जीवन कथाएँ >> परमहंस फिर आओ परमहंस फिर आओशुभांगी भडभडे
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प्रस्तुत है परमहंस के जीवन पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रामकृष्ण परमहंस का व्यक्तित्व जितना कल्पनातीत है उतना ही अलौकिक भी।
उनके विचारों, चिंतन आदि के बारे में अनेक भाषाओं में विपुल सामग्री उपलब्ध
होने के बावजूद उनके जीवन पर आधारित कोई उपन्यास उपलब्ध नहीं था। वर्तमान
राष्ट्रीय व सामाजिक परिप्रेक्ष्य में विश्व को परमहंस के चिंतन व विचारों
की बहुत आवश्यकता है। यह उपन्यास इस आवश्यकता की पूर्ति करता है।
भूमिका
श्री रामकृष्ण परमहंस, जिसे दिव्य प्रभामंडल प्राप्त हुआ है, ऐसा अनासक्त
सिद्ध-पुरुष। उनका व्यक्तित्व जितना कल्पनातीत है उतना ही अलौकिक भी।
अक्षर ब्रह्म से दूर, किंतु पूरा ब्रह्मांड जिनमें सहज समाया हुआ है-ऐसा
सामर्थ्य रखनेवाले वेदांत के अधिकारी। कठोर साधना कर सिद्धि प्राप्त करने
हेतु स्वयं को समर्पित करनेवाले श्री रामकृष्ण। ऐसे में उन्हें दिव्य
अनुभूति तथा आध्यात्मिक श्रेष्ठता प्राप्त हुई तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
रामकृष्ण ज्ञान-साधना और सकल सिद्धि को संपन्न करके निर्विकल्प समाधि तक जब जाते हैं तो सहज ही ईश्वर-स्वरूप हो जाते हैं। उनके चरित-लेखकों ने उन्हें ईश्वरावतार तथा जन्मत: भगवान श्रीविष्णु का अवतार माना है। रामकृष्ण परमहंस को ईश्वरावतार मानकर ही आज तक सब चरित-ग्रंथों की रचना हुई है। भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में भी इसी भाव से चरित-लेखन हुआ है। उनके व्यक्तित्व का अर्थ बताकर, उनके जीवन के प्रयोजन का संदर्भ देकर, सिद्धि एवं साधना का परिचय देकर तथा अनुभूति से प्राप्त उपदेश देकर इन चरित-ग्रंथों की रचना हुई है और कल्पना से भी परे श्रेष्ठ एवं महनीय जीवन का समग्र दर्शन पाठकों को कराया गया है किंतु फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि उनके चरित का समग्र दर्शन अभी तक प्रस्तुत नहीं हुआ है।
रामकृष्ण परमहंस को जानना प्रत्यक्षत: ईश्वर को जानने जितना कठिन है-ऐसा सभी ज्ञान-संपन्न, अध्यात्म, संपन्न, वैराग्य संपन्न, तंत्रविद्या-संपन्न और सकल विद्या-संपन्न विद्वान कहते आए हैं। परमहंस के चरित्र से भारतीय विद्वान तो प्रभावित हैं ही, विदेशी विद्वान भी आश्चर्यचकित तथा प्रभावित हैं। सुविख्यात फ्रेंच साहित्यकार एवं तत्त्वज्ञ रोम्याँ रोलाँ ने जब श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में पढ़ा तब वे बेलूर मठ में आए और उन्होंने उनके संबंध में तमाम जानकारियाँ प्राप्त कीं। यह घटना श्री रामकृष्ण परमहंस के समाधि लेने के चालीस वर्ष बाद की है। विश्व-भ्रमण करनेवाला अनुभूति प्राप्त यह लेखक जब उनके बारे में लिखने लगा तो लिखते-लिखते सोचने लगा-
‘इस अगम्य व्यक्तित्व का स्वरूप क्या है? क्या सच में ईश्वर जन्म लेता है? यह परमेश्वर की संवेदना है या प्रत्यक्ष पदार्पण? उनका जन्म लेना कल्पना है या संभ्रमित मन की आभासात्मक आकृति ? क्या उसका अस्तित्व, यानी जीवात्मा परमात्मा का अंश है?’ इन प्रश्नों का उत्तर जब रोम्याँ रोलाँ खोजने लगे तो उन्होंने भारतीय वैदिक साहित्य, ऋषि-परंपरा, संस्कृति, आचार-विचार संहिता, मनोभावना से संलग्न देशवासी होने से स्वतंत्र विचार-शक्ति मैंने पाई है। भारतीय संस्कृति पर मेरा पूर्ण विश्वास है, श्रद्धा है। मैं श्री रामकृष्ण को अपना अंतरंग मानता हूँ। मैं उन्हें उनके शिष्य तथा भक्तों की तरह भगवान् नहीं मानता, मैं उनके महामानव की अर्थात् ईश्वरीय गुणों की अधिकता मानता हूँ।’
रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन में कहीं भी चमत्कार नहीं किए हैं, किंतु अपने जीवन के प्रारंभ से ही उन्हें दिव्यानुभूति होने लगी थी। ऐसा भी कहा जा सकता है कि उनका जन्म ही दिव्यानुभूति से हुआ है और इन्हीं अनुभूतियों द्वारा उन्हें ईश्वर-दर्शन हुआ है। ईश्वरावतार लेने का प्रयोजन उनके जन्म से पहले ही उपस्थित है। प्रयोजन के बाद ही ईश्वर जन्म लेता है। रामकृष्ण का जन्म प्रयोजन भारत के तत्कालीन वातावरण में आवश्यक था।
विदेशी आक्रमण होने से भारत की आंतरिक सुव्यवस्था खंडित हो गई थी। मुसलिम यहाँ के निवासी हो गए। अंग्रेज व्यापार के लिए भारत आए और वे अपने पाँव फैलाते-फैलाते यहाँ के शासक बन बैठे। चारों ओर अत्याचार, अनाचार और अनीति का बोलबाला था। धर्म क्षत-विक्षत होने लगा। साधु लोगों का बुरा हाल था। सामान्य जनता संभ्रमित थी। केवल राज से ही नहीं, धर्म-कारण से भी संपूर्ण भारत संम्रभित था। ‘अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग’ और आदमी-आदमी का अपना-अपना झुंड, यानी रोज एक नए पंथ का निर्माण-देश की स्थिति ऐसी थी। संस्कारहीन समाज में संस्कृति का क्षय होने लगा था। ऐसे समय में ईश्वर ही सबका तारणहार था। अत: श्री रामकृष्ण का जन्म हुआ।
पं. क्षुदिराम एवं उनकी पत्नी चंद्रमणि अत्यंत धर्मनिष्ठ, सत्यप्रिय और सत्यशील थे। उनके घर में भगवान विष्णु ने जन्म लेने का निश्चय किया। पं. क्षुदिराम विरक्ति तथा वैराग्य लेना चाहते थे। उसी समय भगवान विष्णु ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा, ‘मैं तुम्हारे घर में जन्म लेना चाहता हूँ।’ पं. क्षुदिराम काशी क्षेत्र में थे तथा चंद्रमणि को बार-बार दिव्य स्वप्न तथा दिव्यानुभूति होने लगी थी। कभी शिव मंदिर की शिव शक्ति, कभी भगवान विष्णु का प्रत्यक्ष दर्शन उसे संभ्रमित करता था। उसे अभिमंत्र तथा अनाहत नाद स्पष्ट सुनाई देते थे। प्रत्यक्ष: भगवान विष्णु उसकी शय्या पर आकर बैठते थे। श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के जन्म के समय भी उनकी माताओं को दिव्यानुभूति होती थी। भगवान महावीर एवं भगवान बुद्ध की माताओं को भी ऐसी दिव्य अनुभूति होती थी।
