नई पुस्तकें >> औघड़ का दान एवं अन्य कहानियाँ औघड़ का दान एवं अन्य कहानियाँप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप श्रीवास्तव की सात बेहतरीन कहानियाँ
भगवान की भूल
माँ ने बताया था कि, जब मैं गर्भ में तीन माह की थी तभी पापा की क़रीब पाँच वर्ष पुरानी नौकरी चली गई थी। वे एक सरकारी विभाग में दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी थे। लखनऊ में किराये का एक कमरा लेकर रहते थे। घर में माँ-बाप, भाई-बहन सभी थे लेकिन उन्होंने सभी से रिश्ते ख़त्म कर लिए थे। ससुराल से भी।
माँ ने इसके पीछे जो कारण बताया था, देखा जाये तो उसका कोई मतलब ही नहीं था। बिल्कुल निराधार था। माँ अन्तिम साँस तक यही मानती रहीं कि उनकी अतिशय सुन्दरता उनकी सारी ख़ुशियों की जीवन-भर दुश्मन बनी रही। वह आज होतीं तो मैंने अब तक जितनी भी कठिनाइयाँ, मान-अपमान झेले वह सारी बातें खोलकर उन्हें बताती और समझाती कि तुम अपने मन से यह भ्रम निकाल दो कि तुम अतिशय सुन्दर थीं। तुम पर नज़र पड़ते ही देखने वाला ठगा सा ठहर जाता था। और यह ख़ूबसूरती तुम्हारी दुश्मन थी।
मुझे देखो मैं तो तुम्हारे विपरीत अतिशय बदसूरत हूँ। मुझे बस तुम्हारा दूधिया गोरापन ही मिला है। बाक़ी रही बदसूरती तो वह तो दुनिया-भर की मिल गई। फिर मुझे होश सम्भालने से लेकर प्रौढ़ावस्था, क़रीब-क़रीब पूरा करने के बाद भी, अब तक ख़ुशी नाम की चीज़ मिली ही नहीं। तुम नाहक़ ही अपनी सुन्दरता को जीवन-भर कोसती रहीं।
असल में कई बार हम हालात के आगे विवश हो जाते हैं। या तो हम समझौता करके उसके आगे समर्पण कर देते हैं, जहाँ वह ले जाये वहाँ चलते चले जाते हैं। या फिर एकदम अड़ जाते हैं। अपनी क्षमताओं से कहीं ज़्यादा बड़ा मोहड़ा (चुनौती) मोल ले लेते हैं। जिससे अन्ततः टूटकर बिखर जाते हैं।
मैं माँ की हर बात को बार-बार याद करती हूँ। तमाम बातों को डायरी में भी ख़ूब लिखती रही। बहुत बाद में मन में यह योजना आयी कि अपने परिवार की पूरी कथा सिलसिलेवार लिखूँगी। चित्रा आन्टी, मिनिषा मेरे इस निर्णय के पीछे एक मात्र कारण हैं।
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