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मनुहारों के शिखर

लोकेश शुक्ल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16673
आईएसबीएन :978-1-61301-742-5

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लोकेश जी के गीतों का संग्रह

बस इतना कहना है....

 

कविता संभवत: मेरे पूज्य श्रद्धेय बाबा जी पं सरयू नारायण शुक्ल से वंशानुगत मेरी लेखनी में उतरी। बाबाश्री संस्कृत के छंदों का उसी छांदिक मीटर में अनुवाद किया करते थे। उनका शिव तांडव का देवनागरी में अनुवाद वाराणसी से चौपतिया आकार में प्रकाशित भी हुआ जो मंदिरों में गाया जाता था। छंदबद्ध कविता में डूबकर पढ़ने का आनंद मिलने से मैं इसी में रमने लगा और यदाकदा तुकबंदियाँ प्रारम्भ कर दीं। यह शौक शनै: शनै: कब परवान चढ़ने लगा मुझे पता ही नहीं चला। गीत, मुक्तक, दोहे, ग़ज़लें और छंदमुक्त कविताएँ लेखन का आधार बनीं।

कानपुर में सन् 64-65 के दौरान श्रद्धेय गीतकवि गोपालदास नीरज जी का डंका बजता था। उनकी गायन शैली मेरा मन मोह लेती थी। जब भी मुझे अवसर मिलता उन्हें अवश्य सुनने जाता। समय निकलता रहा उम्र के एक पड़ाव पर आकाशवाणी की विविध भारती सेवा कानपुर, में मैं उद्-घोषक के रूप में नियुक्त हो गया। करीब 12 वर्षों तक मैं केजुअल एनांउसर के रूप में आकाशवाणी से जुड़ा रहा। इस दौरान मेरा एक गीत आकाशवाणी से प्रसारित भी हुआ। उसके बाद एक ग़ज़ल प्रतिष्ठित समाचार पत्र 'दैनिक आज' में प्रकाशित हुई जिससे लिखने को बल मिला। यह 70 का दशक था। और फिर लिखने, सुनाने तथा काव्य गोष्ठियों में पढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया। 80 के दशक में कानपुर की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था 'श्रृंगार संध्या' से मैं बहुत गहनता से जुड़ गया जिसके प्रति वर्ष बहुत स्तरीय गीत कवि सम्मेलन होते थे। इसमें विशेषकर राष्ट्रीय स्तर के गीतकार आमंत्रित किये जाते थे। संस्था के संयोजक गीतकार शतदल और मैं था। इस मंच में लोकप्रिय गीतकार आदरणीय श्री नीरज जी, श्री रमानाथ अवस्थी, श्री भारत भूषण, श्री वीरेंद्र मिश्र, श्री सोम ठाकुर, डा. शिव बहादुर सिंह भदौरिया, श्री बुद्धिनाथ मिश्र, श्री विष्णु त्रिपाठी राकेश, डा. शिवओम अम्बर, श्री देवराज दिनेश, डा.माहेश्वर  तिवारी, श्री कन्हैयालाल नंदन तथा और भी बड़े ख्यातिलब्ध गीतकवि व व्यंग्यकार सम्मिलित हुए। इस दौरान सौभाग्य से मुझे गीतकार परम श्रद्धेय श्री भारत भूषण जी की अधिक निकटता मिली। उनका काव्य पाठ बहुत चुम्बकीय होता था। वह मेरे सर्वाधिक प्रिय गीतकार रहे। मुझे श्रद्धेय वीरेंद्र मिश्र, श्री किशन सरोज, श्री उमाकांत मालवीय, श्री रमानाथ अवस्थी और श्री कन्हैयालाल नंदन जी का भी सुरुचिपूर्ण सामीप्य प्राप्त हुआ। इनकी उपस्थिति में काव्य पाठ का भी अवसर मिला। इस दौर में कानपुर के प्रख्यात व्यंग्यकार श्रद्धेय पं कृष्णानंद चौबे जी, जो एक कुशल ग़ज़लकार भी थे, उनके साथ कई वर्षों तक हुई बैठकों में मुझे कुछ सीखने को मिला। कविता-कहानियाँ लिखने की अभिरुचि के कारण मैं आकाशवाणी के बाद पत्रकारिता की ओर उन्मुख हुआ। पत्रकारिता का दौर वर्ष 1983 से शुरू हुआ और फिर कई अख़बारों में काम करने के पश्चात सर्वाधिक प्रतिष्ठित एवं लोकप्रिय समाचार पत्र 'दैनिक जागरण' कानपुर में नियुक्त हो गया।  जागरण में कार्यरत होते हुए कवि सम्मेलनों व गोष्ठियों में जाना कठिन होने लगा क्योंकि अवकाश नहीं मिल पाता था। लेकिन मेरा लिखना-पढ़ना यथावत् ज़ारी रहा। रेडियो व दूरदर्शन में काव्य पाठ के अलावा मैं विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं व कविता संग्रहों में प्रकाशित होता रहा।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मेरी कलम शायद थम गई होती यदि सदैव वंदनीय मेरे परम पूज्य सूफी संत श्रद्धेय शाह मंज़ूर आलम शाह जी (कानपुर) का अनन्य स्नेह मुझे हासिल नहीं होता। उन्होंने हमेशा मुझे लिखते रहने की प्रेरणा दी। उपदेशों व शायरी की कई किताबों के रचियता हुज़ूर साहब का कहना था और है, सदैव सकारात्मक सोच की कविताएं लिखिये, नकारात्मक भाव व्यक्त करने से बचिये। उन्हें कोटिशः नमन!!

दूसरी ओर दैनिक जागरण में वर्षों काम करने के पश्चात  जब अवकाश प्राप्त हुआ तब तक मैं मंचों और गोष्ठियों से काफी दूर हो चुका था। ऐसे संक्रमण काल में मेरे अभिन्न मित्र एवं कई देशों की यात्रा करने वाले लोकप्रिय हास्य-व्यंग्यकार, पत्रकार व शिक्षक डा. सुरेश अवस्थी मुझे पुन: मंचों और गोष्ठियों के नज़दीक ले आये। उन्होंने सदैव अच्छे मित्र की भूमिका निभाई। इसमें कोई संदेह नहीं कि मंचों व गोष्ठियों में पढ़ते रहने से नयी रचनाएं लिखने का प्रोत्साहन मिलता है।

जहाँ तक मेरी रचनाधर्मिता का प्रश्न है, मैंने गीत, मुक्तक, दोहे और थोड़ी-बहुत ग़ज़लें लिखीं। श्रृंगार रस से विशेष रूप से जुड़ाव रहा। जब कभी लिखे बिना रहा नहीं गया तभी लिखा। दिमागी कसरत से काफी कुछ दूर रहा इसलिए बहुत कम रचनाएं हो सकीं। यह काव्य संग्रह विविध विधाओं का एक छोटा गुलदस्ता देने का प्रयास है। इस मुकाम तक पहुँचने के लिए मेरे अग्रज साहित्यकार, कवि व समालोचक आदरणीय श्याम सुंदर निगम जी की प्रेरणादाई सीख स्तुतीय है। मेरा उन सभी सुधी मित्रों के प्रति भी साधुवाद है जिन्होंने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मेरा उत्साहवर्धन किया। आशा है सुधी पाठकगण अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य अवगत करायेंगे।


जय हो !!

- लोकेश शुक्ल


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