पं. क्षुदिराम ने अपने इस नवजात शिशु का नाम ‘गदाधर’ रखा। संन्यास-धर्म की दीक्षा लेने के बाद उन्हें सब जो राम, जो कृष्ण वही रामकृष्ण कहने लगे। आध्यात्मिक श्रेष्ठता के कारण उन्हें ‘परमहंस’ की उपाधि प्राप्त हुई। रामकृष्ण के भक्तगण उन्हें प्रेम तथा आदर से ‘ठाकुरजी’ कहते थे। बचपन से ही उन्हें भक्तिमार्ग अच्छा लगा था। आगे चलकर तो उन्होंने नवधा भक्ति, अनेक साधनाएँ, तंत्र विद्या, योग विद्या, वैराग्य साधना पर अपना पूर्ण अधिकार प्राप्त किया। धर्म-साधना करते-करते उन्होंने इसलाम धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म एवं ईसाई धर्म-साधना की और बाद में अपने प्रिय शिष्ट नरेन्द्र से कहा, ‘नरेंद्र, विश्व के सभी धर्मों के मानवता-धर्म पर आधारित होने के बावजूद स्वधर्म ही श्रेष्ठ है। सब धर्मों के प्रति आदर-भाव रखते हुए भी अपने धर्म के प्रति स्वयं को समर्पित करना।’ अपने विचारों की यही विजय-पताका उन्होंने अखिल विश्व में फहराई।
स्वामी विवेकानंद अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में कहते हैं, ‘जिनके स्नेह का प्रवाह अबाध गति से सबकी ओर बह रहा है, जो लोकातीत हैं, और जिनके द्वारा लोक-हित की रक्षा होती है, जो जानकी के प्राण हैं वे अनुपम, भक्ति द्वारा आवृत्त ज्ञानमय श्रीराम अवतार हैं। जो कुरुक्षेत्र युद्ध के प्रलयंकर निनाद से गुंजित आकाश को शांत करनेवाले, माया-मोह के अंधकार को दूर करनेवाले, गीता-ज्ञान का अमृत देनेवाले श्रीकृष्ण हैं-वहीं है श्री रामकृष्ण।
काल-प्रवाह में प्रवहमान होते जा रहे धर्म को सार्वलौकिक, सार्वकालिक और सार्वदेशिक बनाना ही लोक-हितकारी श्री रामकृष्ण का जन्म प्रयोजन है, ऐसा स्वामी विवेकानंद मानते हैं। रामकृष्ण की नानाविध भक्ति और साधना नया आदर्श प्रस्थापित करती है। श्री रामकृष्ण को अक्षर-ज्ञान-कितना था अथवा था भी या नहीं, यह मालूम नहीं। उन्हें पाठशाला में नित्य भेजा जाता था, किंतु वे कभी लोहार के यहाँ तो कभी कुम्हार के यहाँ जाकर बैठ जाते थे। किंतु प्रज्ञावंत जो भी है उसका ज्ञान कभी सीमित नहीं होता।
श्री रामकृष्ण की भक्ति अनुपम थी। काली माता के दर्शन प्राप्त करने के लिए वे अनेक मानसिक, शारीरिक कष्ट उठाते रहे। आवेग, आवेश, क्रोध, रुदन, संताप, नैराश्य और फिर से पुन: आग्रह तथा अंत में दर्शन स्थिति, अद्वैत स्थिति। मधुरा भक्ति में वे श्रीकृष्ण-विरहिनी राधा बन गए थे। वही मानसिक परिवर्तन उनमें दिखाई दिया। मन-मीत श्रीकृष्ण का दर्शन जब तक नहीं तब तक आकुल रहना-यह उनकी मन:स्थिति थी। उन्होंने स्त्री परिधान तक धारण किया। उनका स्वर भी स्त्री के समान मधुर बन गया। इतना ही नहीं, उनके शरीर-धर्म बदलकर स्त्री शरीर-धर्म शुरू हो गए। उनकी यह अवस्था देखकर शास्त्र, पुराण, वेद उपनिषद् भी मौन रहे। पुरुष-धर्म से स्त्री-धर्म शुरू होना और श्रीकृष्ण के दर्शन होने के बाद फिर पुरुष-धर्म में वापस आना-यह कल्पनातीत सत्य घटना उनके जीवन में घटित हुई। ‘रुद्रयामल, ‘षडन्वयमहारत्न’, ‘वायवीय संहिता’, शारदा विश्वसार’-इन ग्रंथों के अनुसार शांभवी शाक्ति, और मांत्री-ये तीन प्रकार की दीक्षाएँ सर्वज्ञानी शिष्य को एक के उपरांत एक दी जाती हैं। कभी-कभी एक दीक्षा लेने में ही पूरा जीवन लग जाता है। किंतु श्री रामकृष्ण द्वारा एक साथ ये दीक्षाएँ प्राप्त करने के बाद भी उनके मन में अशांति रही।
श्री रामकृष्ण अपने मन में कुछ भी ठान लेते तो उसे पूरा करके ही दम लेते। उनके कक्ष में एक वाक्य लिखा रहता था-
रामकृष्ण ज्ञान-साधना और सकल सिद्धि को संपन्न करके निर्विकल्प समाधि तक जब जाते हैं तो सहज ही ईश्वर-स्वरूप हो जाते हैं। उनके चरित-लेखकों ने उन्हें ईश्वरावतार तथा जन्मत: भगवान श्रीविष्णु का अवतार माना है। रामकृष्ण परमहंस को ईश्वरावतार मानकर ही आज तक सब चरित-ग्रंथों की रचना हुई है। भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में भी इसी भाव से चरित-लेखन हुआ है। उनके व्यक्तित्व का अर्थ बताकर, उनके जीवन के प्रयोजन का संदर्भ देकर, सिद्धि एवं साधना का परिचय देकर तथा अनुभूति से प्राप्त उपदेश देकर इन चरित-ग्रंथों की रचना हुई है और कल्पना से भी परे श्रेष्ठ एवं महनीय जीवन का समग्र दर्शन पाठकों को कराया गया है किंतु फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि उनके चरित का समग्र दर्शन अभी तक प्रस्तुत नहीं हुआ है।
रामकृष्ण परमहंस को जानना प्रत्यक्षत: ईश्वर को जानने जितना कठिन है-ऐसा सभी ज्ञान-संपन्न, अध्यात्म, संपन्न, वैराग्य संपन्न, तंत्रविद्या-संपन्न और सकल विद्या-संपन्न विद्वान कहते आए हैं। परमहंस के चरित्र से भारतीय विद्वान तो प्रभावित हैं ही, विदेशी विद्वान भी आश्चर्यचकित तथा प्रभावित हैं। सुविख्यात फ्रेंच साहित्यकार एवं तत्त्वज्ञ रोम्याँ रोलाँ ने जब श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में पढ़ा तब वे बेलूर मठ में आए और उन्होंने उनके संबंध में तमाम जानकारियाँ प्राप्त कीं। यह घटना श्री रामकृष्ण परमहंस के समाधि लेने के चालीस वर्ष बाद की है। विश्व-भ्रमण करनेवाला अनुभूति प्राप्त यह लेखक जब उनके बारे में लिखने लगा तो लिखते-लिखते सोचने लगा-
‘इस अगम्य व्यक्तित्व का स्वरूप क्या है? क्या सच में ईश्वर जन्म लेता है? यह परमेश्वर की संवेदना है या प्रत्यक्ष पदार्पण? उनका जन्म लेना कल्पना है या संभ्रमित मन की आभासात्मक आकृति ? क्या उसका अस्तित्व, यानी जीवात्मा परमात्मा का अंश है?’ इन प्रश्नों का उत्तर जब रोम्याँ रोलाँ खोजने लगे तो उन्होंने भारतीय वैदिक साहित्य, ऋषि-परंपरा, संस्कृति, आचार-विचार संहिता, मनोभावना से संलग्न देशवासी होने से स्वतंत्र विचार-शक्ति मैंने पाई है। भारतीय संस्कृति पर मेरा पूर्ण विश्वास है, श्रद्धा है। मैं श्री रामकृष्ण को अपना अंतरंग मानता हूँ। मैं उन्हें उनके शिष्य तथा भक्तों की तरह भगवान् नहीं मानता, मैं उनके महामानव की अर्थात् ईश्वरीय गुणों की अधिकता मानता हूँ।’
रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन में कहीं भी चमत्कार नहीं किए हैं, किंतु अपने जीवन के प्रारंभ से ही उन्हें दिव्यानुभूति होने लगी थी। ऐसा भी कहा जा सकता है कि उनका जन्म ही दिव्यानुभूति से हुआ है और इन्हीं अनुभूतियों द्वारा उन्हें ईश्वर-दर्शन हुआ है। ईश्वरावतार लेने का प्रयोजन उनके जन्म से पहले ही उपस्थित है। प्रयोजन के बाद ही ईश्वर जन्म लेता है। रामकृष्ण का जन्म प्रयोजन भारत के तत्कालीन वातावरण में आवश्यक था।
विदेशी आक्रमण होने से भारत की आंतरिक सुव्यवस्था खंडित हो गई थी। मुसलिम यहाँ के निवासी हो गए। अंग्रेज व्यापार के लिए भारत आए और वे अपने पाँव फैलाते-फैलाते यहाँ के शासक बन बैठे। चारों ओर अत्याचार, अनाचार और अनीति का बोलबाला था। धर्म क्षत-विक्षत होने लगा। साधु लोगों का बुरा हाल था। सामान्य जनता संभ्रमित थी। केवल राज से ही नहीं, धर्म-कारण से भी संपूर्ण भारत संम्रभित था। ‘अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग’ और आदमी-आदमी का अपना-अपना झुंड, यानी रोज एक नए पंथ का निर्माण-देश की स्थिति ऐसी थी। संस्कारहीन समाज में संस्कृति का क्षय होने लगा था। ऐसे समय में ईश्वर ही सबका तारणहार था। अत: श्री रामकृष्ण का जन्म हुआ।
पं. क्षुदिराम एवं उनकी पत्नी चंद्रमणि अत्यंत धर्मनिष्ठ, सत्यप्रिय और सत्यशील थे। उनके घर में भगवान विष्णु ने जन्म लेने का निश्चय किया। पं. क्षुदिराम विरक्ति तथा वैराग्य लेना चाहते थे। उसी समय भगवान विष्णु ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा, ‘मैं तुम्हारे घर में जन्म लेना चाहता हूँ।’ पं. क्षुदिराम काशी क्षेत्र में थे तथा चंद्रमणि को बार-बार दिव्य स्वप्न तथा दिव्यानुभूति होने लगी थी। कभी शिव मंदिर की शिव शक्ति, कभी भगवान विष्णु का प्रत्यक्ष दर्शन उसे संभ्रमित करता था। उसे अभिमंत्र तथा अनाहत नाद स्पष्ट सुनाई देते थे। प्रत्यक्ष: भगवान विष्णु उसकी शय्या पर आकर बैठते थे। श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के जन्म के समय भी उनकी माताओं को दिव्यानुभूति होती थी। भगवान महावीर एवं भगवान बुद्ध की माताओं को भी ऐसी दिव्य अनुभूति होती थी।
पं. क्षुदिराम ने अपने इस नवजात शिशु का नाम ‘गदाधर’ रखा। संन्यास-धर्म की दीक्षा लेने के बाद उन्हें सब जो राम, जो कृष्ण वही रामकृष्ण कहने लगे। आध्यात्मिक श्रेष्ठता के कारण उन्हें ‘परमहंस’ की उपाधि प्राप्त हुई। रामकृष्ण के भक्तगण उन्हें प्रेम तथा आदर से ‘ठाकुरजी’ कहते थे। बचपन से ही उन्हें भक्तिमार्ग अच्छा लगा था। आगे चलकर तो उन्होंने नवधा भक्ति, अनेक साधनाएँ, तंत्र विद्या, योग विद्या, वैराग्य साधना पर अपना पूर्ण अधिकार प्राप्त किया। धर्म-साधना करते-करते उन्होंने इसलाम धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म एवं ईसाई धर्म-साधना की और बाद में अपने प्रिय शिष्ट नरेन्द्र से कहा, ‘नरेंद्र, विश्व के सभी धर्मों के मानवता-धर्म पर आधारित होने के बावजूद स्वधर्म ही श्रेष्ठ है। सब धर्मों के प्रति आदर-भाव रखते हुए भी अपने धर्म के प्रति स्वयं को समर्पित करना।’ अपने विचारों की यही विजय-पताका उन्होंने अखिल विश्व में फहराई।
स्वामी विवेकानंद अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में कहते हैं, ‘जिनके स्नेह का प्रवाह अबाध गति से सबकी ओर बह रहा है, जो लोकातीत हैं, और जिनके द्वारा लोक-हित की रक्षा होती है, जो जानकी के प्राण हैं वे अनुपम, भक्ति द्वारा आवृत्त ज्ञानमय श्रीराम अवतार हैं। जो कुरुक्षेत्र युद्ध के प्रलयंकर निनाद से गुंजित आकाश को शांत करनेवाले, माया-मोह के अंधकार को दूर करनेवाले, गीता-ज्ञान का अमृत देनेवाले श्रीकृष्ण हैं-वहीं है श्री रामकृष्ण।
काल-प्रवाह में प्रवहमान होते जा रहे धर्म को सार्वलौकिक, सार्वकालिक और सार्वदेशिक बनाना ही लोक-हितकारी श्री रामकृष्ण का जन्म प्रयोजन है, ऐसा स्वामी विवेकानंद मानते हैं। रामकृष्ण की नानाविध भक्ति और साधना नया आदर्श प्रस्थापित करती है। श्री रामकृष्ण को अक्षर-ज्ञान-कितना था अथवा था भी या नहीं, यह मालूम नहीं। उन्हें पाठशाला में नित्य भेजा जाता था, किंतु वे कभी लोहार के यहाँ तो कभी कुम्हार के यहाँ जाकर बैठ जाते थे। किंतु प्रज्ञावंत जो भी है उसका ज्ञान कभी सीमित नहीं होता।
श्री रामकृष्ण की भक्ति अनुपम थी। काली माता के दर्शन प्राप्त करने के लिए वे अनेक मानसिक, शारीरिक कष्ट उठाते रहे। आवेग, आवेश, क्रोध, रुदन, संताप, नैराश्य और फिर से पुन: आग्रह तथा अंत में दर्शन स्थिति, अद्वैत स्थिति। मधुरा भक्ति में वे श्रीकृष्ण-विरहिनी राधा बन गए थे। वही मानसिक परिवर्तन उनमें दिखाई दिया। मन-मीत श्रीकृष्ण का दर्शन जब तक नहीं तब तक आकुल रहना-यह उनकी मन:स्थिति थी। उन्होंने स्त्री परिधान तक धारण किया। उनका स्वर भी स्त्री के समान मधुर बन गया। इतना ही नहीं, उनके शरीर-धर्म बदलकर स्त्री शरीर-धर्म शुरू हो गए। उनकी यह अवस्था देखकर शास्त्र, पुराण, वेद उपनिषद् भी मौन रहे। पुरुष-धर्म से स्त्री-धर्म शुरू होना और श्रीकृष्ण के दर्शन होने के बाद फिर पुरुष-धर्म में वापस आना-यह कल्पनातीत सत्य घटना उनके जीवन में घटित हुई। ‘रुद्रयामल, ‘षडन्वयमहारत्न’, ‘वायवीय संहिता’, शारदा विश्वसार’-इन ग्रंथों के अनुसार शांभवी शाक्ति, और मांत्री-ये तीन प्रकार की दीक्षाएँ सर्वज्ञानी शिष्य को एक के उपरांत एक दी जाती हैं। कभी-कभी एक दीक्षा लेने में ही पूरा जीवन लग जाता है। किंतु श्री रामकृष्ण द्वारा एक साथ ये दीक्षाएँ प्राप्त करने के बाद भी उनके मन में अशांति रही।
श्री रामकृष्ण अपने मन में कुछ भी ठान लेते तो उसे पूरा करके ही दम लेते। उनके कक्ष में एक वाक्य लिखा रहता था-
इहासने शुष्यतु मे शरीरं त्वगतस्थि मासं प्रलयं च यातु।
अप्राप्यबोधि: बहुकल्प दुर्लभा: नैवासनात् कायमतश्यालिष्यते।।
अप्राप्यबोधि: बहुकल्प दुर्लभा: नैवासनात् कायमतश्यालिष्यते।।
