उपन्यास >> बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाबप्रदीप श्रीवास्तव
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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास
इतना भर कहा कि, छोटे वाले मोबाइल का नंबर उन लोगों के पास था। उनका एक दिन फोन आया, तब पता चला। इस बातचीत का सिलसिला आगे चलता रहे मैं यही चाहती थी। कोशिश भी की। लेकिन नहीं हो सका। बस कभी-कभार हाल-चाल भर की बातें हो पाती थीं। शायद दोनों बहनोई नहीं चाहते थे। थोड़ा सा अम्मी का व्यवहार भी ज़िम्मेदार था। वह पुरानी बातों को लेकर शुरू हो जाती थीं, और माहौल गर्मा जाता था।
बार-बार यही होता था तो बहनोइयों ने भी हाथ खींच लिया। हालांकि हम बहनों के बीच छुपे तौर पर बातें अक्सर हो जाती थीं। साल बीतते-बीतते अम्मी ने एक दूर के चचा जात भाई के रिश्तेदार से बेहद साधारण ढंग से तीसरी अप्पी का निकाह कर दिया। लड़के की पहली दो बेगमें जचगी के दौरान गुजर गईं थीं। उनकी ठीक-ठाक कमाई थी। तो अम्मी ने बात चलते ही निकाह करने में देर नहीं की।
अब मैं एकदम अकेली पड़ गई। काम कई गुना ज्यादा बढ़ गया। लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी मैं उतना काम नहीं कर पा रही थी जितना कि पहले कर लिया करती थी। इस कारण काम पिछड़ता जा रहा था और आमदनी घटती जा रही थी। इतनी घटी कि खाना-पीना और अम्मी-अब्बू की दवा-दारू के भी लाले पड़ने लगे। तो आखिर आधा मकान अम्मी ने किराए पर दे दिया।
एक कमरे में मैं और चिकन का सारा काम। आँगन में एक कामचलाऊ दीवार उठवा दी गई। मकान में दो हिस्से हो गए। गुसलखाना, आने-जाने का रास्ता साझा था। मेरे कमरे का जो दरवाजा दूसरे कमरे की तरफ खुलता था अम्मी ने उसमें ताला जड़ दिया। एक बड़ा बकस जो पूरे बेड के बराबर था उसको दरवाजे से चिपका कर रख दिया। अपनी जान उन्होंने हर वह इंतजाम किया जिससे मुझ तक परिंदा भी पर ना मार सके। उधर के हिस्से में किराएदार आकर रहने लगा। अम्मी के ही दूर के रिश्तेदार थे। एक ट्रांसपोर्ट कम्पनी की बस में क्लीनर थे। बस किसी कम्पनी से अटैच थी।
किराए से मिलने वाले पैसों से किसी तरह गुजर-बसर होने लगी। मगर दवा के बढ़ते खर्च के आगे सारी आमदनी कम पड़ती जा रही थी। अम्मी की मेरे निकाह को लेकर चिंता बढ़ती जा रही थी। देखते-देखते उनकी सेहत इतनी तेज़ी से बिगड़नी शुरू हुई कि वह बाहर जाने, कच्चा माल लाने, बना हुआ देकर आने की स्थिति में नहीं रहीं।
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