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बेनजीर - दरिया किनारे का ख्वाब

प्रदीप श्रीवास्तव

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16913
आईएसबीएन :9781613017227

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प्रदीप जी का नवीन उपन्यास

अब्बू भी सीधे-सीधे लगाए गए आरोपों से तिलमिला उठे थे। लेकिन अम्मी की एक-एक बात सच थी तो वह जवाब नहीं दे पा रहे थे और गाली-गलौज पर उतर आए। यह अम्मी के बर्दाश्त से बाहर था तो वह हाथापाई पर आईं। हम लड़किओं ने दोनों को अलग किया। निकाह रद्द होने के बाद हम बहनें यह सोचकर परेशान थीं कि उनका मोबाइल उन्हें कैसे वापस करें। तीन-चार दिन बीत गए थे, लड़कों की कोई कॉल नहीं आई। इस दौरान हम बहनें सन्नाटे में रहतीं। दोनों बड़ी बहनों की आँखों में हमें आँसू भी दिखाई देते।

बात करते-करते उन दोनों की आँखें बरसने लगतीं। दोनों मोबाइल अब हमें ऐसे लगते जैसे वह दोनों लड़के ही हमारे बीच बैठे हों। एक बार रात को मेरी नींद खुली तो मैंने बड़ी वाली को करवटें बदलते और कई बार मोबाइल चूमते हुए देखा।

यह देखकर मुझे उन पर बड़ा तरस आया। मन में आया कि खुद ही दोनों बहनों को उनके पास ले जाकर निकाह करा दूं। जैसे यह दोनों यहाँ तड़प रही हैं, वैसे ही वह दोनों भी तो तड़प रहे होंगे। बड़ी कोफ्त हुई कि अब्बू को आखिर क्या मिल गया निकाह खत्म कराकर। एक दिन मैंने बहनों से कहा कि, 'कहो तो फोन लगाऊं, बात करूं। हो सकता है वह लोग कोई रास्ता निकालें।' दोनों बहनें डरती रहीं। लेकिन मैंने देखा वह मना भी नहीं कर रही हैं, तो मैं समझ गई कि उनका जवाब क्या है। वह वही चाहती हैं जो मैं सोच रही हूँ।

मैंने अगले दिन रात में उसी समय फोन लगाया जिस समय पहले बात हुआ करती थी। फोन बड़े वाले ने उठाया। मैंने बहुत झिझकते हुए उनसे जो कुछ हुआ उसके लिए माफी मांगी। अफसोस जाहिर किया। मेरा अनुमान था कि वह नाराज होंगे, लेकिन नहीं, वह पहले की ही तरह शालीनता से बोले, 'जो मुकद्दर में था वह हुआ। अफसोस या माफी की जरूरत नहीं है।' इसके बाद मैंने बहुत कहा कि, 'आपके मोबाइल, हम आप तक कैसे पहुँचाएं, समझ नहीं पा रहे हैं।' तो वह झिझकते हुए बोले, 'इसकी जरूरत नहीं है, हमने तोहफा दिया था। तोहफा वापस नहीं करते और ना ही लिए जाते हैं।'

इसी के साथ उन्होंने बहनों का हालचाल पूछ लिया तो मेरी हिम्मत बढ़ गई। मैंने कह दिया, 'बहुत ग़मगीन है।' मैंने लगे हाथ यह बोलकर ही दम लिया कि, 'आप अपने घर के बड़े-बुजुर्गों से बात करिए कि, वह अब्बू से मिलकर कोई रास्ता निकालें। सारी तैयारियाँ तो हैं ही। निकाह होने में समय नहीं लगेगा।'

वह कुछ देर सोच कर बोले, 'हमें कोई गुंजाइश नहीं दिखती। आपके वालिद ने हमारे बुजुर्गों को बहुत जलील किया। इसलिए मैं तो बात करने की हिम्मत नहीं कर सकता। आपके वालिद ही पहल करें तो इतना यकीन के साथ कहता हूँ कि मेरे वालिद रास्ता निश्चित ही निकाल लेंगे।' उनकी बात सुनकर मैंने सोचा मेरे वालिद इतना चाहते होते तो बात बिगाड़ते ही क्यों। उस दिन मैंने मौका देख कर दोनों बहनों की भी बात करवाई। दोनों ने जितनी देर बात की उतनी देर उनकी आँखों से आँसू निकलते ही रहे।

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