-अर्थात् जब तक मुझे सत्य के दर्शन नहीं होते तब तक मैं ध्यान-धारण
करूँगा। इसमें मेरा शरीर नष्ट हो गया तो भी मुझे कोई दु:ख नहीं
होगा।’
यही कारण था कि वे सकल सिद्धि-संपन्न हो गए। उन्होंने सभी साधनाएँ कीं। उन्हें योगेश्वरी भैरवी और तोतापुरीजी ने वेदांत का ज्ञान दिया। निरक्षर रामकृष्ण अक्षर ब्रह्म के साक्षात्कारी हो गए। सर्वधर्म-समभाव, विश्वात्मक बंधुत्व-दृष्टि रामकृष्ण के जीवन का लक्ष्य थी। रामकृष्ण अपने बचपन में और आगे भी तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त विषमता को देखकर व्यथित थे।
फिर भी रानी रासमणि द्वारा बनवाए गए जगदंबा के मंदिर में प्रसाद ग्रहण करने से इनकार कर दिया था, किंतु बाद में अज्ञानवश मन में आई हुई इस परंपरा दृष्टि को तोड़ने पर वे विवश हो गए। भैरवी ब्राह्मणी से तंत्र-साधना का ज्ञान प्राप्त करते समय उनके मन में विषमता की कोई भावना नहीं थी। श्मशान में जाना, शवों के साथ रहना, आदि क्रियाएँ उन्होंने की हैं। इसके बाद ही स्पृश्य-अस्पृश्य, उच्च-निम्न व ज्येष्ठ-कनिष्ठ जैसी विषमता पूर्णरूप से नष्ट हो गई। इसीलिए वे अस्पृश्य के घर झाड़ू तक लगाने लगे। चराचर में उन्हें ब्रह्मरूप दिखाई देने लगा। इस भावना का उच्चतम रूप लोकोद्वार के रूप में है। उनके कालखंड में अनेक संप्रदाय-पंथ थे, अनेक मत तथा आचार-विचार थे, द्वैत मत, अद्वैत मत, द्वैताद्वैत मत, विशिष्टाद्वैत मत और चिंत्याचिंत्य मत प्रचलित थे। इन सभी मतों के प्रवाह अंत में ईश्वर की ओर ही जानेवाले थे, किंतु जनता संभ्रमित थी। वैष्णव संप्रदाय में भी ऐसे अनेक विचार-प्रवाह थे। इन संप्रदायों में वैदिक कर्मकांड योग, भोग-इनका सम्मिश्रण था। इन सब स्थितियों में ‘मैं चराचर में भगवान का रूप देखता हूँ। ऐसा कहते हुए रामकृष्ण परमहंस ने मानव एकात्म की भावना बढ़ाने का महत् कार्य किया है। अपने इस उपन्यास ‘परमहंस, फिर आओ’ में मैंने इन सब तत्कालीन परिस्थितियों का संक्षेप में वर्णन किया है।
रामकृष्ण परमहंस के अगम्य जीवन का आकलन ज्येष्ठ-श्रेष्ठ विचारवंतों के लिए भी जब एक पहेली रहा है, तो मुझ जैसी सामान्य लेखिका का उनके जीवन को पूर्णत: समझने में असमर्थ रहना स्वाभाविक ही है, किंतु जितना जान पाई हूँ उतना मैंने पाठकों के समक्ष रखने का विनम्र प्रयास किया है। रामकृष्ण परमहंस के जीवन-चरित को लेखनीबद्ध करना यद्यपि बड़ा कठिन कार्य था, कितु अनजाने ही कोई अज्ञात प्रेरणा मुझे उस कार्य को संपन्न करने के लिए प्रेरित करती रही। यद्यपि रामकृष्ण परमहंस के जीवन पर लिखी गई अनेक पुस्तकें तथा चरित-ग्रंथ उपलब्ध हैं, अनेक भाषाओं में उनका चरित वाङ्मय प्रकाशित हुआ है, किंतु उनके जीवन पर आधारित कोई भी उपन्यास हिंदी में अब तक प्रकाशित नहीं हो सका है। प्रस्तुत उपन्यास इस अभाव की पूर्ति का एक विनम्र प्रयास है।
यह औपन्यासिक कृति पहले मराठी में प्रकाशित थी और अब हिंदी पाठकों के लिए प्रस्तुत है इसका हिंदी अनुवाद। आशा है, पाठकगण इसे पसंद करेंगे।
यही कारण था कि वे सकल सिद्धि-संपन्न हो गए। उन्होंने सभी साधनाएँ कीं। उन्हें योगेश्वरी भैरवी और तोतापुरीजी ने वेदांत का ज्ञान दिया। निरक्षर रामकृष्ण अक्षर ब्रह्म के साक्षात्कारी हो गए। सर्वधर्म-समभाव, विश्वात्मक बंधुत्व-दृष्टि रामकृष्ण के जीवन का लक्ष्य थी। रामकृष्ण अपने बचपन में और आगे भी तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त विषमता को देखकर व्यथित थे।
फिर भी रानी रासमणि द्वारा बनवाए गए जगदंबा के मंदिर में प्रसाद ग्रहण करने से इनकार कर दिया था, किंतु बाद में अज्ञानवश मन में आई हुई इस परंपरा दृष्टि को तोड़ने पर वे विवश हो गए। भैरवी ब्राह्मणी से तंत्र-साधना का ज्ञान प्राप्त करते समय उनके मन में विषमता की कोई भावना नहीं थी। श्मशान में जाना, शवों के साथ रहना, आदि क्रियाएँ उन्होंने की हैं। इसके बाद ही स्पृश्य-अस्पृश्य, उच्च-निम्न व ज्येष्ठ-कनिष्ठ जैसी विषमता पूर्णरूप से नष्ट हो गई। इसीलिए वे अस्पृश्य के घर झाड़ू तक लगाने लगे। चराचर में उन्हें ब्रह्मरूप दिखाई देने लगा। इस भावना का उच्चतम रूप लोकोद्वार के रूप में है। उनके कालखंड में अनेक संप्रदाय-पंथ थे, अनेक मत तथा आचार-विचार थे, द्वैत मत, अद्वैत मत, द्वैताद्वैत मत, विशिष्टाद्वैत मत और चिंत्याचिंत्य मत प्रचलित थे। इन सभी मतों के प्रवाह अंत में ईश्वर की ओर ही जानेवाले थे, किंतु जनता संभ्रमित थी। वैष्णव संप्रदाय में भी ऐसे अनेक विचार-प्रवाह थे। इन संप्रदायों में वैदिक कर्मकांड योग, भोग-इनका सम्मिश्रण था। इन सब स्थितियों में ‘मैं चराचर में भगवान का रूप देखता हूँ। ऐसा कहते हुए रामकृष्ण परमहंस ने मानव एकात्म की भावना बढ़ाने का महत् कार्य किया है। अपने इस उपन्यास ‘परमहंस, फिर आओ’ में मैंने इन सब तत्कालीन परिस्थितियों का संक्षेप में वर्णन किया है।
रामकृष्ण परमहंस के अगम्य जीवन का आकलन ज्येष्ठ-श्रेष्ठ विचारवंतों के लिए भी जब एक पहेली रहा है, तो मुझ जैसी सामान्य लेखिका का उनके जीवन को पूर्णत: समझने में असमर्थ रहना स्वाभाविक ही है, किंतु जितना जान पाई हूँ उतना मैंने पाठकों के समक्ष रखने का विनम्र प्रयास किया है। रामकृष्ण परमहंस के जीवन-चरित को लेखनीबद्ध करना यद्यपि बड़ा कठिन कार्य था, कितु अनजाने ही कोई अज्ञात प्रेरणा मुझे उस कार्य को संपन्न करने के लिए प्रेरित करती रही। यद्यपि रामकृष्ण परमहंस के जीवन पर लिखी गई अनेक पुस्तकें तथा चरित-ग्रंथ उपलब्ध हैं, अनेक भाषाओं में उनका चरित वाङ्मय प्रकाशित हुआ है, किंतु उनके जीवन पर आधारित कोई भी उपन्यास हिंदी में अब तक प्रकाशित नहीं हो सका है। प्रस्तुत उपन्यास इस अभाव की पूर्ति का एक विनम्र प्रयास है।
यह औपन्यासिक कृति पहले मराठी में प्रकाशित थी और अब हिंदी पाठकों के लिए प्रस्तुत है इसका हिंदी अनुवाद। आशा है, पाठकगण इसे पसंद करेंगे।
शुभांगी भडभडे
यह कृति क्यों ?
