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बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब

प्रदीप श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16913
आईएसबीएन :9781613017227

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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास

अब्बू जाते तो सारा पैसा गायब हो जाता। जो भी पैसा उनके हाथ लगता वह उसे सट्टे में उड़ा देते। सेहत उनकी भी उनसे दूर होती जा रही थी। मेरे लिए बदकिस्मती जैसे इतनी ही काफी नहीं थी। सट्टेबाजी में कहीं लेनदेन को लेकर अब्बू मारपीट का शिकार हो गए। गिर पड़े, या जाने क्या हुआ कि सीने पर कई जगह गंभीर चोटें आईं। हॉस्पिटल में महिना भर भर्ती रहे, लेकिन फिर घर लौटकर नहीं आ पाए। मरनी-करनी सब मिलाकर बहुत कर्जा हो गया।'

'यह तो आपके परिवार पर ऊपर वाले की बड़ी तगड़ी मार थी। कैसे संभाला खुद को।'

'हाँ, इतनी तगड़ी मार थी कि दो जून की रोटी भी मुश्किल में पड़ गई। दोनों जून चूल्हा जल सके इसके लिए जरूरी था कि चिकन का धंधा चलता रहे। इस लिए मुझे कदम निकालने पड़े।

शुरू में बड़ी दिक्कत आई लेकिन मैं गाड़ी को पटरी पर ले ही आई। अब मेरे जिम्मे किराएदार, काम, खाना-पीना सब आ गया। साँस लेने को भी फुर्सत नहीं मिलती थी। अब्बू के जाने के बाद एकदम बाहर का कमरा ठीक-ठाक कराया। उसमें रोजमर्रा की चीजों की दुकान खोल दी। एक छोटा तखत डाल दिया। जिस पर आराम से बैठकर अम्मी दुकान संभालने लगीं। मुझे बड़ी कोफ़्त होती, बड़ा दुख होता, जब याद आता कि पैसे की गंभीर तंगी के चलते अब्बू का ठीक से इलाज नहीं हो सका। मैं ज्यादा से ज्यादा पैसे इकट्ठा करने का अब कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती थी। क्योंकि मुझे हर तरफ से निराशा ही हाथ लगी थी।

बड़ी बहनों ने तो हालचाल लेना ही बंद कर दिया था। अब्बू के इंतकाल की सूचना पर दोनों ने फोन पर ही रो-धो कर मातमपुर्सी कर ली थी। कभी-कभार तीसरी वाली ही खैर-सल्लाह ले लिया करती थी। मगर बदकिस्मती यहाँ भी साथ-साथ बनी रही। उसके एक बेटा हुआ था। दोनों मां-बेटे स्वस्थ थे। मगर कुछ महिनों बाद अप्पी चिकनगुनिया बुखार में चल बसीं। तब बेटा बमुश्किल छः महीने का था। उनका शौहर चाहता था कि अब मैं उससे निकाह कर लूं। लेकिन अम्मी से पहले ही मैंने मना कर दिया। उन्होंने लाख कोशिशें कीं लेकिन मैं नहीं मानी। असल में अप्पी ने कई बार रो-रो कर उनकी एक घिनौनी हरकत के बारे में बताया था। वह बिस्तर पर अपनी अननेचुरल हरकतों से उन्हें बहुत सताते थे। बहुत तक़लीफ़ देते थे, इससे मुझे उनके नाम से ही नफ़रत होती थी। उसके बच्चे को जब अप्पी थीं, तब मैंने दो बार गोद में लिया था।

इसलिए उसकी बार-बार याद आती कि पता नहीं मासूम किस हाल में होगा। भूलती तो किराएदार का सात-आठ महीने का बच्चा जब रोता या उसकी किलकारी सुनाई देती तो फिर उसकी याद आ जाती। असल में किराएदार की एक और बात भी मेरा ध्यान खींचती थी कि इन सबके बीच मैं खुद कहाँ हूँ। जब मियाँ-बीवी रात को एकांत में खुशमिजाज होकर बातें करते तो मुझे सब सुनाई देता था। धीरे से करते थे तब भी। अम्मी का ध्यान शायद इस तरफ नहीं गया था कि, यह दरवाजे का पर्दा है, दूसरी तरफ एक जवान मियाँ-बीवी हैं तो उनकी बातें, आवाज़ें यह कहाँ रोक पायेगा।

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