी का कोई बुलबुला हाथों में लिए हैं और वह इतना नाज़ुक है कि हल्की जुम्बिश तो क्या साँस लेने की आवाज़ से भी फूट जाएगा।

वह चेहरा ऊपर करके एकदम अपलक, एकदम निःश्वास माँ को देखते। पापा को इस बात की बड़ी कोफ़्त थी कि घर में क्या गाँव में ही बिजली नहीं है। जब कि माँ सीतापुर शहर में पली-बढ़ी थीं। हालाँकि लाइट का टोटा वहाँ भी था। लेकिन माँ के घर में सुख-सुविधा का हर सामान था।

मगर उनकी शादी एक गाँव में की गई, जहाँ माटी, गोबर लीपना-पोतना, कण्डा, उपला, खेती-किसानी यही सब था। बाबा भी गाँव के बहुत बडे़ तो नहीं मगर फिर भी अच्छे-खासे खाते-पीते सम्पन्न किसान माने जाते थे। कच्चा-पक्का मिलाकर बड़ा मकान था।

कच्चे ही सही मगर क़रीब-क़रीब पचीस बीघे खेती थी। घर में गाय, भैंस, बैल मिलाकर क़रीब आठ-नौ जानवर थे, ट्रैक्टर था। माँ बड़ा दुखी होकर बताती थीं कि मानो परिवार की इन सारी ख़ुशियों को किसी बाहरी की तो नहीं, हाँ परिवार की ही नज़र लग गई थी।

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