यह तथ्य सर्वथा उपयुक्त है कि किसी साहित्यिक कृति के मूल्यांकन का
दायित्व पाठकों पर छोड़ देना ही उचित होता है। अत: मैं यहाँ केवल उन बातों
की चर्चा कर रहा हूँ, जिनके कारण मैंने इस औपन्यासिक कृति
‘परमहंस,
फिर आओ’ को मराठी से हिंदी में अनुवादित करना आवश्यक समझा।
श्री रामकृष्ण परमहंस के विचारों, चिंतन, प्रवचनों आदि के बारे में विपुल सामग्री उपलब्ध होने के बावजूद आम पाठक के लिए, जिसे ललित साहित्य पढ़ने में रुचि होती है, उस महापुरुष के जीवन-चरित पर कोई कृति उपलब्ध नहीं थी। हिंदी साहित्य में इसका अभाव अखरता था।
महापुरुषों के बारे में या तो उनके विचार सुन-पढ़कर अथवा उनकी जीवन-गाथा जानकर ही प्रेरणा ली जा सकती है। मराठी भाषा में पिछले लगभग दो दशकों से आत्मकथाओं की बाढ़ सी आ गई है। साथ ही ऐतिहासिक, धार्मिक एवं पौराणिक पात्रों पर ललित कृतियाँ, विशेषकर उपन्यास लिखे जाने लगे हैं। हिंदी में ये पूरी तरह से अनुपलब्ध तो नहीं है, किंतु बहुत ही कम उपलब्ध हैं। मराठी में सुश्री शुभांगी भडभडे का यह पच्चीसवां उपन्यास है, जो रामकृष्ण परमहंस के जन्म-शताब्दी वर्ष के अवसर पर मराठी में प्रकाशित हुआ।
इस उपन्यास ने मुझे अपने कथ्य की ओर आकर्षित किया, इसका भी महत्त्वपूर्ण कारण है। इसमें कहीं भी रामकृष्ण को ‘अवतारी पुरुष’ या ‘ईश्वर’ बताने की चेष्टा नहीं की गई है, न ही कहीं किसी चमत्कार का सहारा लेकर उनका चित्रण किया गया है। लेखिका ने बुद्धिनिष्ठ दृष्टिकोण से रामकृष्ण को देखा और चित्रित किया है मेरे अपने विचार में महापुरुषों का ऐसा चरित्र-चित्रण महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए मैंने इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद किया।
जैसा कि इस उपन्यास के मूल मराठी संस्करण की प्रस्तावना में महानुभाव संप्रदाय के प्रकांड अध्येता तथा नागपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति डॉ. वि.भि. कोलते ने लिखा है-‘विश्व-बंधुत्व की दृष्टि ही रामकृष्ण के जीवन का सार है। रामकृष्ण को न केवल अपने शैशव में, अपितु आगे चलकर प्रौढ़ावस्था में भी समाज-जीवन में व्याप्त विषमता सालती रही थी। मछुआरिन रानी रासमणि द्वारा निर्मित जगदंबा के मंदिर में प्रसाद ग्रहण करने में पहले उन्हें संकोच हुआ था किंतु बाद में प्रसाद ग्रहण करके उन्होंने समता का आदर्श स्थापित किया। इसीलिए व्रतबंध के बाद पहली भिक्षा उन्होंने जन्मदात्री माँ से नही, अपितु दाई का काम करनेवाली धनिया लुहारिन से लेने की जिद की थी।’...
यह रामकृष्ण के जीवन का समतावादी अधिष्ठान है, जो समाज के सभी भेदों से उन्हें ऊपर उठाता गया, साथ ही उनके शिष्यों में भी यही भावना जाग्रत कर गया।
मूल उपन्यास में रामकृष्ण के जीवन की ये सारी विशेषताएँ लेखिका ने कहीं पर भी भावुकता में बहे बिना यथार्थ रूप में उतारी हैं। साथ ही धर्म, संस्कृति आदि में समाज की आस्था बढ़ाने के लिए रामकृष्ण किस प्रकार जीवन भर कार्यरत थे, इसका भी ललित चित्रण उन्होंने किया है, जो आज अनास्था में डूबते जा रहे मानव के लिए अनुपम प्रेरणास्रोत बन सकता है।
रामकृष्ण परमहंस का जीवनकाल सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम के आगे-पीछे का कालखंड है, किंतु स्वयं रामकृष्ण के जीवन में उस क्रांति का कोई उल्लेख या असर दिखाई नहीं देता। वह जितनी मात्रा में रहा होगा उतना ही इस उपन्यास में भी आया है। परमार्थ साधना को समाज-प्रवरण करने के लिए रामकृष्ण उसे आस्थावान् बनाना चाहते थे और उसी प्रयास में वे लग गए थे। वे जिस किसी बात के पीछे लग जाते थे उसी में खो जाते थे, सुध-बुध गंवा बैठते थे। यह प्रसंग तो पाठक प्रस्तुत उपन्यास में पढ़ेंगे ही, साथ ही मुझे लेखिका की यह यथार्थवादी अलिप्तता भी बहुत रास आई।
तत्कालीन भारत में ईसाई मिशनरियों द्वारा भारतीयों का धर्मांतरण कर उन्हें ईसाई बनाने का जो सिलसिला चल पड़ा था, प्रस्तुत उपन्यास में उसकी अनेदेखी नहीं की गई है। इसमें पथ-प्रदर्शन भी किया गया है। यह इस उपन्यास की अतिरिक्त विशेषता है।
श्री रामकृष्ण परमहंस के विचारों, चिंतन, प्रवचनों आदि के बारे में विपुल सामग्री उपलब्ध होने के बावजूद आम पाठक के लिए, जिसे ललित साहित्य पढ़ने में रुचि होती है, उस महापुरुष के जीवन-चरित पर कोई कृति उपलब्ध नहीं थी। हिंदी साहित्य में इसका अभाव अखरता था।
महापुरुषों के बारे में या तो उनके विचार सुन-पढ़कर अथवा उनकी जीवन-गाथा जानकर ही प्रेरणा ली जा सकती है। मराठी भाषा में पिछले लगभग दो दशकों से आत्मकथाओं की बाढ़ सी आ गई है। साथ ही ऐतिहासिक, धार्मिक एवं पौराणिक पात्रों पर ललित कृतियाँ, विशेषकर उपन्यास लिखे जाने लगे हैं। हिंदी में ये पूरी तरह से अनुपलब्ध तो नहीं है, किंतु बहुत ही कम उपलब्ध हैं। मराठी में सुश्री शुभांगी भडभडे का यह पच्चीसवां उपन्यास है, जो रामकृष्ण परमहंस के जन्म-शताब्दी वर्ष के अवसर पर मराठी में प्रकाशित हुआ।
इस उपन्यास ने मुझे अपने कथ्य की ओर आकर्षित किया, इसका भी महत्त्वपूर्ण कारण है। इसमें कहीं भी रामकृष्ण को ‘अवतारी पुरुष’ या ‘ईश्वर’ बताने की चेष्टा नहीं की गई है, न ही कहीं किसी चमत्कार का सहारा लेकर उनका चित्रण किया गया है। लेखिका ने बुद्धिनिष्ठ दृष्टिकोण से रामकृष्ण को देखा और चित्रित किया है मेरे अपने विचार में महापुरुषों का ऐसा चरित्र-चित्रण महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए मैंने इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद किया।
जैसा कि इस उपन्यास के मूल मराठी संस्करण की प्रस्तावना में महानुभाव संप्रदाय के प्रकांड अध्येता तथा नागपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति डॉ. वि.भि. कोलते ने लिखा है-‘विश्व-बंधुत्व की दृष्टि ही रामकृष्ण के जीवन का सार है। रामकृष्ण को न केवल अपने शैशव में, अपितु आगे चलकर प्रौढ़ावस्था में भी समाज-जीवन में व्याप्त विषमता सालती रही थी। मछुआरिन रानी रासमणि द्वारा निर्मित जगदंबा के मंदिर में प्रसाद ग्रहण करने में पहले उन्हें संकोच हुआ था किंतु बाद में प्रसाद ग्रहण करके उन्होंने समता का आदर्श स्थापित किया। इसीलिए व्रतबंध के बाद पहली भिक्षा उन्होंने जन्मदात्री माँ से नही, अपितु दाई का काम करनेवाली धनिया लुहारिन से लेने की जिद की थी।’...
यह रामकृष्ण के जीवन का समतावादी अधिष्ठान है, जो समाज के सभी भेदों से उन्हें ऊपर उठाता गया, साथ ही उनके शिष्यों में भी यही भावना जाग्रत कर गया।
मूल उपन्यास में रामकृष्ण के जीवन की ये सारी विशेषताएँ लेखिका ने कहीं पर भी भावुकता में बहे बिना यथार्थ रूप में उतारी हैं। साथ ही धर्म, संस्कृति आदि में समाज की आस्था बढ़ाने के लिए रामकृष्ण किस प्रकार जीवन भर कार्यरत थे, इसका भी ललित चित्रण उन्होंने किया है, जो आज अनास्था में डूबते जा रहे मानव के लिए अनुपम प्रेरणास्रोत बन सकता है।
रामकृष्ण परमहंस का जीवनकाल सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम के आगे-पीछे का कालखंड है, किंतु स्वयं रामकृष्ण के जीवन में उस क्रांति का कोई उल्लेख या असर दिखाई नहीं देता। वह जितनी मात्रा में रहा होगा उतना ही इस उपन्यास में भी आया है। परमार्थ साधना को समाज-प्रवरण करने के लिए रामकृष्ण उसे आस्थावान् बनाना चाहते थे और उसी प्रयास में वे लग गए थे। वे जिस किसी बात के पीछे लग जाते थे उसी में खो जाते थे, सुध-बुध गंवा बैठते थे। यह प्रसंग तो पाठक प्रस्तुत उपन्यास में पढ़ेंगे ही, साथ ही मुझे लेखिका की यह यथार्थवादी अलिप्तता भी बहुत रास आई।
तत्कालीन भारत में ईसाई मिशनरियों द्वारा भारतीयों का धर्मांतरण कर उन्हें ईसाई बनाने का जो सिलसिला चल पड़ा था, प्रस्तुत उपन्यास में उसकी अनेदेखी नहीं की गई है। इसमें पथ-प्रदर्शन भी किया गया है। यह इस उपन्यास की अतिरिक्त विशेषता है।
मोरेश्वर तपस्वी
एक
असीम आकाश विस्तृत था। शुक्र तारा अपने पूरे तेज के साथ दीप्तिमान हो रहा
था। क्षुदिराम ने अनुमान लगाया कि उत्तर रात्रि बीतने को आ गई है। सर्वत्र
नीरव सन्नाटा छाया था।
घास-फूस की झोंपड़ी की छत से चंद्र-किरणें गोमय से लिपी जमीन पर बढ़िया-सी नक्काशी उतार रही थीं। अमराई के पेड़ों पर झूलती-झूमती चंद्र-किरणें अब कुछ ही क्षणों में अदृश्य होने वाली हैं, पुरवैया ठिठककर थम जाएगी और प्राची के क्षितिज पर अरुण के केसरिया पदचिह्न उमड़ आएँगे-क्षुदिराम यह सब समझ रहे थे।
वैसे क्षुदिराम को नींद कम ही आती थी। आज तो वे सोए ही नहीं थे। चंद्रमणि तो देखते-ही-देखते कब की सो गई थी, किंतु उत्तर रात्रि बीतकर भोर होने को थी, फिर भी क्षुदिराम की गायब हो चुकी नींद पलक भर भी उनके पास नहीं फटकी थी। उठने का प्रहर आ रहा था। विचारक क्षुदिराम के मन में विचारों का अंबार-सा लग गया था। मन जबरदस्त उद्वेलित था। चक्रवात में उफनता सागर किनारे को क्षत-विक्षत कर देता है। विचारों के थपेड़ों ने उनके मन का भी हाल वैसा ही बना डाला था। आज क्षुदिराम श्रांत थे, विकल थे; हार गए थे। रह-रहकर एक ही प्रश्न उन्हें परेशान किए जा रहा था-‘सत्य या असत्य ?’
असत्य कहने में तो आसान होता है। असत्य की धारा प्रवाहित हो जाए तो सत्य को अपने साथ बहा ले जाती है। सत्य उसकी मझधार में खो जाता है। सत्य की खोज करनेवाले को असत्य की तेज धारा के विरुद्ध प्रचंड संघर्ष करना पड़ता है। यह धारा तेज होती है और विराट् भी। कहने को तो उसके विरुद्ध तैरना आसान है, किंतु प्रत्यक्ष में बहुत कठिन।
क्षुदिराम सोच रहे थे-‘आज तक हमने धर्म में आस्था रखी, मनुष्य की भलमनसाहत पर भरोसा किया, किंतु आज न तो धर्म बचा है और न भलमनसाहत। न तो तेज है, न अस्मिता। बस, बचा है केवल वृथा अभिमान, व्यर्थ का शौर्य और भ्रांत प्रतिष्ठा का भाव। मानो सत्य ईश्वर से कहीं कोसों दूर जा बैठा है। देखकर मन को अपार क्लेश होता है, किंतु हम क्या कर सकते हैं ? विवश हैं। आज असत्य की ही विजय होती दिखाई दे रही है।
रामानंद राय सवेरे बैलगाड़ी भिजवाएगा। उसके साथ न्यायालय जाना है-असत्य को सत्य बताने के लिए, झूठी गवाही देने के लिए।
हमारे पिताजी बड़े स्वाभिमानी पुरुष थे। कहा करते थे-‘क्षुदिराम चाहे कितनी ही विपदाएँ आएँ और संघर्ष क्यों न करना पड़े, सत्य का पक्ष कभी न छोड़ना। बेटा, सत्य ही ईश्वर है। आज असत्य से मोह हो गया तो कल सत्य को प्रकट होने पर पछताना पड़ेगा।’
पिताजी की वह सीख आज कानों में चीख रही है। रामानंद राय को कितना मनाया कि भई, हमें इसमें न उलझाओ। मेरी गवाही आखिर लेते ही क्यों हो ? किंतु वह मानता ही नहीं।
रामानंद राय देरा गाँव का मालगुजार तथा बड़ा आदमी है। विशाल महल के सेहन में चाँदी चंदन के झूले पर बैठा झूलता रहता है। पीतल के सीखचे झूले के साथ झूलते चर्रर्र-मर्रर्र आवाज करते हैं। उसपर विराजमान रामानंद राय चौबीसों घंटे मुँह में तांबूल चबाए रहता है और सामने रखा रहता है पीकदान।
वैसे, गाँव में कोई झगड़ा-फसाद नहीं था, किंतु यह मालगुजार दाने डालकर मुरगे लड़वाता रहता, उसी में आनंद लेता रहता। उसी अंदाज में यह लोगों में कुछ-न-कुछ झगड़े भी लगा ही देता। फिर झूठे गवाह खड़े करता और गरीबों को चूस लेता। किसी में हिम्मत नहीं थी कि उसके विरुद्ध आवाज उठाता।
एक दिन सायंकाल जब क्षुदिराम बच्चों को संस्कृत पढ़ाकर लौट रहे थे, तब रामानंद राय ने झूले पर से ही आवाज दी-
‘‘पंडिज्जी, जरा इहाँ आइयाँ भला।’’
‘‘जी, अभी आया।’’
ड्योढ़ी पार कर क्षुदिराम भीतर गए। प्रशस्त आंगन में बीचोबीच तुलसी-वृदांवन लगाया गया था। उसके सामने दिवली जल रही थी। उन्होंने हाथ-मुँह धोया और मुख्य महल की सीढ़ियाँ चढ़कर आए।
मुंह में तांबूल दबाए रामानंद राय ने कहा, ‘कहिए पंडिज्जी ! क्या हाल है ?’’
अकारण ही किसी को दुत्कारना या दु:ख पहुँचाना क्षुदिराम की आदत नहीं थी। सो कह दिया, ‘‘ईश्वर की दया से सब हालचाल कुशल-मंगल है। ईश्वर ही सबका कर्ता है।’’
‘‘किंतु क्रिया हम हैं, पंडिज्जी। कर्म को भी हम ही बदल देते हैं। कर्म और क्रिया-दोनों को बदलनेवाले आपके कर्ता भी हम ही हैं। और शायद इसीलिए ईश्वर को सबका कर्ता भी मानते हों। ईश्वर के बिना किसी और को कर्ता मानना इसीलिए आपको नहीं भाता। किंतु सच बताइए, पंडिज्जी, आज धर्म रहा ही कहाँ ? अजी, स्वयं को बड़े धर्म-मातंड कहलानेवाले भी अधर्माचरण करने लगे हैं।’’ रामानंद बड़बड़ाते रहे और बादलों-सी गड़गड़ाहट करते हुए हँसने भी लगे।
‘‘अपने को क्या किसी से लेना देना ! अपनी राह चलना ही अच्छा होता है।’’ क्षुदिराम कह गए।
रामानंद गरजे और वहाँ उपस्थित लोगों से कहने लगे, ‘‘देखो, भाइयों, मैंने कहा था न ! इन पंडिज्जी की हाल तो अँधोटी बाँधे घोड़े जैसा हो गया है। अरे पंडिज्जी, इतना अधर्म फैल गया है तो आपका वह श्रीकृष्ण इस अधर्म का नाश करने आता क्यों नहीं अब तक ? अरे आएगा भी कैसे ? हम लोग तो ईश्वर के प्रति अंधश्रद्धाओं को पोसे जा रहे थे। धर्म की दुहाई दे-देकर हम सत्यनिष्ठा का व्रत लिये चल रहे थे। तभी तो हमारा देश विश्व में सबसे पिछड़ गया और उधर उन अंग्रेजों को देखो, सात समंदर पार कर यहाँ आए। अचंभे में डालनेवाले चमत्कार पर चमत्कार कर रहे हैं। आज ईश्वर तो वे हैं।’’
‘‘बड़े बाबू, दूसरे देश से आए हुए भला भगवान् कैसे ?’’
‘‘स्वर्ग से आए हुए ईश्वर होते हैं, वैसे।
सभी ने ठहाका मारा। पंडितजी सरीखे को किसी-न-किसी मामले में उलझाए बिना उन लोगों को भला चैन कैसे आता !’ पंडितजी के आने पर सबको हार्दिक संतोष हुआ था। हर कोई अपने ढंग से उन्हें उलाहना दे रहा था, ताने कस रहा था, उपहास उड़ा रहा था। बेचारे पंडितजी सीधे-सीदे उत्तर दे रहे थे।
‘‘पंडिज्जी, आज ईश्वर नहीं, मैं आपका कर्ता हूँ। एक चमत्कार की नाई किसी का नामोनिशान मिटा देना मेरे लिए चुटकी का खेल है। ‘हाँ, को ‘नहीं’ में बदलने का सामर्थ्य मुझमें है। प्रतीति लेना चाहेंगे आप ?’’
‘‘बड़े बाबूजी, यह तो मैं कुछ नहीं जानता, किंतु इतना ही कहता हूँ, ईश्वर से श्रेष्ठ कोई नहीं। जब-जब अनाचार बढ़ता है तब-तब मानव-मानव में राक्षसी प्रवृत्तियाँ बढ़ जाती है। ईश्वर पुन: अवतार लेता है। उसके सामर्थ्य का पार हम नहीं पा सकते।’’
घास-फूस की झोंपड़ी की छत से चंद्र-किरणें गोमय से लिपी जमीन पर बढ़िया-सी नक्काशी उतार रही थीं। अमराई के पेड़ों पर झूलती-झूमती चंद्र-किरणें अब कुछ ही क्षणों में अदृश्य होने वाली हैं, पुरवैया ठिठककर थम जाएगी और प्राची के क्षितिज पर अरुण के केसरिया पदचिह्न उमड़ आएँगे-क्षुदिराम यह सब समझ रहे थे।
वैसे क्षुदिराम को नींद कम ही आती थी। आज तो वे सोए ही नहीं थे। चंद्रमणि तो देखते-ही-देखते कब की सो गई थी, किंतु उत्तर रात्रि बीतकर भोर होने को थी, फिर भी क्षुदिराम की गायब हो चुकी नींद पलक भर भी उनके पास नहीं फटकी थी। उठने का प्रहर आ रहा था। विचारक क्षुदिराम के मन में विचारों का अंबार-सा लग गया था। मन जबरदस्त उद्वेलित था। चक्रवात में उफनता सागर किनारे को क्षत-विक्षत कर देता है। विचारों के थपेड़ों ने उनके मन का भी हाल वैसा ही बना डाला था। आज क्षुदिराम श्रांत थे, विकल थे; हार गए थे। रह-रहकर एक ही प्रश्न उन्हें परेशान किए जा रहा था-‘सत्य या असत्य ?’
असत्य कहने में तो आसान होता है। असत्य की धारा प्रवाहित हो जाए तो सत्य को अपने साथ बहा ले जाती है। सत्य उसकी मझधार में खो जाता है। सत्य की खोज करनेवाले को असत्य की तेज धारा के विरुद्ध प्रचंड संघर्ष करना पड़ता है। यह धारा तेज होती है और विराट् भी। कहने को तो उसके विरुद्ध तैरना आसान है, किंतु प्रत्यक्ष में बहुत कठिन।
क्षुदिराम सोच रहे थे-‘आज तक हमने धर्म में आस्था रखी, मनुष्य की भलमनसाहत पर भरोसा किया, किंतु आज न तो धर्म बचा है और न भलमनसाहत। न तो तेज है, न अस्मिता। बस, बचा है केवल वृथा अभिमान, व्यर्थ का शौर्य और भ्रांत प्रतिष्ठा का भाव। मानो सत्य ईश्वर से कहीं कोसों दूर जा बैठा है। देखकर मन को अपार क्लेश होता है, किंतु हम क्या कर सकते हैं ? विवश हैं। आज असत्य की ही विजय होती दिखाई दे रही है।
रामानंद राय सवेरे बैलगाड़ी भिजवाएगा। उसके साथ न्यायालय जाना है-असत्य को सत्य बताने के लिए, झूठी गवाही देने के लिए।
हमारे पिताजी बड़े स्वाभिमानी पुरुष थे। कहा करते थे-‘क्षुदिराम चाहे कितनी ही विपदाएँ आएँ और संघर्ष क्यों न करना पड़े, सत्य का पक्ष कभी न छोड़ना। बेटा, सत्य ही ईश्वर है। आज असत्य से मोह हो गया तो कल सत्य को प्रकट होने पर पछताना पड़ेगा।’
पिताजी की वह सीख आज कानों में चीख रही है। रामानंद राय को कितना मनाया कि भई, हमें इसमें न उलझाओ। मेरी गवाही आखिर लेते ही क्यों हो ? किंतु वह मानता ही नहीं।
रामानंद राय देरा गाँव का मालगुजार तथा बड़ा आदमी है। विशाल महल के सेहन में चाँदी चंदन के झूले पर बैठा झूलता रहता है। पीतल के सीखचे झूले के साथ झूलते चर्रर्र-मर्रर्र आवाज करते हैं। उसपर विराजमान रामानंद राय चौबीसों घंटे मुँह में तांबूल चबाए रहता है और सामने रखा रहता है पीकदान।
वैसे, गाँव में कोई झगड़ा-फसाद नहीं था, किंतु यह मालगुजार दाने डालकर मुरगे लड़वाता रहता, उसी में आनंद लेता रहता। उसी अंदाज में यह लोगों में कुछ-न-कुछ झगड़े भी लगा ही देता। फिर झूठे गवाह खड़े करता और गरीबों को चूस लेता। किसी में हिम्मत नहीं थी कि उसके विरुद्ध आवाज उठाता।
एक दिन सायंकाल जब क्षुदिराम बच्चों को संस्कृत पढ़ाकर लौट रहे थे, तब रामानंद राय ने झूले पर से ही आवाज दी-
‘‘पंडिज्जी, जरा इहाँ आइयाँ भला।’’
‘‘जी, अभी आया।’’
ड्योढ़ी पार कर क्षुदिराम भीतर गए। प्रशस्त आंगन में बीचोबीच तुलसी-वृदांवन लगाया गया था। उसके सामने दिवली जल रही थी। उन्होंने हाथ-मुँह धोया और मुख्य महल की सीढ़ियाँ चढ़कर आए।
मुंह में तांबूल दबाए रामानंद राय ने कहा, ‘कहिए पंडिज्जी ! क्या हाल है ?’’
अकारण ही किसी को दुत्कारना या दु:ख पहुँचाना क्षुदिराम की आदत नहीं थी। सो कह दिया, ‘‘ईश्वर की दया से सब हालचाल कुशल-मंगल है। ईश्वर ही सबका कर्ता है।’’
‘‘किंतु क्रिया हम हैं, पंडिज्जी। कर्म को भी हम ही बदल देते हैं। कर्म और क्रिया-दोनों को बदलनेवाले आपके कर्ता भी हम ही हैं। और शायद इसीलिए ईश्वर को सबका कर्ता भी मानते हों। ईश्वर के बिना किसी और को कर्ता मानना इसीलिए आपको नहीं भाता। किंतु सच बताइए, पंडिज्जी, आज धर्म रहा ही कहाँ ? अजी, स्वयं को बड़े धर्म-मातंड कहलानेवाले भी अधर्माचरण करने लगे हैं।’’ रामानंद बड़बड़ाते रहे और बादलों-सी गड़गड़ाहट करते हुए हँसने भी लगे।
‘‘अपने को क्या किसी से लेना देना ! अपनी राह चलना ही अच्छा होता है।’’ क्षुदिराम कह गए।
रामानंद गरजे और वहाँ उपस्थित लोगों से कहने लगे, ‘‘देखो, भाइयों, मैंने कहा था न ! इन पंडिज्जी की हाल तो अँधोटी बाँधे घोड़े जैसा हो गया है। अरे पंडिज्जी, इतना अधर्म फैल गया है तो आपका वह श्रीकृष्ण इस अधर्म का नाश करने आता क्यों नहीं अब तक ? अरे आएगा भी कैसे ? हम लोग तो ईश्वर के प्रति अंधश्रद्धाओं को पोसे जा रहे थे। धर्म की दुहाई दे-देकर हम सत्यनिष्ठा का व्रत लिये चल रहे थे। तभी तो हमारा देश विश्व में सबसे पिछड़ गया और उधर उन अंग्रेजों को देखो, सात समंदर पार कर यहाँ आए। अचंभे में डालनेवाले चमत्कार पर चमत्कार कर रहे हैं। आज ईश्वर तो वे हैं।’’
‘‘बड़े बाबू, दूसरे देश से आए हुए भला भगवान् कैसे ?’’
‘‘स्वर्ग से आए हुए ईश्वर होते हैं, वैसे।
सभी ने ठहाका मारा। पंडितजी सरीखे को किसी-न-किसी मामले में उलझाए बिना उन लोगों को भला चैन कैसे आता !’ पंडितजी के आने पर सबको हार्दिक संतोष हुआ था। हर कोई अपने ढंग से उन्हें उलाहना दे रहा था, ताने कस रहा था, उपहास उड़ा रहा था। बेचारे पंडितजी सीधे-सीदे उत्तर दे रहे थे।
‘‘पंडिज्जी, आज ईश्वर नहीं, मैं आपका कर्ता हूँ। एक चमत्कार की नाई किसी का नामोनिशान मिटा देना मेरे लिए चुटकी का खेल है। ‘हाँ, को ‘नहीं’ में बदलने का सामर्थ्य मुझमें है। प्रतीति लेना चाहेंगे आप ?’’
‘‘बड़े बाबूजी, यह तो मैं कुछ नहीं जानता, किंतु इतना ही कहता हूँ, ईश्वर से श्रेष्ठ कोई नहीं। जब-जब अनाचार बढ़ता है तब-तब मानव-मानव में राक्षसी प्रवृत्तियाँ बढ़ जाती है। ईश्वर पुन: अवतार लेता है। उसके सामर्थ्य का पार हम नहीं पा सकते।’’
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